Thursday 31 December 2015

नव-वर्ष के आगमन पर ।

"सीय-राम मय सब जग जानी । करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी ।।"
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२०१५ की विदाई और २०१६ के स्वागत् में, आप सब में, अपने आराध्य सिया-राम का ही निवास मानते हुए, आपके श्रीचरणों में करबद्ध प्रणाम करते हुए, निवेदन करता हूँ कि आप सब ह्रदय से मुझे आशीर्वाद दे कि नव-वर्ष में, मेरी गर्दन,जो, रूढ़ियों, परम्पराओं और जन्मो-जन्मो के संस्कारों के अंहकार के कारण, झुकना भूल गयी है और हर समय अकड़ी रहती है, को अपने मूल स्वरूप की स्मृति आ जाए और वह ज़रा सा झुक जाए जिससे मैं अपने यार (आराध्य) के दीदार करने में सफल हो सकूँ ।

"दिल में छुपा के रक्खी है, तस्वीरे यार की ।
ज़रा सा गर्दन झुकाई, देख ली ।।"

Tuesday 15 December 2015

शास्त्रों की जीवन में उपयोगिता ।

स्थान - अपर-श्रमायुक्त कार्यालय, कानपुर (उ०प्र०) में चल रही क्षेत्रीय श्रम अधिकारियों की मासिक बैठक ।
वर्ष - १९९३
दृश्य प्रथम :- हर मासिक बैठक की तरह, अपर-श्रमायुक्त महोदय, अधीनस्थो की मिजाजपुर्सी अपने स्वाभावानुसार  (जिसमें अशालीन् शब्दों का प्रयोग स्वाभाविक गति से करना अनिवार्य था और जिसके कारण रक्तचाप से पीड़ित अधीनस्थ,रक्तचाप की दुगनी मात्रा में औषधि लेकर ही, बैठक कक्ष में प्रवेश का साहस कर पाते थे ।) करके हल्के मूड में आ चुके थे ।

दृश्य द्वितीय :- चाय-नास्ते का दौर,पूरी उन्मुक्तता के साथ, चलायमान था कि तभी एक अधीनस्थ ने एक अक्षम्य अपराध कर डाला और उसका अक्षम्य अपराध यह था कि उसने पूर्व अधिकारी के श्रम क़ानूनों के गहन ज्ञान की प्रशंसा करने की गुस्ताखी कर डाली थी ।

दृश्य तृतीय :- "क्या बकवास कर रहे हो ? किस नीच की प्रशंसा कर रहे हो ? वह साला जिसको रोज़ शराब,कबाब और शबाब चाहिए, उसे तुम ज्ञानी बता रहे हो लगता है तुम भी सरुऊ उसी लाइन के हो । जाओ उसी के पास,यहॉं हमारे पास क्या कर रहे हो ? साला टिकियाचोर को ज्ञानी बताता है ।" अधीनस्थ सिर झुकाए मन ही मन सोच रहा था कि यह हो क्या गया ? उसने बहुत कोशिश की पर ज्ञान और शराब,कबाब,शबाब के अन्तर-सम्बन्धों की गुत्थी सुलझाने में सफल न हो सका । उसकी दृष्टि समाधान की तलाश करती-करती मेरे चेहरे पर आ टिकी । मेरे चेहरे पर स्मित हास्य का लास्य देख कर, वह तिलमिला गया पर वातावरण ऐसा था कि उसके पास ख़ून का घूँट पीकर,बैठक के ख़त्म होने के इन्तज़ार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था ।

दृश्य चतुर्थ :- मैं बैठक समाप्ति के बाद अपने कक्ष में ठीक से बैठ भी नहीं पाया था कि वह धड़धड़ाते हुए आया और रोष के साथ बोला,"आपके हास्य का कारण जानने आया हूँ ? आपसे मुझे इस व्यवहार की उम्मीद नहीं थी ।" मैंने कहा,यार बैठो तो सही ।कारण भी बताऊँगा और तुमको कुछ मिष्ठान्न भी खिलाऊँगा । मिष्ठान्न उसकी कमज़ोरी थी यह मुझे मालूम था । मिष्ठान्न के नाम से उसका पारा कुछ नीचे आया । मिष्ठान्न खाते-खाते वह सामान्य हो गया था । तब मैंने उससे कहा कि अगर तुमने बाल्मीकि रामायण का परायण किया होता तो तुमने यह ग़लती न की होती, जिसके कारण बैठक में तुम्हें ज़लील होना पड़ा ।वह फिर उखड़ने लगा और बोला कि क्या ज्ञानी की प्रशंसा करना अपराध है और इस घटना का बाल्मीकि रामायण से क्या सम्बन्ध है ? मैंने कहा प्रशंसा करना अपराध नहीं है पर प्रशंसा के लिए, पात्र,काल और परिस्थिति का ज्ञान होना आवश्यक है और इस ज्ञान का सम्बन्ध बाल्मीकि रामायण से है । राम वन गमन के प्रसंग में दो-तीन श्लोकों में राम सीता को समझाते हुए कह रहे हैं कि सीते मेरे वन  गमन के पश्चात् तुम मेरी चर्चा से बचना और मेरी प्रशंसा तो कदापि मत करना क्योंकि सत्ता में बैठा हुआ व्यक्ति अपने समक्ष दूसरे की प्रशंसा  सहन नहीं कर पाता ।यहसुनकर वह हँसते हुए चला गया और मैंने चैन की सॉस ली ।

 

Saturday 5 December 2015

जीवन यात्रा के कुछ पड़ाव,कुछ यादें,कुछ चाहकर भी न भूल पाने वाली घटनाएँ ।

इधर कुछ दिनों से मित्रों का आग्रह रहा है कि मैं अपनी जीवन यात्रा के कुछ संस्मरण लिपिबद्ध करूँ । आज इसका प्रारम्भ कर रहा हूँ । शुरुआत पिछले महीने ही की गयी यात्रा से कर रहा हूँ ।
माह अक्टूबर के उत्तरार्ध में अहमदाबाद से सीधे काशी के लिए प्रस्थान किया । काशी में चार दिन रुकने के बाद,एक आपात स्थिति आ जाने के कारण,तुरन्त प्रयाग जाना पड़ा । काशी और प्रयाग की बातें फिर कभी, अभी फ़िलहाल मैं आपको ले चलता हूँ,प्रयाग से सीधे चित्रकूट । चित्रकूट, जहाँ श्री राम ने अपने बनवास काल के १४ वर्षों में से लगभग ११,१/२(साढ़े ग्यारह) वर्ष बिताए । चित्रकूट,जहाँ स्फटिक सिला आज भी जीवन्त साक्षी के रूप में मौन पसरी हुई है,अपनी छाती में श्री युगल के उस अप्रतिम सौन्दर्य की स्मृतियॉं सँजोए,जिसमें प्रिय ने अपनी प्रिया का वन पुष्पों के आभूषण अपने हाथों से बनाकर,अद्भुत श्रृंगार किया था,"एक बार चुनि कुसुम सुहाए,निज कर भूषन राम बनाए ।। सीतहि पहिराए प्रभु सादर । बैठे फटिक सिला पर सुंदर ।।"

चित्रकूट, जहाँ श्री राम, महर्षि बाल्मीकि के निर्देश पर आए थे, जिससे वह ऋषियों की तपस्थली चित्रकूट में,उनके सानिध्य में रहकर उन मूल्यों का संचयन कर सके, जो रामराज्य की स्थापना का आधार बन सकें ।"चित्रकूट गिरि करहु निवासू । तहं तुम्हार सब भॉंति सुपासू ।।"

यह चित्रकूट ही है,जिसने मार्क्सवादी विचारधारा के इस युवक को आद्योपान्त परिवर्तित कर दिया था । एक तरह से कहा जाए तो वहीं से ही जीवन का प्रारम्भ हुआ था और आज जीवन के उत्तरार्ध में यह कह सकता हूँ कि वहॉं बिताए गए ८ वर्ष मेरे जीवन के स्वर्णिम वर्ष हैं । पिछले ४५ वर्षों में मैंने कामदगिरि की कितनी परिक्रमा की हैं ? उसकी गणना सम्भव नहीं है । उन परिक्रमाओं में हुई रसानुभूति (आनन्दानुभूति) का वर्णन भी सम्भव नहीं है ।चित्रकूट यात्रा में कामदगिरि की परिक्रमा का विशेष महत्व है । वहॉं का प्राकृतिक सौन्दर्य,वहॉं के कण-कण में व्याप्त सकारात्मक ऊर्जा इतनी ज़बर्दस्त है कि उसका अनुभव वहीं जाकर किया जा सकता है, भाषा में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह शब्दों के माध्यम से आपको उसका अनुभव करा सके ।"कामद भे गिरि राम प्रसादा । अवलोकत अपहरत विषादा ।।" जिसके अवलोकन मात्र से विषाद का हरण हो जाता है । ऐसे हैं हमारे कामदगिरि जी महाराज ।

मैं सप्तनीक परिक्रमा पथ पर था कि तभी मेरे बग़ल से एक तेज़ हवा का झोंका सा गुज़रा । कुछ पलों के लिए मैं अचम्भित हो गया जब तक चेतना वापिस आती, वह झोंका काफ़ी दूर जा चुका था । ग़ौर से देखा तो लगा कि एक सफ़ेद बृद्ध आकृति अपनी स्वाभाविक गति से जा रही है और उसके साथ दो युवा दौड़ रहे हैं । मैं उस सफ़ेद आकृति की गति से अभिभूत हो चुका था । ४५ वर्षों के परिक्रमा काल में एक से एक अनुभव हुए थे पर इस अनुभव से मैं अभी तक वंचित रहा । तभी मुझे याद आया कि पिछली यात्रा में मेरे युवा सहयात्री (जो अब मेरे प्रिय भतीजों में शामिल हैं) ने दूरभाष से मुझे चित्रकूट में एक विलक्षण संत के सम्पर्क में आने की बात बताई थी और मुझसे यह अनुरोध भी किया था कि अगली यात्रा में मैं भी उनसे मिलूँ । मुझे लगा कि कहीं यह वही न हों ? मैंने उसे फ़ोन मिलाया और उससे, उनके विषय में जानकारी की तो उसने बताया कि वह ९० वर्ष के हैं, बारहों महीने वे केवल एक सफ़ेद चद्दर धारण करते हैं, केवल फलाहार और दूध लेते हैं । वे प्रतिदिन कामदगिरि की दो परिक्रमा सुबह और दो परिक्रमा शाम को करते है । उनकी गति बहुत तीव्र होती है, उनके साथ परिक्रमा लगाने के लिए दौड़ना पड़ता है । मैंने उसे बताया कि मैं परिक्रमा में ही हूँ और सौभाग्य से पीछे से उनके दर्शन भी हो गए हैं । मैनें उससे, उनका नाम और पता पूंछा तो उसने बताया कि केवल चद्दर धारण करने के कारण लोग उन्हे चदरिया बाबा के नाम से जानते हैं और उनकी कुटी सरयू धारा के पास है । किसी से भी पूंछने पर पता लग जायेगा ।

मैं जब उनकी कुटिया में पहुँचा तो वह बाहर बैठे हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे । गौरांग,कृषकाय,शरीर । चेहरे में झुर्रियों के बावजूद अद्भुत तेज़ । स्मित हास्य से भरा पोपला मुँह,अॉंखों में ग़ज़ब का सम्मोहन ।हम प्रथम दर्शन में ही अभिभूत हो गये ।
         मेरे युवा मित्र ने उन्हे दूरभाष से मेरे आगमन की सूचना दे दी थी । वे हमें देखते ही अपनी कुर्सी लेकर अन्दर चले गये पीछे-पीछे हमने भी प्रवेश किया तो अन्दर एक तख़्त पड़ा था और कुछ कुछ कुर्सियॉं पड़ी थी । उन्हे दण्डवत किया तो उन्होंने आसन लेने का इशारा किया और वह अन्दर से एक थाली में पर्याप्त मात्रा में काजू की बर्फ़ी लेकर लौटे । हम तीन लोग थे,उस हिसाब से वह बर्फ़ी बहुत ज़्यादा थी । मैंने उनसे निवेदन किया कि मैं सुगर का मरीज़ हूँ आप इसे कुछ कम लें । उन्होंने ने कम करने से इनकार कर दिया और कहा कि कुछ नहीं होगा, इसकी गारण्टी मैं लेता हूँ । यह कामतानाथ की भूमि है, मेरे साथ रोज़ परिक्रमा करो,एकदम ठीक हो जाओगे । मजबूरन हमें लेना पड़ा ।अभी खा ही रहे थे कि वह तेज़ी से उठे और एक प्लेट में पर्याप्त मात्रा में सेब काट लाए । उनका प्रसाद पाने के बाद,उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने बताया कि वह ४० वर्षों से चित्रकूट में हैं, इसके पहिले वे अमरकण्टक (मॉं नर्मदा का उद्गमस्थल) में थे । मैंने उन्हे बताया कि लगभग ४५ वर्षों से मैं कामतानाथ जी की शरण में हूँ और ८ वर्ष  की राजकीय सेवा तो यहीं की है पर आपके दर्शनों का सौभाग्य आज ही मिला है । उन्होंने कहा कि हर चीज़ अपने समय पर ही होती है । यह मुलाक़ात किसी माध्यम से होनी थी और वह माध्यम ही तुम्हें अभी मिला है तो हमसे मुलाक़ात पहिले कैसे हो जाती ।

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी ।इस विस्तार में न जाकर मैं संक्षेप में निष्कर्ष पर आता हूँ और निष्कर्ष यह है कि मैं तीन दिन चित्रकूट में रहा और सुबह-शाम मिलाकर कुल ५ परिक्रमा उनके साथ लगायी । मैं उनके साथ एक परिक्रमा सुबह और एक परिक्रमा शाम को करता था । परिक्रमा ५ किलोमीटर की थी । मैं पहिली बार तो थोड़ी देर उनके साथ दौड़ा पर ह्रदय की धड़कन इतनी बढ़ गयी कि गति घटानी पड़ी । मेरा भान्जा ही दौड़कर उनके साथ चल पाया पर उसने भी दूसरी परिक्रमा करने में असमर्थता जता दी । वह ३० मिनट में ही एक परिक्रमा पूरी कर लेते है । दो परिक्रमा सुबह और दो शाम करना उनका नित्य का कार्यक्रम है । पहिली मुलाक़ात में मुझे जानकारी न होने के कारण,विदा के समय दक्षिणा देने का असफल प्रयास, उन्हें असहज कर गया था, जिसके लिए मुझे अब भी ग्लानि है । वह केवल फल और मिष्ठान्न की भेंट केवल इसलिए स्वीकार कर लेते हैं,जिससे वे आगन्तुको का सत्कार कर सकें । उन्होंने मुझसे कई बार कहा कि अब मैं भटकना बन्द करूँ और एक जगह रहकर भजन करूँ ।

उनकी सहज कृपा है कि जब से उन्हें मेरी और पत्नी की अस्वस्थता का पता लगा है, वह हर दो-तीन दिन में दूरभाष से मेरे समाचार लेते रहते हैं । मैंनें अपने जीवन में, ईश्वर की कृपा का इतनी बार अनुभव किया है कि उसकी गणना नहीं हो सकती । चदरिया बाबा का कृपापात्र बनना,मेरे प्रभु की कृपा का एक और प्रमाण है ।इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इतनी बदपरहेजी के बाद भी लौटकर जब मैंने सुगर नपवाई तो वह नार्मल निकली ।

Thursday 3 December 2015

क़रीब ढाई महीने बाद आज आपसे मुख़ातिब हूँ । इस लम्बे अन्तराल का कारण मैं स्वंय हूँ । क्षात्र जीवन में लिखने का व्यसन था  । राजकीय सेवा में आने के बाद लगा कि अभिलाषित ज़िन्दगी न जी पाने के बाद भी, आदर्शवादी लेखन करना, लेखनधर्मिता के साथ अन्याय होगा, अत: सायास लेखन बन्द कर दिया । 
सेवानिवृत्ति के समय बच्चों द्वारा लैपटॉप भेंट किये जाने पर और उस समय अपने गुरू जी की गम्भीर अस्वस्थता के कारण,अत्यधिक मानसिक तनाव को कम करने के लिए फिर से अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए, लेखनी की शरण में जाना पड़ा । उनके विष्णुलोक गमन के बाद, जीवन निरर्थक लगने लगा । जीवन का कोई उद्देश्य शेष न रहा । अपनी इस जड़ता को तोड़ने के लिए, लगातार भ्रमण करता रहा पर सफलता न मिली । चार वर्षों तक अपने आप से भागता रहा । जीवनसाथी के ज़ोर देने पर फिर से लेखन की शरण में गया । चार-पॉंच महीने क़रीब सक्रिय रहा, एक दिन प्रात:काल अचानक एक विचार दिमाग़ में कौंधा कि कहीं यह सक्रियता, "लाईक" और "सकारात्मक टिप्पणी" देखने की सुखद वासना का परिणाम तो नहीं है ? जितना इस पर चिन्तन किया, यह विचार दृढ़ होता गया । "आई पैड" सहधर्मिणी को समर्पित कर मौन में चला गया ।
इस मौन के टूटने के पीछे कारण यह है कि २५ नवम्बर को फिर से शुरू होने वाली यात्रा,अस्वस्थता के कारण स्थगित हो गयी है । शरीर में ज़्यादा कूड़ा-करकट इकट्ठा हो जाने पर शरीर अस्वस्थ हो जाता है,इसलिए इसकी सफ़ाई का कार्य चिकित्सकों को देकर निश्चिन्त हो गया हूँ । दिमाग और मन के ऊपर बढ़ने वाले कूड़े के भार का कुछ हिस्सा आपके ऊपर डालकर हल्का होने का प्रयास कर रहा हूँ ।देखिए कितनी सफलता मिलती है ? 

Thursday 17 September 2015

"जो सुमिरत सिधि होइ गननायक करिबर बदन, करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन"

"जो सुमिरत सिधि होइ गननायक करिबर बदन,करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन"
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(जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं,जो गणों के स्वामी और सुन्दर हाथी के मुख वाले हैं,वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें)

आज इन्हीं बुद्धि राशि गणेश जी के जन्म दिन पर,आप सब को ढेर सारी शुभकामनाएँ ।

मूषक वाहक गणेश जी हम सबको एक संदेश देते हैं, जिसे यदि हम ग्रहण कर सकें तो जीवन आनन्दानुभूति से हमेशा आप्लावित रहे ।

बाह्य दृष्टि से देखने में यह बड़ा विचित्र सा लगता है कि विशालकाय गणेश का वाहन,छोटा सा मूसक (चूहा) है । इसका प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि मूसक, मन का प्रतीक है । मन हर समय संकल्प-विकल्प करता रहता है,यानि कि बहुत चंचल होता है ।"चंचलम् हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवदृणम्,तस्याहम् निग्रहम् मन्ये वायोरिव स दुस्करम्"--गीता । इसी मन की भाँति चूहा भी बहुत चंचल होता है । वह हर समय कुछ न कुछ कुतरता ही रहता है । उसके दाँत इतने तेज़ी से बढ़ते हैं कि यदि वह हर समय कुछ न कुछ कुतरना छोड़ दे तो उसके दाँत,उसके जबड़ों को तोड़कर बाहर आ जाएँ ।

यही स्थिति हमारे मन की भी हैं । यदि इस मन रूपी चूहे पर बुद्धि रूपी गणेश का नियंत्रण न हो तो मन हमारा सर्वनाश कर दे ।
आज उनके जन्मदिन पर यदि हम यह संकल्प लें कि हमारे मन पर हमारी बुद्धि का नियँत्रण,हम हमेशा बनाए रक्खेगें तो हमारा जन्मदिन मनाना सार्थक होगा अन्यथा नहीं ।

Monday 14 September 2015

हिन्दी दिवस पर

हिन्दी दिवस पर
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आज हिन्दी दिवस है । बहुत सारे नाटक होंगे । जो हिन्दी की रोटी खाते हैं,वे सब बड़ी-बड़ी बातें करेंगे । पर जब इनके बारे में जानेगेँ तो आश्चर्य में पड़ जायेगें । इन सब के घरों में ज़्यादातर अंग्रेज़ी का वर्चस्व होगा । इनके बच्चे आंग्ल भाषा के माध्यम वाले विद्यालयों के छात्र होगें । रहन-सहन भी पाश्चात्य अभिजात्य के अनुसार होगा ।

कितनी बड़ी विडम्बना है कि हिन्दी फ़िल्मों के नायक और नायिका,या अन्य विभागों से जुड़े हुए लोग,जो हिन्दी फ़िल्मों की वजह से करोड़पति,अरबपति और खरबपति हैं, वे साक्षात्कार के समय,ज़्यादातर आंग्ल भाषा का ही प्रयोग करेगें । इतना ही नहीं हिन्दी फ़िल्मों के एवार्ड फ़ंक्शन का संचालन ज़्यादातर आंग्ल भाषा में ही किया जायेगा ।

मुझे आज से ३५-४० वर्ष पूर्व "कादम्बनी" पत्रिका में छपा श्री सुनील शास्त्री ( आदरणीय लालबहादुर शास्त्री के पुत्र ) का एक संस्मरण याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि विदेश यात्रा (सम्भवत: रूस) के समय, उन्हें एक पते के विषय में जानकारी करनी थी । वह जिस भी व्यक्ति से अंग्रेज़ी में पता पूंछते वह व्यक्ति बिना इनकी ओर ध्यान दिए (बग़ैर रुके) आगे बड़ जाता था ।इन्हें लगा कि यह कैसा असभ्य देश है ? जब वह काफ़ी परेशान हो गए तो अचानक मन में एक विचार आया कि क्यों न हिन्दी में पूंछकर देखा जाये ? उन्होंने जैसे ही यह प्रयोग किया, वैसे ही व्यक्ति रुका और उसने इनको अपने साथ चलने का इशारा किया । वह इनको ऐसे व्यक्ति के पास ले गया जो हिन्दी जानता था । उनकी समस्या का समाधान हो गया । सुनील जी ने उस हिन्दी जानने वाले से जब यह पूंछा कि जब तक वह अंग्रेज़ी में पूछते रहे,तब तक कोई भी व्यक्ति उनकी तरफ़ मुख़ातिब क्यों नहीं हुआ ?तो उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि चूँकि आप हिन्दुस्तानी होते हुए भी विदेशी भाषा का प्रयोग कर रहे थे इसलिए कोई नहीं रुक रहा था । जैसे ही आपने अपनी मातृ भाषा का प्रयोग किया तो तुरन्त आपकी सहायता की गयी क्योंकि हम भी अपनी मातृ भाषा का बहुत सम्मान करते हैं ।म
 

Friday 4 September 2015

शिक्षक दिवस पर

शिक्षक दिवस पर
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शास्त्रों  ने मानव जीवन का उद्देश्य निम्न मंत्र में स्पष्ट किया है 
"असतो मा सद् गमय
 तमसो मा ज्योत्रिगमय 
 मृत्योर मा अमृतंगमय"
असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमरत्व की ओर की यात्रा ही मानव जीवन का लक्ष्य है । 
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये, हमारे जीवन में जो भी हमारे सहायक हुये हैं,वे सब हमारे गुरु हैं । वैसे गुरु का शाब्दिक अर्थ भी यही है कि जो 'गु' माने अन्धकार से 'रु' माने प्रकाश की ओर ले जाये, उसे गुरु कहते हैं ।

महर्षि दत्तात्रेय जी ने अपने जीवन में २४ गुरु बनाये है, जिसमें एक गुरु के रुप में उन्होंने कन्या को माना है । कन्या को गुरु के रूप में उन्होंने इसलिए स्वीकार किया कि एक बार,घर में अतिथि (अतिथि उसे कहते हैं जिसके आने की पूर्व सूचना न हो ) आ जाने पर 
पिता ने बाहर से पुत्री को आवाज़ दी कि वह अतिथि के लिए भोजन तैयार करे । उस समय संयोगवश घर में कोई भोजन की सामग्री नहीं थी । कुछ धान घर में पड़ा हुआ था । कन्या ने जल्दी से हाथों में एक चूड़ी छोड़ कर शेष चूड़ियाँ उतार कर, धान कूट कर भोजन तैयार कर दिया । कन्या ने एक चूड़ी छोड़कर बाकी चूड़ियाँ इस लिए उतार दी थी कि चूड़ियों के शोर से अतिथि को पता लग जाता कि घर में कुछ नहीं है । दत्तात्रेय जी ने इस घटना से "अद्वैत" की शिक्षा ली कि जहाँ एक से ज़्यादा हैं वहीं द्वैत है और जहाँ द्वैत है वहीं द्वन्द्व है, वहीं शोर है ।

आज शिक्षक दिवस पर मैं अपने जीवन में आए उन सभी महानुभावों को साष्टांग प्रणाम करता हूँ जिनसे मैनें जीवन के सही अर्थ सीखे हैं ।

Saturday 22 August 2015

"भइ गति सॉंप-छछून्दर केरी"

"भइ गति सॉंप-छछून्दर केरी"
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यह एक प्रचलित मुहावरा है जो कि ऐसी स्थिति के लिए प्रयोग किया जाता है जिसमें किसी घटना को न नकारते बनता है और न ही स्वीकारते बनता है । इस भाव को "न निगलते बनता है न उगलते बनता है" मुहावरे के द्वारा,ज़्यादा स्पष्ट किया जा सकता है ।

इस मुहावरे का शाब्दिक अर्थ है सॉंप और छछून्दर के तरह की हालत हो जाना । अब प्रश्न यह उठता है कि यह सॉंप-छछून्दर की गति है क्या ? 

जब सॉंप भूख के कारण छछून्दर को पकड़ कर आधा लील लेता है तो उसे याद आता है कि यदि वह छछून्दर को खा लेता है तो उसे क्षय रोग हो जायेगा और अगर वह छछून्दर को छोड़ देता है तो उसकी विसर्जित वायु उसे अंधा कर देगी । इसी भय के कारण न वह छछून्दर को निगल पाता है और न ही छोड़ पाता है ।

इसी तरह साधक जब अपनी साधना में आगे बढ़ता है और उसे साधना में रस की अनुभूति होने लगती है,ठीक उसी समय माया मोह के बन्धनों में कस कर उसे जकड़ लेती है और उस साधक की गति "भइ गति सॉंप-छछून्दर केरी" की तरह हो जाती है । एक तरफ़ प्रारम्भिक रसानुभूति का आकर्षण उसको अपनी ओर खींचता है तो दूसरी तरफ़ माया का मायाजाल,जिसमें परिवार का मोह,धन का मोह,और-और-और सबसे बड़ा यश का मोह,उसे साधना में आगे बड़ने से रोक देती है और वह मायाजाल में फँस जाता है ।

अब प्रश्न यह उठता है कि माया ऐसा क्यों करती है ? तो उसका जवाब यह है कि माया भगवान की पत्नी है,इसीलिए भगवान को मायापति कहा जाता है और कोई भी पत्नी नहीं चाहेगी कि कोई दूसरा उसके पति की तरफ़ आगे बढ़े और उसे सौत का दु:ख झेलना पड़े ।

Thursday 20 August 2015

"जीवन के वे पल" के प्राक्कथन पर टिप्पणी

आदरणीय भ्राता श्री रमाकान्त जी ने आदेश दिया है कि मैं उनके काव्य संकलन "जीवन के वे पल" के प्राक्कथन पर अपनी टिप्पणी 
दूं ।

कवि ने "अपनी बात" में तीन बातों पर ज़ोर दिया है ।

१-साहित्य (निबन्ध,कहानी,उपन्यास,कविता आदि कोई भी विधा) जीवन के लिए है । जीवन से इतर न तो कोई महत्व है और न ही कोई उपादेयता ।

२-साहित्य को सम्प्रेषणीय होना चाहिए । पाठक को उसे समझने के लिए माथा-पच्ची न करनी पड़े ।

३-लेखक को अपनी रचना में कोई संदेश निष्कर्ष के रूप में देना चाहिए जो मानवीय मूल्यों के अनुकूल हो ।

१-"साहित्य समाज का दर्पण है" चूँकि साहित्य समाज का दर्पण है,अत: जैसा समाज होगा,जैसे सामाजिक मूल्य होंगें,वही साहित्य रूपी दर्पण में प्रतिविम्बित होगा । हॉं यदि साहित्यकार ने अपने दर्पण को अपने विचारों से मैला कर रक्खा है तो प्रतिविम्ब पूरी शिद्दत के साथ नहीं उभरेगा । अत: यह स्वंयसिद्ध है कि साहित्य का जीवन से इतर न तो कोई महत्व है और न ही कोई उपादेयता ।

२-महाकवि तुलसी संस्कृत के उद्भट विद्वान थे,यह रामचरितमानस के प्रत्येक अध्याय का मंगलाचरण प्रमाणित करता है,इसके बाद भी उन्होंने प्राकृत भाषा (हिन्दी) में काव्य रचना मात्र इसलिए की कि जिससे वह जन सामान्य के पास सीधे पहुँच सके,जबकि इसके लिए,उन्हे तत्कालीन विद्वत् समाज की प्रताड़ना भी सहनी पड़ी ।

केशव ने भी "रामचन्द्रिका" लिखकर राम का ही चरित्र गाया है,पर उन्हें, साहित्य के विद्यार्थी को छोड़कर कोई नहीं जानता और वह भी उन्हे "कठिन काव्य के प्रेत" के रूप में उल्लखित करता है ।
अत: वही साहित्य कालजयी हो पाता है जो शाश्वत् मूल्यों की स्थापना करता है और पाठक के ह्रदय के साथ सीधे रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम होता है ।

३-मानवीय मूल्यों की गिरावट ही रचनाकार को लेखन के लिए बाध्य करती है और मानवीय-सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना ही उसका उद्देश्य होता है । बिना इस उद्देश्य के ध्यान में रक्खे किया गया लेखन, लेखकीय क्षमता का दुरुपयोग तो हो सकता है,साहित्य नहीं ।

Tuesday 18 August 2015

"जीवन के वे पल"

कल गुजरात पहुँचने पर भ्राताश्री रमाकान्त सिंह जी द्वारा भेंट की गई पुस्तक "जीवन के वे पल" प्राप्त हुई । यात्रा की थकान के कारण कुछ कविताएँ कल पढ़ी, शेष आज पढ़ी । पढ़ने के तुरन्त बाद मन में कुछ कहने का विचार आया । विगत १० दिनों से जड़ता की स्थिति में जी रहा था, इस पुस्तक ने वह जड़ता तोड़ी और मैं विवश हो गया आप सब से मुख़ातिब होने के लिए ।

"जीवन के वह पल" जीवन की वह गाथा है जिसमें जीवन के हर अंग को विभिन्न रंगों में, कवि की लेखनी ने,इतने भावपूर्ण ढंग से भरा है कि मन जैसे ही 'वह जाती आगे आगे' में रूमानियत की बाँहों में डूबने को होता है कि तभी 'सत् पुरुषों के नाम' के सामाजिक और राजनैतिक विद्रूपताओं के दंश उसे तिलमिला देते हैं । नन्ही 'आरिका' की चुलबुलाहट जैसे ही मन को आह्लाद से आप्लावित करती है कि वैसे ही 'द्रौपदी' में नारी जीवन की अभिशापिता नेत्रों में अश्रु भर देती है । 'यक्ष प्रश्न' हमारे सामने ऐसे प्रश्न खड़े करता है,जिसके जवाब प्रभु ही दे सकते हैं ।

'३१ जनवरी,१९९४','दिवाली-१९९२' जीवन के नैराश्य को समाप्त कर,आशा का एक नया आकाश गढ़ती है ।'तुमने कहा था' में कवि का आक्रोश प्रकट हुआ है तो 'मन वीणा के तार न तोड़ो','हर पंछी को नीड़ चाहिये' में जिजीविषा का सौन्दर्य अपनी पूरी गरिमा के साथ मुखरित होता है ।

संकलन की हर कविता एक नयी भाव सृष्टि का सृजन करती है ।'वरदान' में जिस वरदान की याचना अपनी पूरी अस्मिता के साथ,प्रभु से की गयी है, उसमें 'याचना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला दो' के साथ प्रभु से यह भी प्राथना है कि वह कवि को एक स्वस्थ और लम्बा जीवन प्रदान करे,जिससे हम सभी उनकी भावपूर्ण, विचारपूर्ण,गहन संवेदनाओं,दीर्घ अनुभवों से युक्त रचनाओं से प्रेरणा ग्रहण करते रहें ।


Saturday 1 August 2015

Friendship Day पर

Friendship Day पर

आज पूरा संसार Friendship Day मना रहा है । हमारी संस्कृति में मित्र कैसा होना चाहिए ? किस तरह के मित्र से दूर रहने में ही भलाई है ? इसका सुन्दर विवेचन "मानस" में प्रभु राम द्वारा सुग्रीव से किये गये वार्तालाप में,हुआ है । इस वार्तालाप में श्रुतियों का सार निहित है ।

"जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि बिलोकत पातक भारी
 निज दुख गिरि सम रज करि जाना,मित्रक दुख रज मेरु समाना"
( जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हे देखने से ही बड़ा भारी पाप लगता है । अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान माने ।)
"जिन्ह के असि मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई
 कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा"
( जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी मति प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे । उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे ।)
"देत लेत मन संक न धरई, बल अनुमान सदा हित करई
 विपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन नेहा"
( देने-लेने में मन में शंका न रखे । अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे । विपत्ति के समय में तो सदा सौगुना स्नेह करे । वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं ।)

यह तो थे मित्र के लक्षण । अब कैसे मित्रों को छोड़ देने में ही भलाई है, इसका निरूपण निम्न चौपाई में है ।

"आगें कह मृदु बचन बनाई, पाछे अनहित मन कुटिलाई
 जाकर चित अहि गति सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई"
( जो सामने तो बना-बनाकर कोमल बचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है-हे भाई!(इस तरह)  जिसका मन सॉंप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है ।)

मित्रता दिवस पर मैं सभी मित्रों का ह्रदय से स्मरण करते हुए, प्रभु को आज के दिन आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने मुझे आप जैसे प्यारे मित्र दिए हैं, जिसके कारण मेरा जीवन रस और आनन्द से आपूरित हो सका ।

Thursday 30 July 2015

कोई तो हो जो मुझको डाँटे

गुरूपूर्णिमा पर
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सालों से मैं तरस रहा हूँ कोई तो हो जो मुझको डाँटे 
अन्दर जो दुख है पसरा कोई तो हो जो  उसको बॉंटे

तुमने तो मेरे अहंकार को जी-जी  भरकर तोड़ा भी था
मेरे  प्रेम पिपासित मन को प्रभु चरणों से जोड़ा भी था
फिर से माया के बंधन में हूँ कोई तो हो जो इसको काटे
सालों से मैं तरस रहा हूँ कोई तो हो  जो मुझको    डाँटे 

तुमने तो जीवन सार्थक कर प्रभु चरणों में विश्राम  पा लिया
पहिले तो मेरी बॉंहें पकड़ी फिर बीच धार में मुझे छोड़ दिया
चारो तरफ़ खॉंई ही खॉंई कोई तो हो जो इनको पाटे
सालों से मैं तरस रहा हूँ  कोई तो हो जो मुझको डॉंटे
अन्दर जो दुख है पसरा कोई तो  हो जो  उसको बॉंटे

Tuesday 28 July 2015

सपने वे हैं जो सोने नहीं देते


सपने वे हैं जो सोने नहीं देते

आपने
कहा था
"सपने वे नहीं जो आप नींद में देखते है
सपने वे हैं जो आपको सोने नहीं देते "
आपने 
यह केवल कहा भर नहीं था
इसे जिया भी था 
जिस उम्र में
आदमी
सपने पूरे करना तो दूर
सपने देखने से भी दूर भागता है 
आप नित्य सपना देखते थे 
एक ऐसे ख़ुशहाल भारत का
जिसकी सुबह होगी
मन्दिर की घंटियों से, मस्जिद की अजानो से
बाइबिल की पँक्तियों से,गुरुवाणी की तानो से
स्कूल जाते खिलखिलाते बच्चों से
धमाचौकड़ी मचाते किशोरों से
राष्ट्र के विकास के लिए
तैयारी करते नौजवानों के जोश से 
बृद्धों के होश से
और यही सपना आपको सोने नहीं देता था
निरन्तर आपको गतिमान रखता था
देश के एक कोने से दूसरे कोने तक
कभी बच्चों के बीच
कभी नौजवानों के बीच
कभी देश के प्रबुद्ध जनों के बीच
"गीता" का निष्काम कर्मयोग 
अवतरित हुआ था
आपमें पूरी शिद्दत के साथ
आज आपका शरीर
सुपुर्दे ख़ाक हो जायेगा
पर हम आज आपको
वचन देते हैं 
कि हम 
ज़िन्दा रक्खेंगे
आपके सपनों को अपनी अन्तिम सॉंस तक


Saturday 25 July 2015

जहँ-जहँ कबीर माठा का जॉंय,भैंस पड़ा दोनौ मरि जॉंय

"जहँ-जहँ कबीर माठा का जॉंय,भैंस पड़ा दोनौ मरि जॉंय"
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यह बुन्देलखण्ड की एक कहावत है ।

इसका शाब्दिक अर्थ है कि कबीर जहाँ-जहाँ मठ्ठा(छाछ) के लिए जाते हैं,वहॉं भैंस और पड़वा (भैंस का बच्चा) दोनों मर जाते हैं ।

इसका लाक्षणिक अर्थ यह है कि व्यक्ति का भाग्य,उसके आगे-आगे चलता है ।

इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि कबीर जहाँ-जहाँ मठ्ठा यानि कि अपनी खोज में गए तो उन्होंने पाया कि भैंस यानि कि माया और पड़ा यानि कि अंहकार का विगलन स्वत: हो गया है ।

Friday 24 July 2015

कल फिर वही सूरज उगेगा

जीवन का सूरज
ढलता तो है
मरता नहीं है
कल
फिर वही
सूरज उगेगा
उजास होगा
उल्लास होगा 
कलियाँ खिलेंगी
चिड़ियॉं चहचहायेगीं
सप्तरंगी रश्मियों की
डोली में
आयेगा
मन्दिरों में घंटियाँ बजेंगीं 
मस्जिदों में अजान होगी
ज़िन्दगी गुनगुनायेगी
जवानी मुस्करायेगी
इस
आने वाली सुबह के लिए
जीवन की संध्या को
सूरज को
अपने आग़ोश में
लेना ही होगा 
लेना ही होगा

Thursday 23 July 2015

अकड़

किसी की अकड़ तोड़ने की बजाय,उसकी अकड़ को इस सीमा तक बड़ा देनी चाहिए कि वह अपने आप टूट जाए । ऑंधी आने पर वही पेड़ सुरक्षित रह पाते हैं,जो झुकना जानते हैं, अकड़ में तने पेड़ो का टूटना ही उसकी नियति है । किसी की अकड़ तोड़ने के अपराध बोध से हम क्यों ग्रसित हो ?

किसी की आलोचना करना बहुत आसान है,क्योंकि भगवान भी अगर मानव शरीर में आए हैं तो उन्होंने भी मानवीय कमज़ोरियों का दिग्दर्शन कराया है । इन्सान कमज़ोरियों का पुतला है और हम उसकी कमज़ोरियों को ही देखते हैं, उसके गुणों को हम देखने की कोशिश ही नहीं करते । बुरे से भी बुरे आदमी में भी कुछ अच्छाइयॉं होती है,बेहतर होगा कि हम उसकी आलोचना करने के स्थान पर उसके गुणों की प्रशंसा करे, जिससे वह अच्छाई की तरफ़ जा सके ।

Tuesday 21 July 2015

मैं खड़ा हूँ

जीवन
नदी के
जल सा
निरन्तर 
सरकता
जा रहा है
मैं
नदी के
तट पर 
खड़ा हूँ 
एकदम
अकेला

Monday 20 July 2015

पीर पर्वत सी सयानी हुई है

पीर पर्वत सी सयानी हुई है
शब्द बौने हैं नहीं कह पायेगें

मन घिरा है राग के सैलाब में
वैरागी गीत हम नहीं गा पायेगें

ज़िन्दगी बंध में जकड़ी  हुई है
निर्बंध प्रभु आप ही कर पायेगें









Sunday 12 July 2015

एक ऐसी लघुकथा जिसके विस्तार का कोई अन्त नहीं है ।

एक ऐसी लघुकथा जिसके विस्तार का कोई अन्त नहीं है ।
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हमारी भाषा की वर्णमाला का प्रथम अक्षर "क" है और अन्तिम अक्षर "ज्ञ" है ।

हमारे मानव जीवन की पूरी यात्रा, इन्हीं दोनो अक्षरों के बीच सिमटी हुई है ।

"क" माने कौन ? यानि कि मैं कौन हूँ,"को अहम्"? जिस दिन मन में यह प्रश्न उठता है, हम इस यात्रा के पथिक बन जाते हैं और इस यात्रा का अन्त होता है "ज्ञ" यानि ज्ञान में । जब यह ज्ञान हो जाता है कि मैं वही हूँ "सो अहम्" दूसरा कोई है ही नहीं । तब इस यात्रा का अन्त हो जाता है । पर इस छोटी सी यात्रा पूरी करने में कितना समय (कितने जन्म) लगेगें, पता नहीं ? हॉं,"ख" यानि अन्तरिक्ष (अनन्त) को जानने के लिए यदि "ग" यानि गुरू की कृपा प्राप्त हो जाती है तो इस यात्रा में इतना ही समय लगता है जितना रकाब में पैर रखकर अश्व की सवारी में लगता है ।

Friday 10 July 2015

रिश्वत लेने के सिद्धान्त

रिश्वत लेने के सिद्धान्त 
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(वर्ष १९७३ में घटी एक सत्य घटना के आधार पर)

मैं कानपुर स्टेशन पर कानपुर-बाँदा पैसेंजर में बैठने जा ही रहा था कि उसी समय पीछे से किसी सज्जन ने कन्धे में हाथ रक्खा । मैं पलटा तो देखा कि टी०सी० सिंह साहब हैं । सिंह साहब मुझसे उम्र में बड़े थे । वह कयी वर्षों से रेलवे की मुजालमत कर रहे थे और साथ ही परास्नातक में मेरे सहपाठी भी थे । मैं उन्हे बड़े होने के नाते भाई साहब ही कहता था और वह मुझे मिश्रा कहकर बुलाते थे । उन्होंने पूंछा कि मिश्रा टिकट ले लिया है ? मैने कहा हॉं भाई साहब । इस पर वे मेरा हाथ पकड़कर ले चले । मैने कहॉं ले चल रहे हैं ? वे बोले चलो हमारे साथ फ़र्स्ट क्लास में बैठो (उस समय इस रूट पर पैसेंजर ट्रेन ही चलती थी और उसमें फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा भी लगता था) मैने उन्हे बहुत मना किया पर वे माने नहीं, कहने लगे कि रास्ते मे बातें करेंगे,तुम्हारा समय भी कट जायेगा और मेरा भी । वे मुझे डिब्बे में बिठाकर,यह कहकर चले गये कि तुम बैठो मैं ट्रेन चेक करके आता हूँ । दो-तीन स्टेशन निकलने के बाद वे आए तो उनके साथ दो व्यक्ति और थे,जिन्हें वे चेकिंग में बिना टिकट पकड़ कर लाये थे । अब उनके मध्य हुआ संवाद,जिसके लिए यह लेखन किया गया है, निम्नवत् है ।

चलो निकालो पैसे । रसीद कटवाओ ।
अरे सिंह साहब ! रसीद-वसीद छोड़िए । हम सेवा के लिए तैयार हैं,सेवा बताइए ।
चलो अच्छा इतने-इतने निकालो ।
यह तो बहुत ज़्यादा है साहब,हम तो रोज़ वाले हैं ।
मैं जानता हूँ कि तुम दोनो रोज़ वाले हो,इसीलिए तो इतना मांग रहा हूँ ।
यह क्या बात हुई साहब ?
देखो,मेरा एक सिद्धान्त है कि ट्रेन में बैठने के पहिले यदि तुमने मुझे ढूँढ़ लिया तो पैसा तुम्हारी मर्ज़ी का ।और यदि ट्रेन चलने के बाद, मुझे तुम्हें ढूँढ़ना पड़ा तो पैसा मेरी मर्ज़ी का । मैं अपने इस सिद्धान्त  से कभी कोई समझौता इसलिए नहीं करता, जिससे तुम भविष्य  में ऐसी ग़लती न करो ।
मैंने भाई साहब की इस सिद्धान्तवादिता को मन ही मन नमन किया ।

Thursday 9 July 2015

वर्ष १९७३ में लिखी गयी लघुकथा

वर्ष १९७३ में लिखी गयी लघुकथा ।
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एक अधिकारी अपने मातहत पर बिगड़ रहे थे ।
तुम बेवक़ूफ़ हो ?
जी सर !
तुम नालायक हो ?
जी सर !
तुम कामचोर हो ?
जी सर !
क्या जी सर, जी सर लगा रक्खा है ।" जी सर" के अलावा भी कुछ जानते हो ?
जी सर !
क्या ?
मैं अधिकारी नहीं हूँ, सर !


Wednesday 8 July 2015

जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है ।

जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है 
एक पूरा हुआ नहीं कि दूजा आता है

मुक्ति नहीं होनी है तेरी क्योंकि तू रागों से घिरा हुआ है
तेरा एक-एक अंग काम के पुष्प बाणों से बिंधा हुआ है
लो मधु का प्याला भी रीता जाता है 
जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है

अब भी बच सकता है तू यदि नेह कहीं तू और जोड़ ले
बेमतलब की इस दुनिया से यदि अब भी तू मुँह मोड़ ले 
सॉंसे कम है एैसा यह पगला गाता है
जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है


Tuesday 7 July 2015

"तिरिया चरित्रम्,पुरुषस्य भाग्यम्,दैवो न जानसि"

"तिरिया चरित्रम्,पुरुषस्य भाग्यम्,दैवो न जानसि"
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स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य के विषय में देवता भी नहीं जानते । इस सूक्त को पढ़ा तो था पर यह कितना सार्थक है,इसका अनुभव नहीं था । इसके पहिले भाग की यथार्थता का अनुभव जब जीवन में पहिली बार हुआ था तो कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया था । पूरा घटनाक्रम इस प्रकार है ।

दृश्य १- वर्ष १९६८ ।उ०प्र० का एक कस्बानुमा शहर ।जिसको शहर कहने से शहर भी लज्जा से ज़मीन में गड़ जाने का मन करता था । इसी क़स्बे के एक मात्र डिग्री कालेज की,मासिक फ़ीस जमा करने की एक मात्र खिड़की पर एक छात्र और एक छात्रा मौजूद है । मासिक फ़ीस जमा करने की अन्तिम तिथि निकल चुकी है । अब केवल विलम्ब शुल्क के साथ फ़ीस जमा हो रही है । छात्र नेता भी है, अत: वह अपना विलम्ब शुल्क,प्राचार्य से मिलकर माफ़ करवा ले आया है । वह फ़ीस जमाकर के पलटता है तो छात्रा उससे अनुरोध करती है कि वह उसका भी विलम्ब शुल्क माफ़ करा दे । छात्र, छात्रा से प्राचार्य के नाम विलम्ब माफ़ी का प्रार्थना पत्र लिखाकर, उसका भी विलम्ब शुल्क माफ़ करा देता है । इसके बाद दोनो में बातचीत शुरू होती है :-
छात्रा :- बहुत-बहुत धन्यवाद । आपकी वजह से कुछ बचत हो गयी । आप तो जानते है कि मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, इसलिए समय से फ़ीस नहीं जमा कर पायी थी ।
छात्र :- इसमें धन्यवाद की कोई आवश्यकता नहीं है । जाओ अपनी फ़ीस जमा कर दो ।
छात्रा :- वह तो मैं कर ही दूँगी । आप सुनाइए, आपकी पढ़ाई कैसी चल रही है ?
छात्र टालने के अन्दाज़ में :- पढ़ाई तो तब हो,जब नेतागिरी से फ़ुरसत मिले । तुम्हारी पढ़ाई तो ठीक चल रही है ?
छात्रा :- अरे कहॉं ? अकेले पढ़ने में मन ही नहीं लगता । दोपहर में घर में अकेले रहती हूँ, आप आ जाया करो तो दोनो लोग,साथ-साथ पढ़ा करेंगे ।छात्र बग़ैर कोई जवाब दिए, तेज़ी से आगे बढ़ जाता है । 

दृश्य २- इस घटना के क़रीब एक सप्ताह बाद, छात्र शाम क़रीब ७ बजे, अपने घर, पहुँचता है तो उसकी सबसे बड़ी भाभी (जिनका वह मॉं की तरह सम्मान करता था) दरवाज़े पर ही टकरा गयीं । वह देवी मन्दिर से वापिस आ रही थी । उसे भाभी रोज़ की करह प्रसन्न नहीं दिखीं ।
छात्र :- क्या बात है ?
भाभी :- अन्दर चलो तुम से कुछ बात करनी है ।
छात्र :- हॉं,अब बताओ क्या बात है ?
भाभी :- तुम्हारी,तुम्हारे भैया से शिकायत करनी है ।
छात्र एकदम से घबड़ा गया,क्योंकि वह जब ६ महीने का था,तभी उसके पिता की मृत्यु हो गयी थी और उसके सबसे बड़े भाई ने,कभी भी उसे पिता के अभाव का रंचमात्र भी आभास नहीं होने दिया था । वह अपने बड़े भाई का इतना सम्मान करता था कि बड़े भाई से शिकायत की बात सुनते ही,उसके भय के कारण,पसीने छूट गए ।
छात्र :- मैंने ऐसी क्या ग़ल्ती की है जो बात भइया तक पहुँचाने की नौबत आ गयी है ?
भाभी :- तेज़ी से मेरा हाथ अपने सिर पर रखकर बोलीं । तुम्हें हमारे सिर की क़सम है । जो हम पूंछने जा रहे है,उसका ठीक-ठीक उत्तर देना ।झूठ बोले तो हमारा मरा मुँह देखोगे ।
छात्र :- पूंछो ।
भाभी :- तुम सिगरेट पीते हो ?
छात्र :- हॉं ।
भाभी :- क्यों पीते हो ?
छात्र :- छोड़ दूँगा ।
भाभी :- तुम कालेज में गुन्डा- गर्दी करते हो ?
छात्र :- नहीं नेतागिरी करता हूँ ।
भाभी :- दोनो में कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है । ख़ैर यह छोड़ो ।यह बताओ कि लड़कियॉं छेड़ते हो ? सही बताना ।झूठ मत बोलना ।
छात्र :- भाभी ! आप इतनी बड़ी क़सम के बाद भी सोचती हो कि मैं झूठ बोलूँगा । मैंने आज तक किसी लड़की को नहीं छेड़ा ।
छात्र :- मैंने आपके सारे प्रश्नों के ठीक-ठीक जवाब दे दिए है । अब आपको मेरी क़सम है, सही बताइयेगा कि यह सब आपसे किसने कहा है ?
भाभी :- तुम्हारे साथ एक लड़की पढ़ती है, वह आज मन्दिर में मिली थी ।
छात्र :- बस भाभी,अब अागे बताने की ज़रूरत नहीं है । मैं समझ गया कि वह कौन है और यह शिकायत उसने क्यों की है ? अगर आप मेरी हमउम्र होती तो आपको भी मैं बता देता ।मैं आपको मॉं का सम्मान देता हूँ, इसलिए इस राज को राज ही रहने दो ।

और मित्रों,इस प्रकार मैं पहिली बार तिरिया चरित्र से रूबरू हुआ ।

Sunday 5 July 2015

जीवन बसता है सॉंसो में

जीवन बसता है सॉंसो में औ हर सॉंस में तुम बसते हो
धड़कन बसती है दिल में औ हर दिल में तुम बसते  हो 

ढूँढ़ रहा था तुमको,मैं,भी, मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारों  में
ढूँढ़ रहा था तुमको,मैं,भी,  कीर्तन,सबद, अजानो   में 
भूल गया था,बसते हो,तुम,दीनों की करुण पुकारो में 

भक्ति बसती है सबरी में औ सबरी के बेरों में तुम रमते  हो 
जीवन बसता है सॉंसो में औ हर सॉंस  में   तुम  बसते  हो 

Saturday 4 July 2015

पानी मटमैला हो जाता है

जैसे धरती पर पड़ते ही पानी मटमैला हो  जाता है 
वैसे ही जीव,धरा में आकर 'माया' से घिर जाता है 

ज्यों सागर  ही बादल बनकर   फिर सागर में जाता  है
त्यों ही अंशी से अंश निकल कर फिर अंशी में आता है 

ज्यों  मिट्टी से पौधा बनकर, मिट्टी में ही मिल जाता   है
त्यों ही मनवा भटक-भटक कर वापिस ख़ुद आ जाता है 

Thursday 2 July 2015

क्यों तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी ?

टुकड़ों-टुकड़ों में मिलकर क्यों  तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी 
बार-बार सपनों में आकर क्यों मिलने की आस जगा दी 

मिलना जब प्रारब्ध नहीं था तो क्यों मिलने की आदत डाली 
तुमसे मिलकर     ऐसा लगता     जैसे सारी खुशियॉं पा लीं
ऐसा भी क्या कर डाला मैनें जो तुमने मेरी याद भुला दी
टुकड़ों-टुकड़ों में मिलकर क्यों तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी 

पीछा नहीं छोड़ूँगा तेरा चाहे जितने जन्म लगें लग जायें
नित नूतन मैं आहुति दूँगा अग्नि न जिससे बुझने पाये                
पहिले तो  बॉंहें फैलायीं फिर बिरहा की अग्नि जला दी
टुकड़ों-टुकड़ों में मिलकर क्यों तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी 

Tuesday 30 June 2015

'डाक्टर्स डे पर'

'डाक्टर्स डे' पर ।

आज याद आ रही है, उत्तरप्रदेश के पिछड़े जिलों में एक बाँदा नगर पालिका के दवाखाना के वैद्य शास्त्री जी की । वैसे तो उनका पूरा नाम श्री भवानीदत्त शास्त्री था, पर वह 'शास्त्री' जी के ही नाम से ही जाने जाते थे । दुबला शरीर,गोरा रंग,औसत लम्बाई,सफ़ेद कुर्ता-धोती में,हर समय प्रसन्न रहने वाला चेहरा, ६० वर्षों के अन्तराल के बाद, आज भी उसी तरह जीवन्त है,जैसा उन्हे ४-५ वर्ष की उम्र में पहिली बार देखा था । उनके दवाखाना में,भीड़ बहुत होती थी, लाइन में लगना पड़ता था और इसका कारण थे,शास्त्री जी । पता नहीं उनके हाथों में क्या जादू था कि अदरक के रस और शहद के साथ,उनकी पहिली पुड़िया खाते ही,मरीज़ को आराम मिलने लगता था । एक बार में तीन दिन से ज़्यादा की दवा नहीं देते थे और तीन दिनों के बाद कुछ ही मरीज़ों को दुबारा आना पड़ता था । शास्त्री जी केवल नुस्ख़े का पर्चा लिखते थे, दवा देने का कार्य छोटे वैद्य जी करते थे और जड़ी-बूटियों को खल्लर-मुंगरी से कूट-पीस कर दवाएँ तैयार करने का कार्य,उनका एक सहायक करता था । उस समय इस तरह के दवाखानों में पर्ची बनवाने का भी कोई शुल्क नहीं लगता था,दवाएँ तो मुफ़्त में थी हीं ।

आज याद आ रहे हैं, मुझे, चित्रकूट (उ०प्र०) के पास के गाँव लोड़वारा के वैद्य जी,जो लोड़वारा वाले वैद्य जी के ही नाम से प्रसिद्ध थे । वर्ष १९७४ में, मैं चित्रकूट में ही नियुक्त था, तब से कयी बार, उनके यहॉं जाने का अवसर मिला । उनकी विशेषता यह थी कि वह मरीज़ से उसकी बीमारी के बारे में पूंछते ही नहीं थे । मरीज़ की नाड़ी पर उन्होंने हाथ रक्खा और धारा प्रवाह, मर्ज़ के लक्षण गिनाने शुरू कर दिये और उसके साथ यह भी कि यह परेशानी,उसे कब से है ? क्या मजाल कि यह विवरण १ प्रतिशत भी ग़ल्त निकले । वैद्य जी का दवाखाना घर पर ही था । वह सुबह तीन-चार घन्टे देवी की आराधना करने के बाद,बैठते थे और जब तक सारे मरीज़ नहीं देख लेते थे, तब तक उठते नहीं थे । उनके यहॉं भी बहुत भीड़ होती थी ।

आज याद आ रहे हैं, मुझे, सहारनपुर (उ०प्र०) के समीप, रामपुर मनिहारन नामक गाँव के हकीम जी । मैं वर्ष १९९१-९२ में वहॉं नियुक्त था, तब कयी बार उनके यहॉं जाने का अवसर प्राप्त हुआ । उनके यहॉं भी काफ़ी भीड़ होती थी और हकीम जी का स्वभाव भी बहुत अच्छा था । उनके यहॉं की विशेष बात यह थी कि हकीम जी,दवाओं के साथ दुआ के रूप में, मरीज़ को, काग़ज़ में पवित्र क़ुरान की कोई आयत लिख कर देते थे और मरीज़ से कहते थे कि वह इसे पानी में घोलकर पी भी सकता है और ताबीज़ बनवाकर गले में पहिन भी सकता है ।

याद तो मुझे बहुत से लोग आ रहे है,पर आलेख का आकार इतना बड़ा न हो जाये कि पाठक ऊब कर पढ़ना ही छोड़ दे,इसलिए एक डाक्टर दम्पत्ति और एक और डाक्टर के विषय में आपसे मुख़ातिब होकर, बात समाप्त करूँगा ।

यह डाक्टर दम्पति हैं, उरई (जालौन ज़िला),उ०प्र० के डा० रमेश चन्द्रा और उनकी धर्म पत्नी डा०रेनू चन्द्रा । आज के युग में ऐसे कर्मयोगी मिलना असम्भव तो नहीं पर दुष्कर ज़रूर है । इनकी क्लीनिक (अति छोटा नर्सिंगहोम सहित) नीचे है और इनका निवास ऊपर है । चौबीस घन्टे,निस्पृह भाव से,मरीज़ों की सेवा में,इस दम्पत्ति को देखना, मेरे जीवन की वह धरोहर है,जिसे मैं हमेशा अपने साथ रखना चाहूँगा । इस दम्पति के दोनो लोग, समाज की सेवा में,(केवल मरीज़ों की ही नहीं) एक दूसरे से कम नहीं हैं । डा०रेनू एक प्रतिष्ठित कवियत्री भी हैं । राम जाने इतनी व्यस्तताओं के बीच,काव्य साधना कैसे कर लेती हैं ?

अन्त में कानपुर (उ०प्र०) के प्रसिद्ध सर्जन डा०आशुतोष बाजपेई के विषय में चर्चा करके अपनी बात को समाप्त करूँगा । आज से लगभग २०-२५ पच्चीस वर्ष, कानपुर में उच्च वर्ग के लिए'रीजेन्सी',मध्यम वर्ग के लिए 'मधुराज' और सामान्य वर्ग के लिए 'आर०के०देवी' नामक प्राइवेट नर्सिंगहोम हुआ करते थे, जो आज भी हैं ।डा०बाजपेई इन तीनों जगह के साथ-साथ अपने छोटे से क्लीनिक में भी मरीज़ों को देखते थे/हैं । एक बार मैं 'आर०के०देवी' में बाहर डाक्टर साहब का ही इन्तज़ार कर रहा था कि तभी डा०साहब आ गये । उनको देखकर, उनके चरणस्पर्श करने वालों की लाइन सी लग गयी । यह चरणस्पर्श उनको श्रध्दा के कारण किया जा रहा था और यह श्रध्दा पैदा हुई थी डा०साहब के पवित्र आचरण के कारण और यह आचरण की पवित्रता उनको प्राप्त हुई थी, अपने पिता, कानपुर के सुप्रसिद्ध डाक्टर जी०एन०बाजपेई से मिले रक्त संस्कारों से ।डा०आशुतोष बाजपेई की सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने कभी भी किसी मरीज़ का इलाज, पैसे के कारण रोका नहीं है । उन्होंने बग़ैर अपनी फ़ीस लिए तमाम आपरेशन मेरी जानकारी में किये हैं । यहीं तक नहीं ग़रीब मरीज़ों की दवा का भी प्रबन्ध किया है ।

आज 'डाक्टर्स डे' पर मेरा यह आलेख केवल इसलिए है कि इस पवित्र व्यवसाय में आ गयी सड़ान्ध के कारण,फैल रही दुर्गन्ध को, कुछ बन्द खिड़कियॉं खोलकर ताज़ी हवा के झोंकों को आमंत्रित करके, कुछ कम कर सकूँ । डा०विधानचन्द्र राय की स्मृति में,मनाये जाने वाले इस दिवस पर, उपरोक्त महानुभावों के अलावा, उन सभी डाक्टरों को भी नमन करना चाहूँगा, जो इस व्यवसाय के प्रारम्भ में ली गयी शपथ का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं ।


'रस्सी जल गयी, ऐंठन न गयी'

'रस्सी जल गयी, ऐंठन न गयी'
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यह एक प्रचलित मुहावरा है । इसका शाब्दिक अर्थ यह होता है कि रस्सी के जल जाने के बाद भी, जली हुई रस्सी में,पेंच और खम पूर्व की भाँति क़ायम रहते हैं । इसका लाक्षणिक अर्थ यह है कि जैसे कोई अमीर आदमी, अचानक ग़रीब हो जाये तो उसमें कहीं न कहीं अमीर होने की ठसक बरकरार रहती है । उसके आचरण से, उसके व्यवहार से, उसकी भाषा से यह ठसक कहीं न कहीं प्रदर्शित हो ही जाती है ।इसी प्रकार उच्च पदों में बैठे हुए व्यक्ति, सेवानिवृत्त हो जाने के बाद भी, अपनी ठसक से मुक्त नहीं हो पाते । इसको और सरल ढंग से इस प्रकार कहा जा सकता है कि कोई भी वयक्ति विपरीत परिस्थितियॉं आ जाने के बावजूद भी अपने पूर्व स्वभाव या अंहकार से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाता ।

जैसा कि मैं पहिले भी निवेदन कर चुका हूँ कि हमारे यहॉं या कहीं की भी, लोक-कहावतों या मुहावरों का एक शाब्दिक और एक लाक्षणिक अर्थ तो होता ही है, उसके साथ-साथ, उसमें समाज के लिये एक छिपा हुआ गूढ़ सन्देश भी होता है जिसे कम लोग समझ पाते है । जो इन गूढ़ सन्देशों को समझ कर, अपने जीवन में,उतार लेता है,उसका कल्याण होने से कोई रोक नहीं सकता ।

मेरी समझ से इस मुहावरे का सन्देश यह है कि मानव,अपने जीवन में जैसे कर्म करता है, तदानुसार संस्कार,उसके अवचेतन मन में पड़ते जाते हैं,(यही रस्सी के पेंच और ख़म हैं ) जो उसका शरीर भस्मीभूत या नष्ट हो जाने के बाद भी नष्ट नहीं होते । उसके कर्म ही,उसे जीवित रहते,सुख या दुख प्रदान करते हैं और यही कर्म ही संस्कार बन कर उसके साथ आगे की यात्रा तय करते हैं ।अत: मनुष्य अच्छे कर्मों के द्वारा अपना वर्तमान और भविष्य सुधार सकता है ।


Monday 29 June 2015

नातिन के १२वें दिन पर

आज उसके धरा में पधारने का १२वॉं दिन है । उसकी मॉं यानि कि मेरी बेटी,उसकी मालिश और स्नान प्रकिया पूरी होने के बाद,उसे मेरे बिस्तर पर लिटा गयी है । वह धरती पर अवतरित हुई परी सी लग रही है । वह अपनी ऑंखें बन्द किए है,मानो किसी गहन समस्या को सुलझाने में लगी हो । बीच-बीच में स्मित हास्य,उसके होंठों और गालों पर खेलने लगता है । मैं उसके इस स्मित हास्य का आनन्द ले ही रहा था कि अचानक वह एकदम दुखी होकर रोने की मुद्रा बनाने लगती है,मानो कोई बुरा स्वप्न देख रही हो ? बुज़ुर्ग कहा करते थे कि बच्चों की क्षण-क्षण में,मुद्राएँ बदलने का कारण, उनकी पूर्व जन्मों की स्मृतियॉं हैं ।

मेरी लाड़ली,प्रभु की अतिशय कृपा से ही,जीव को मानव योनि मिलती है । यही एक मात्र कर्म योनि है, बाकी सारी भोग योनियाँ हैं । इसी योनि में जीव अच्छे कर्म करके, आनन्दानुभूति का साक्षात्कार कर सकता है । मानव योनि में भी मातृ शक्ति के रूप में,अवतरित होना, प्रभु की अतिशय से भी अतिशय कृपा का परिचायक है । ईश्वर जब-जब भी, इस धरा पर अवतरित हुआ है, उसे भी किसी न किसी माता के गर्भ की शरण लेनी पड़ी है । इसीलिए हमारी संस्कृति में मॉं को प्रथम स्थान दिया गया है । पुत्र केवल अपने पितृ कुल का ही उद्धार करता है या उसके यश की वृध्दि करता है, पुत्री तो पितृ कुल और मातृ कुल दोनो का ही उद्धार करती है या उसके यश में वृध्दि करती है । इसीलिए जनक को सीता के लिए कहना पड़ा,"पुत्रि,पवित्र किए कुल दोऊ"।

आज के दिन प्रभु से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें, मॉं सीता की तरह धैर्य दे, मॉं सरस्वती की तरह बुद्धि की अधिष्ठात्री बनाये, मॉं लक्ष्मी की तरह, अपने पति की सेवा का सामर्थ्य दे ।और-और-और मॉं दुर्गा की तरह दुष्टों (दुष्प्रवृत्तियों) का संघार करने की शक्ति दे ।

Saturday 27 June 2015

विचार

एक पाश्चात्य विचारक ने कहा था कि विचारों के बीज हवा में (आकाश) में फेंकते रहना चाहिए । हो सकता है कि तत्काल यह बीज, अंकुरित,पल्लवित,पुष्पित और फलवति न हों । कभी भी कोई उर्वरा आधार और अनुकूल जलवायु मिल जाने पर इनमें से एक भी फलवति हो गया तो तुम्हारा प्रयास सार्थक हो गया । यदि ऐसा भी नहीं हुआ तो भी तुम कर्तव्य हीनता का बोझ लेकर,मरने से बच जाओगे ।

मैंने "आर्ट आफ लिविंग" के शिविर में एक वी०डी०ओ० देखा था । उसमें दिखाया गया था कि समुद्र में आती हर लहर जो मछलियॉं, सीपी या घोंघे तट पर छोड़ जाती थीं, उन्हें उठा-उठा कर एक व्यक्ति पुन: सागर की लहरों में फेंक देता था । एक दूसरा व्यक्ति जो काफ़ी देर से यह तमाशा देख रहा था, का धैर्य जवाब दे गया तो उसने जाकर उस व्यक्ति से पूंछा,"तुम यह क्या मूर्खता कर रहे हो ? अगली लहर इनको फिर से तट पर मरने के लिए फेंक देगी । तुम इनमें से  कितनों को  मरने से बचा पाओगे ?" उस व्यक्ति ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,"यदि मैं एक को भी मरने से बचा पाया तो मेरा प्रयास सार्थक हो जायेगा । यदि मैं एक को भी नहीं बचा पाया तो कम से कम मुझे यह अफ़सोस तो नहीं होगा कि मैंने प्रयास क्यों नहीं किया ?"

मेरा मानना है कि दोनों में से यदि एक का भी अवतरण जीवन में हो जाये तो मानव योनि में जनम लेना सार्थक हो जाये ।

Friday 26 June 2015

"कखरी लरका गाँव गोहार"

"कखरी लरका गाँव गोहार"
यह बुन्देलखण्ड की एक लोक कहावत है । इसका अर्थ यह है कि मॉं अपने लड़के को कॉंख में दाबे है (गोद में लिए है) और गाँव भर में गोहार (चिल्लाती) घूम रही है कि उसका लड़का खो गया है, किसी ने देखा हो तो बता दे । इस कथा में यह आगे जोड़ दिया जाता है कि पूरा गाँव उसकी बेवक़ूफ़ी पर हँस रहा है कि तभी एक सज्जन व्यक्ति को दया आ जाती है और वह कहता है,"अरी नासमझ बच्चा तो तेरी गोद में है, तू ढूँढ किसे रही है ? मॉं गरदन नीचे झुकाती है और बच्चे को अपनी गोद में देखकर, उसकी भागदौड़ समाप्त हो जाती है, बेचैनी समाप्त हो जाती है और वह परमानन्द में डूब जाती है ।

हमारी जितनी भी लोक कथाएँ है, उन सब का एक शाब्दिक अर्थ तो होता ही है,उसके साथ-साथ, उनमें समाज के लिए एक सन्देश भी होता है । इस लोक कथा का सन्देश यह है कि हर मानव, आनन्द को बाहर ढूँढ रहा है, वह यह भूल गया है कि आनन्द ही उसका स्वरूप है, और वह उसके अन्दर ही है, कहीं बाहर नहीं ? वह पत्नी में, बच्चों में,मित्रों में,धन में,शराब में,जुएँ में,पद में, वैभव में,यश में और न जाने कहॉं-कहॉं, न जाने कितने जन्मों से इस आनन्द को खोज रहा है ।प्रभु कृपा से कभी कोई सज्जन पुरुष (सद्गुरू) मिल जाता है और वह इस सत्य का साक्षात्कार करा देता है कि आनन्द तो तेरे अन्दर है,अपनी अंहकार से तनी गरदन को ज़रा सा झुकाकर देख तो सही तुझे अपने स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा,"दिल में छुपा के रक्खी थी तस्वीरें यार की, ज़रा सी गरदन झुकाई, देख ली"।यह गरदन झुकाना (आत्मावलोकन) करना यदि जीव को आ जाये तो बच्चा तो उसकी गोद में है ही ।

Thursday 25 June 2015

जीवन की संध्या है, बातें ही बातें हैं

जीवन की संध्या है, बातें ही  बातें हैं
अलसायी,उनींदीं सी न कटती राते हैं

सावन के झूले थे, फागुन की मस्ती  थी
बाैरिन सी दोपहरी,रह-रह कर डसती थी
अब न वे झगड़े है,न,प्यारी मनुहारें हैं
जीवन की संध्या है, बातें ही  बातें हैं

चूड़ियाँ खनकती थीं,पायलें गुनगुनाती थीं
भारी सी पलकें , सब कुछ कह जाती थीं
यादें ही यादें है,और यादें ही गाते हैं
जीवन की संध्या है, बातें ही बातें हैं 

Wednesday 24 June 2015

माटी में ही जाऊँगा

माटी से जन्मा हूँ , मैं, और माटी में मिल जाऊँगा 
जब तक सॉंसे है देही में, झूम-झूम कर  गाऊँगा 

'सुखनिधान' का बेटा रोये, यह तो मेरी नियति नहीं है 
 शरणागत को तू ठुकराये, यह तो तेरी प्रकृति  नहीं है
  तुझको सारा राग सौंपकर, मैं वैरागी बन जाऊँगा 
  माटी से जन्मा हूँ ,मैं,और माटी में  मिल  जाऊँगा 
  
  तू ही हिम है, तू ही जल है, और तू, ही  है, नभ का  उड़ता बादल
  तू ही यशुदा का श्याम सलोना,तू ही राधा की ऑंखों का काजल
  अन्दर ही खोजूँगा तुझको, बाहर नहीं तुझे पाऊँगा 
  माटी से जन्मा हूँ , मैं, और माटी में मिल  जाऊँगा ।

Saturday 20 June 2015

योग दिवस की पूर्व संध्या पर

कल अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस है ।कयी दिनों से इन्टरनेट पर,मीडिया पर ऐसा प्रचार चल रहा है कि जैसे कल पूरा संसार योगमय हो जायेगा ? मैं प्रसन्न हूँ,मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए,अत्यधिक उपयोगी,भारत की इस प्राचीन पद्धति के विश्व व्यापी प्रसार पर । मैं और मेरी तरह के करोड़ों लोग,इस पद्धति का आश्रय लेकर,मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ जीवन जीने में सफल हुए हैं । अत: इस पद्धति के प्रति,सम्मान या आभार का भाव न रखना कृतघ्नता ही कही जायेगी ।

पर इस दिवस पर मैं अपने को यह कहने से रोक नहीं पा रहा कि वर्तमान में चल रहा इसका व्यवसायीकरण,इस महत्वपूर्ण पद्धति को,एक वर्ग विशेष तक ही सीमित कर देगा और इसका लाभ जन सामान्य तक नहीं पहुँच पायेगा । 

महर्षि पतंजलि  ने योग की परिभाषा या उसका उद्देश्य बताते हुए कहा है,'योग: चित्त-वृत्ति निरोध:' यानि चित्त- वृत्ति का निरोध ही योग है । इस स्थिति तक पहुँचने के लिए उन्होंने आठ सोपान बताए हैं,इसीलिए उसे 'अष्टांग योग'कहा गया ।इसके आठ अंग इस प्रकार हैं,१-यम(अंहिसा,सत्य,ब्रह्मचर्य,अस्तेय,अपरिग्रह ) २-नियम(शौच,सन्तोष,तप,स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान) ३-आसन ४-प्राणायाम ५-प्रत्याहार ६-धारणा ७-ध्यान ८-समाधि ।योग के व्यवसायीकरण ने किया यह है कि इन आठ सोपानों में केवल चौथे सोपान को लेकर सीधे सांतवे सोपान यानि ध्यान में पहुँचा दिया जाता है और उसका कारण यह बताया जाता है कि आज यह सब कुछ करा पाना सम्भव नहीं है और जब व्यक्ति ध्यान करने लगेगा तो बाक़ी चीज़ें स्वत: धीरे-धीरे,साधक में अवतरित होने लगेंगीं । उनका यह तर्क सतही तौर पर ठीक लगता है,पर जब आप गहराई में जाएँगे यानि गम्भीरता से विचार करेंगे तो आपको यह स्पष्ट हो जायेगा कि यह तर्क, अपने व्यवसाय को तेज़ी से विश्वव्यापी बनाने के उद्देश्य से गढ़े गए हैं । मुझे इनकी इस व्यवसायिकता पर भी आपत्ति नहीं है,क्योंकि उससे एक वर्ग विशेष को ही सही लाभ तो मिल रहा है । 

आज जितने भी योग के स्कूल चल रहे हैं,उनमें से ज़्यादातर स्कूलों के शुल्क इतने ज़्यादा है कि सामान्य व्यक्ति उसके बारे में सोंच ही नहीं सकता ।मुझे केवल यह निवेदन करना है कि भारतीय संविधान हर व्यक्ति को व्यवसाय करने की स्वतंत्रता देता है । आप इस स्वतंत्रता का पूर्ण उपभोग करने के लिए स्वतंत्र हैं पर कृपया इसे मानवता की सेवा का नाम मत दीजिए ।

Monday 15 June 2015

"कुपथ निवारि सुपंथ चलाना,गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा"

"कुपथ निवारि सुपंथ चलावा,गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा"

यह पंक्ति 'मानस' में भगवान राम ने,सुग्रीव जी को मित्र के अर्थ समझाने हेतु कही है । इसका अर्थ यह है कि मित्र वह है जो आपको कुपथ (कुमार्ग) से हटाकर,सुपंथ (सुमार्ग) पर चलावे और आपके अवगुणों को छिपाकर,आपके गुणों को प्रकट करे या प्रकाशित करे ।

यह पंक्ति मेरी जीवन में कैसे उतरी ? इसको स्पष्ट करने के लिए मुझे ४७ वर्ष पूर्व जाना पड़ेगा । यह घटना वर्ष १९६८ में घटी थी जब मैं बी०एस०सी०(प्रथम वर्ष) का छात्र था । हुआ यूँ कि मेरा एक सहपाठी,जो विद्यालय का सबसे बदसूरत (गहरा काला रंग जो हबसियों के रंग की प्रति स्पर्धा करने में पूर्ण सक्षम था और नाक-नक़्श एेसे जैसे डाकखाने के डाक छाँटने वाले ने,एक मुहल्ले की डाक दूसरे मुहल्ले के खाने में डाल दी हो) मेरा घनिष्ठ मित्र बन गया और इसका कारण यह था कि वह बाहर से जितना बदसूरत था,अन्दर से उतना ही भोला और सरल ।

मेरा यह मित्र पिछड़ी जाति का था और मैं सवर्ण । शुरू में इसने मुझसे अपनी जाति छुपाई थी । यह अपने नाम के आगे प्रजापति लगाता था । उस समय मुझे नहीं मालूम था कि प्रजापति का अर्थ कुम्हार होता है । मैंने एक दिन इससे प्रजापति का अर्थ पूंछा तो इसने कहा कि गुप्ता (बनियॉं) में ही प्रजापति होते हैं । हुआ यूँ कि इसे किसी नौकरी के लिए फ़ार्म भरना था जिसके लिए इसे जाति प्रमाण पत्र की आवश्यकता थी । कई दिनों की परेशानी के बाद,तहसील से उसे प्रमाण पत्र हासिल हो पाया था तो इसने प्रसन्नता के आवेश में वह प्रमाण पत्र मुझे दिखा दिया । जब मैंने देखा तो उसमें कुम्हार लिखा हुआ था । मैंने दुखी होकर उससे पूंछा कि तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला ? क्या हमारी दोस्ती जाति की मोहताज है ? उसने तुरन्त माफ़ी माँगते हुए कहा,भाई मैं डरता था ! मुझे कोई दोस्त बनाता नहीं है,मुझे लगता था कि कहीं तुम भी दोस्ती न तोड़ लो ? उसकी सरलता देखकर मैं तुरन्त सहज हो गया ।

मेरी और उसकी घनिष्ठता देखकर मेरे सवर्ण मित्रों ने पहिले तो बहुत प्रयास किया कि मैं उससे अपनी मित्रता तोड़ लूँ । पर जब इसमें उनको सफलता नहीं मिली तो वह उसके विरूद्ध षड्यंत्र रचने लगे ।
हमारी एक सहपाठिनी पंजाबी थी और बला की ख़ूबसूरत थी । मेरा मित्र विद्यालय का सबसे बदसूरत छात्र और वह सबसे ख़ूबसूरत छात्रा । मेरा मित्र एक साल बी०एस०सी० में फ़ेल हो चुका था, इस कारण से प्रायोगिक कक्षा में क्षात्राएँ उसके अनुभव का लाभ ले लेती थीं,जिसमें वह बला की ख़ूबसूरत छात्रा सबसे आगे थी । पंजाबी बातचीत में बेबाक़,मितभाषी और कुशल तो होते ही हैं सो उसके खुलेपन का (जो उसकी संस्कारगत विशेषता थी) मेरे मित्र ने ग़लत अर्थ निकाला और वह प्रेम की तपिश से तपने लगा और उसके इस एकतरफ़ा प्रेम को भड़काने का काम किया उन षड्यंत्रकारी सहपाठियों ने ।

मेरे मित्र का बाल-विवाह हो चुका था पर गौना(पुनरागमन) नहीं हुआ था । मेरा मित्र योजना बनाने लगा कि कैसे उससे छुटकारा पाया जाए? इसी बीच एक घटना और घट गयी । शाम का समय था,वह बला अपने घर के दरवाज़े पर खड़ी थी, मैं सामने से आ रहा था,उससे निगाहें चार हुईं, नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ ।उसने पूंछा कहॉं से आ रहे हैं ? मैंने बताया । उसने कहा आपसे एक बात कहनी थी । मैंने कहा बताओ तो उसने कहा कि घर के अन्दर चलिए,आराम से बैठकर बात करेगें । मै एक क्षण के लिए असमंजस में तो पड़ा कि कहीं वह मेरे मित्र की किसी बेवक़ूफ़ी पर तो कोई बात नहीं करना चाहती ? फिर जाने क्या सोचकर मैं उसके घर के अन्दर चला गया । उसकी मम्मी चाय ले आईं । चाय पीने के बाद मैंने उससे पूंछा कि बताओ क्या बात करनी है । उसने कहा कि मैं कल लाइब्रेरी गयी थी ।मुझे 'कोटपाल सीरीज़' के पुस्तकों की ज़रूरत थी तो लाइब्रेरियन ने बताया कि वह आपके पास हैं और आप उन्हे परीक्षा के बाद ही जमा करेंगे । अत: अगर मैं उसे यह पुस्तकें कुछ दिनों के लिए दे दूँ तो वह नोट्स बनाकर मुझे वापिस कर देगी ।मैंने कहा ठीक है मैं कल विद्यालय में वे पुस्तकें,उसे दे दूँगा ।

मैं उसके घर के बाहर निकला ही था कि मेरा वह मित्र मिल गया । मुझे नहीं मालूम था कि वह हर शाम इस बला की एक झलक पाने के लिए,घंटों उसके घर के आस-पास बरबाद करता है । उसने मुझसे सशंकित होकर पूंछा कि मैं इतनी देर से उसकी तथाकथित प्रेमिका के यहाँ क्या कर रहा था ? और मेरी उससे क्या बातें हुईं ? मैनें भी मज़ा लेने के लिए कह दिया कि वह पूरे समय तुम्हारे ही विषय में बात करती रही । उसकी जिज्ञासा जैसे-जैसे बड़ती जाती थी,मेरी कल्पना की उड़ान भी तदनुसार व्यापक होती जाती थी । कहानी तो बहुत लम्बी है पर संक्षेप में हुआ यह कि उसका पागलपन बढ़ता ही गया ।

फ़ाइनल परीक्षा के लिए एक माह ही शेष रह गया था । मैं उसके घर गया तो उसने फिर वही पागलपन की बातें शुरू कर दीं । मुझे तेज़ ग़ुस्सा आया । मैं झटके से उठा और अलमारी से सीसा उठाकर उसके चेहरे के सामने रखकर बोला,"बेवक़ूफ़ अपना चेहरा देख सीसे में ? देखा ? क्या है तेरे पास ? न सूरत,न सीरत, न धन न वैभव । क्या है तेरे पास जो वह तेरे ऊपर मरेगी ? एक साल तेरा पहिले ही ख़राब हो चुका है ।तेरा भाई किस मुसीबत से तुझे पढ़ा रहा है ?और तू है कि परीक्षा के लिए एक महीना ही बाकी रहने के बाद भी,इश्क़ के भूत को सिर पे चढ़ाए घूम रहा है । वह एकदम से फूट-फूटकर रोने लगा और बोला कि तुम भी तो कह रहे थे कि वह देर तक मेरे बारे में तुमसे बातें करती रही थी । मैनें क़समें खाकर उसे समझाया कि वह सब मज़ाक़ था । कयी दिनों के लगातार प्रयास के बाद वह वास्तविकता को बेमन स्वीकार कर पाया । मुझे उसको सीसा दिखाने का जितना दु:ख आज भी है,उतनी ही ख़ुशी भी है कि उसका एक और साल बरबाद होने से बच गया और वह व्यवस्थित ज़िन्दगी जी पाया ।

Saturday 13 June 2015

मरने पर ही स्वर्ग दिखना

एक बुन्देलखण्ड का प्रचलित मुहावरा है,"अपने मरै सरग दिखाई परै" यानि अपने मरने पर ही स्वर्ग के दर्शन होते है । इस मुहावरे का एक आध्यात्मिक अर्थ भी है और वह यह कि जो अपने को मार देता है यानि अपने अंहकार को समाप्त कर देता है, उस को स्वर्ग में प्राप्त होने वाला आनन्द सहज में ही तुरन्त प्राप्त हो जाता है । बच्चों को लाख मना कीजिए कि वह अग्नि से दूर रहें,पर जब तक वह एक बार जल नहीं जाता,नहीं मानता । यानि आप दूसरों के द्वारा दिये गये ज्ञान को तब तक नहीं स्वीकारते,जब तक वह आपके अनुभव में नहीं उतरता । 

बुन्देलखण्ड का एक मुहावरा और है,"सौ-सौ जूता खांय,तमाशा घुस कै दैखैं"यानि सौ-सौ जूते खाने के बाद भी आदमी भीड़ में घुसकर तमाशा देखता है । इसका आध्यात्मिक अर्थ यह हुआ कि यह सारा संसार प्रभु का तमाशा ही तो है पर इस तमाशे को व्यक्ति लाखों परेशानियों  के बावजूद देखना चाहता है । लोग लाख समझाएँ कि यह सारा तमाशा क्षणिक है,नश्वर है पर जब तक व्यक्ति अपनी आँखो से नहीं देख लेता यानि अपने अनुभव में नहीं ले आता, उस पर विश्वास नहीं करता ।

दशानन का अर्थ

 रावन का शाब्दिक अर्थ होता है,जो दूसरे को रुलाए । दशानन का एक प्रतीकात्मक अर्थ और भी है ।वह यह कि जिसकी दशों इन्द्रियॉं (पॉंच कर्मेन्द्रियॉं और पॉंच ज्ञानेन्द्रियॉं) बहिरमुखी होती हैं,यानि जिसका इन इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं होता,उसे दशानन कहते हैं । और जो दशों इन्द्रियों का रथी होता है,यानि कि जिसका दशों इन्द्रियों पर नियंत्रण होता है, उसे दशरथ कहते हैं । जिस दिन व्यक्ति अपनी दशों इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लेता है यानि दशरथ बन जाता है,उसी दिन प्रभु राम उसके ह्रदयागंन में खेलने लगते हैं ।

Friday 12 June 2015

दूसरे को दर्पण न दिखाकर स्वंय दर्पण देखना चाहिए ।

स्वयं दर्पण देखने का अर्थ है कि आप अपना आत्मावलोकन करे और यदि कोई विषमता नज़र आए तो उस विषमता को जीवन से दूर करें । दूसरे को दर्पण दिखाने का अर्थ है कि सामने वाले को उसकी कमज़ोरियॉं बतायी जाएँ ।हर व्यक्ति को प्रतिदिन दर्पण देखना चाहिए,पर दूसरे को दर्पण दिखाने से बचना चाहिए । पर हम करते ठीक इसका उलटा है । यहीं तक नहीं,अपनी ग़लतियों से होने वाले नुक़सान के लिए भी, अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार न करके या तो समय और परिस्थितियों के उपर ज़िम्मेदारी डाल देते हैं या अन्य के ऊपर । जीवन में जो भी अच्छा होता है,उसके कर्ता स्वंय बनकर, श्रेय ले लेते हैं और जो भी ग़लत होता है,उसका कर्ता दूसरे को बनाकर दोष उसके ऊपर डाल देते हैं, यहाँ तक कि भगवान को भी दोषी सिध्द् करने से नहीं चूकते ।

घरों में प्रायः पति-पत्नी के बीच इस तरह के संवाद सुनने को मिलते हैं । यदि बच्चा अच्छा काम करके आया तो पिता कहेगा "आख़िर बच्चा है किसका ?" वही बच्चा जब ग़लत काम करके आता है तो पिता कहेगा,"बच्चे में सारे संस्कार तुम्हारे ही पड़ गए है,यदि एक-आध मेरे भी पड़ जाते तो इसका कल्याण हो जाता ।" यह संवाद मॉं की तरफ़ से भी बोले जा सकते हैं ।

आपके दो बच्चे हैं । एक भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गया और दूसरा आवारा निकल गया । आप समाज के बीच में बैठे हैं,किसी व्यक्ति ने आपके प्रशासनिक सेवा में चयनित होने वाले बच्चे के लिए आपको बधाई दी और आपको भाग्यशाली ठहराया तो आपकी प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी कुछ इस प्रकार होगी,"अरे,भाई साहब ! आप क्या जाने कि इसको यहाँ तक पहुँचाने में मुझे कितना श्रम करना पड़ा है ? कहॉं-कहॉं से जुगाड़ लगाकर इसको अच्छी कोचिंग करा पाया हूँ ,तब जाकर कहीं इसको यह सफलता मिली है । वहीं बैठे किसी दूसरे व्यक्ति ने यदि दबे स्वर में आपके आवारा बच्चे का ज़िक्र कर दिया,तो आपकी टिप्पणी कुछ इस प्रकार होगी,"अरे भाई मैंने तो यही प्रयास किया था कि मेरे दोनों बच्चे अच्छे निकले पर भगवान को मंज़ूर नहीं था ।"
यानि जो अच्छा हुआ उसका कर्ता मैं और जो ग़लत हुआ उसका कर्ता भगवान ।वाह रे इन्सान ? और वाह रे तेरी फ़ितरत ?

Wednesday 10 June 2015

कर्म का स्वरूप

गीता में कहा गया है,
"नेहाभिक्रमनासोअस्ति प्रत्यायो न विद्यते
  स्वलपम् अपि धर्मसय त्रायते महतो भयात्"
करम को तीन भागो में बाँटा गया है १-संचित २-क्रियमाण ३-प्रारबध ।
आप जो इस जीवन में कर रहे हो,वह क्रियमाण करम है ।अनगिनित जीवनों के करम,जिनका भोग अभी तक आपने नहीं भोगा है,संचित की श्रेणी में आएँगे और इन संचित करमों में से छाँटकर आपके इस जीवन का प्रारबध (भाग्य) बना है ।आप पुरुषार्थ (क्रियमाण) के द्वारा संचित करमों को तो नष्ट कर सकते हो पर प्रारबध का भोग तो आपको भोगना ही पड़ेगा । इस प्रारबध के भोग से रामकृष्ण
परमहंस जैसे महापुरुष भी नहीं बच पाए । उन्होंने इस भोग को प्रसन्नता के साथ भोगा है क्योंकि वे जानते थे कि यह भोग भोगने से ही नष्ट होगा ।
अब प्रश्न यह उठता है कि पुरुषार्थ क्या है ? और इसका क्या महत्व है ? तो इसके लिए शुरु में कहा गया श्लोक काफ़ी कुछ स्पष्ट कर देता है । जो भी आप इस जनम में सत्करम या धर्म (जो धारण करने योग्य है,वही धर्म है) करोगे, वह कभी भी नष्ट नहीं होगा और वह आपको बहुत बड़े-बड़े भयों से मुक्त कर देगा । इससे होगा क्या ? इससे यह होगा कि आपका अगला जनम इस जनम की पूँजी के साथ शुरू होगा ।
"प्राप्य पुण्य कृताम् लोकानिषतवा शाश्वती समा:
  शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टो अभिजायेते"
"अथवा योगिनाम् कुले भवति धीमताम्"
इसमें कहने के लिए बहुत कुछ है । पर बहुत कुछ कहकर या जानकर भी विश्वास और श्रध्दा के साथ यदि जीवन में उसका अवतरण नहीं होता तो वह व्यर्थ ही है ।
"श्रध्दावान् लभते ज्ञानम् तत्पर: संयते इन्द्रिय:
  ज्ञानम् लब्धवा पराम् नचिरेणाधिगचछति"

Tuesday 9 June 2015

वर्षा रितु के आगमन पर



वर्षा अभी आई नहीं है केवल हल्की सी दस्तक ही दिये हैं कि कुमलहाए हुए मन मनसिज खिलने लगे हैं । काम ने अपना मायाजाल फैलाना शुरू कर दिया है । उम्र अपने बन्धन तोड़ने लगी है । पसीने की गन्ध,मिट्टी की सोंधी-सोंधी ख़ुशबू में मिलकर उसकी मादकता को द्विगणित करने लगी हैं । आम्र मंजरियों और पल्लवों के पीछे छिपकर काम ने,शिव को विचलित करने के लिए,(शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्ध)के पॉच पुष्प बाण,अपने धनुष की प्रत्यंचा में चढ़ा लिए है । किसी भी समय उसकी प्रत्यंचा खिच सकती है और काम के ये अमोघ बाण आपको घायल कर सकते है । आपने इन बाणों से बचने की कोई तैयारी की है ? नहीं ! तो आपको कोई नहीं बचा सकता ।
शिव के पास तीसरा नेत्र होने के बाद भी इन बाणों ने,उनकी समाधि भंग करके,उन्हें विचलित तो कर ही दिया था । यह अलग बात है कि उन्होंने तीसरे नेत्र (ज्ञान) के द्वारा काम को जला दिया था और 'कामारि' कहलाए थे ।
सावन और भादौं दो ऐसे महीने होते हैं, जिसमें कामाग्नि जितनी ही तीव्र होती है, जठरागनि उतनी ही मंद होती है,इसीलिए हमारे पूर्वजों ने हमको शारीरिक अस्वस्थता से बचाने के लिए सावन में (कामारि) शिव की उपासना (जिसमें व्रत भी शामिल है),को विशेष फलदायक बताया है । यह दोनो महीने विशेष त्योहारों के हैं । रक्षाबन्धन भी इसमें ही पड़ता है । पहिले गृहणियाँ सावन के पूरे महीने,मायके में ही रहती थी और पति-पत्नी के दूर-दूर रहने के कारण दोनो पूर्ण स्वस्थ रहते थे ।महा-योगेश्वर कृष्ण का जनम भी अभी ही पड़ता है ।जन्माष्टमी का व्रत भी विशेष फलदायक है ।
हमारी संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता,उसकी उत्सवधर्मिता है ।हम इन उत्सवों का पूर्ण आनन्द तभी ले सकते हैं,जब हम मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ और प्रसन्न हो । आईए हम पूरी तैयारी के साथ वर्षा के झोंकों का और सावन के झूलों का आनन्द लें । मेघों के रसा वर्षण के रस में पूरी तरह डूब जाने का निमंत्रण,प्रकृति अपनी दोनों बॉंहे फैलाकर हमें दे रही है । आइए उसके आलिंगन में कुछ समय के लिए हम अपने अहं का तिरोहण कर, भार मुक्त हो जाएँ ।

Saturday 6 June 2015

मेरा कन्हैया

मेरी मॉं ने बचपन में संस्कार दिये थे कि पुण्य और पाप दोनों कहने से नष्ट हो जाते हैं,अत: पाप दूसरों से बता देना चाहिए और किए हुए पुण्यों को छिपा जाना चाहिए । बड़े होने पर शास्त्रों ने भी इसको पुष्ट किया । आज उसी संस्कार के वशीभूत होकर, कल अनजाने में ही हुए एक पाप की चर्चा के लिए,आपसे मुखातिब हूँ । कल से,मैं काफ़ी उद्विग्न हूँ । आज सुबह ध्यान (मेडीटेशन) में भी मन इसी का चिन्तन करता रहा,अत: ध्यान हुआ ही नहीं । चूँकि इस पाप में कुछ भूमिका 'आनन्द सभा' की भी है,अत: सुबह की दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद,सबसे पहिला काम आपसे मुख़ातिब होने का कर रहा हूँ ।                 
इस समय मैं बंगलौर में अपनी बड़ी बेटी के घर में हूँ । मेरी नातिन साढ़े चार साल की है और नाती डेढ़ वर्ष का है । बंगलौर की पिछली यात्रा में,मैं नाती को खिलाते समय,उसे विभिन्न जानवरों की आवाज़ें सुनाने की ग़लती कर बैठा । नतीजा यह हुआ कि उसे कुत्ते के भौं-भौं की आवाज़ इतनी पसन्द आ गयी है कि अब मेरी पहचान,उसके लिए,"भौं-भौं वाले नानू" के रुप में सीमित होकर रह गयी है । मैं भी,उसमें अपने बाल कृष्ण का दर्शन करके दिन भर आह्लादित रहता हूँ । वह पूजा-पाठ के समय मेरी गोद में आकर बैठ जायेगा,आँखे बन्द कर लेगा,जैसे गहरे ध्यान में डूबा हो । मेरे शंख बजाने पर जहाँ भी होगा,भागकर आएगा और जब तक मैं उसके होंठों से शंख लगा नहीं दूँगा और वह शंख बजाने की तृप्ति अनुभव नहीं कर लेगा,मेरा पल्ला नहीं छोड़ेगा । मैं,उस पर कभी नाराज़ नहीं होता और इसी अहोभाव में रहता हूँ कि मेरे आराध्य ही बाल स्वरुप में मेरे ऊपर करूणा कर रहे हैं ।
कल हुआ यूँ कि मेरी नातिन के स्कूल की छुट्टी थी और दोनो भाई-बहिन मस्ती करने के मूड में थे । मैं 'आनन्द सभा' के एक विचारपूर्ण आलेख पर,टिप्पणी लिखने जा ही रहा था कि दोनो मेरे पास आकर "भौं-भौं" की आवाज़ निकालने की ज़िद करने लगे । मैंने कहा पॉंच मिनट रुक जाओ । नातिन बड़ी है,वह तो मान गयी पर नाती सरकार कहॉं मानने वाले थे ? एक बार तो मन हुआ कि 'आई-पैड' बन्द करके इनकी फ़रमाइश पूरी कर दूँ,फिर लगा कि यह विचार दिमाग़ से निकल जाएगा ।यह सोचकर नाती राजा को मनाने का प्रयास किया पर बाल-हठ तो बाल-हठ ही होता है । कन्हैया ने ग़ुस्से में आकर मटकी फोड़ दी थी,इस कन्हैया को मटकी कहॉं से मिलती ?तो इन जनाब ने,जो भी दो-तीन दाँत इनके मुँह में थे,पूरी ताक़त से मेरे पैरों में गड़ा दिए ।मैंने ज़ोर से डॉंट दिया,अब साहब,कुछ पल के लिए तो वे सहमे और इसके बाद,उनका जो रुदन-नाद शुरू हुआ,वह मेघ-गरजना को भी लज्जित करने वाला था । मैंने घबड़ाकर 'आई-पैड' बन्द कर के गोद में उठाया । गोद में इस क़दर मचलने लगा कि नीचे उतारना पड़ा ।जब लगातार दो मिनट तक भौं-भौं किया,तब जाकर कहीं उनका महारुदन बन्द हुआ ।इसके बाद जब दुबारा भौं-भौं किया,तब कहीं जाकर,उनकी,खिल-खिलाहट,कानों को नसीब हुई ।
वह तो सब कुछ तुरन्त भूल गया,पर मैं इस आत्म ग्लानि सें दंशित हूँ कि मुझसे अपने कन्हैया को 'सहमाने' और 'रुलाने' का अपराध कैसे हो गया ?

Thursday 4 June 2015

मैगी की बदनामी पर ।

आज सारा ज़माना 'मैगी' के पीछे पागल हो रहा है । टी०वी० में,अख़बार में,इन्टरनेट में,इस समय केवल तेरी ही चर्चा है ।तेरी ख्याति तो पहिले ही पूरे संसार में फैली हुयी थी,अब तो दिग-दिगंत तक,तू ही तू व्याप्त हो रही है ।रशक होता है मुझे तुझसे,काश ईश्वर ऐसा सौभाग्य सब को प्रदान करे ।मुझे एक शेर का टुकड़ा याद आ रहा है,"क्या बदनाम होगें तो नाम न होगा?"
प्रिय 'मैगी' तम इतनी देर से इस देश में क्यों आईं ?जब मैं लहसुन,प्याज़ और packed food छोड़ चुका था । थोड़ा पहिले आ जाती तो कम से कम मेरे अधर और जिह्वा भी तेरे रसास्वादन से वंचित तो न रह जाते ? कितना अभागी हूँ मैं ? कि मिलन के बग़ैर ही वियोग का दुख झेलना पड़ रहा है ।
'मैगी' तू इस दुख: में अपने को अकेली मत समझना ।इस विपदा में पूरा देश जार-जार रो रहा है ।माताएँ दुखी हैं कि अब कैसे वे अपने पालितों की तीव्र क्षुधा को २ मिनट में शान्त कर पायेगीं ? बच्चे दुखी हैं कि उन्हें फिर से उसी पारम्परिक भोजन पर निर्भर होना पड़ेगा ? तेरी जैसी वैविध्यता पारम्परिक भोजन में कहॉं ? और अगर हो भी तो 'मम्मी' बनाना नहीं जानती तो क्या फ़ायदा ?सबसे ज़्यादा दुखी हैं,'पुरुष'। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि पत्नी के बाहर चले जाने पर या रूठ जाने पर,जो उनका साथ देती थी,वही छोड़कर जा रही है तो अब वे किसके कन्धे का सहारा लेगें ? क्षात्रावास में रहने वाले भी दुखी हैं कि अब तक तो वे 'मेस' के बे-सवाद खाने के ज़ायक़े को ठीक करने के लिए जिसकी शरण में जाते थे,वही नहीं रहेगी,तो उनका क्या होगा ?

हमारा देश भी अजीब है ?पृदूषित जल पी लेगें, रासायनिक दूध पी लेंगे,सब्ज़ी खा लेगें,अन्न खा लेगें और डकार भी नहीं लेगें ।आज़ादी के बाद से इतने बार धोखा खाने के बाद भी उन्हीं धोखेबाज़ों पर विश्वास कर लेगें पर 'नेसले' पर विश्वास नहीं करेंगे ।हद हो गयी दोहरे चरित्र की ।
'मैगी' यह तेरे धैर्य की परीक्षा है ।तू घबड़ा मत ।तू अकेली नहीं है ।"धीरज,धर्म,मित्र अरु नारी,आपत्काल परखिहि चारी"।तेरे चाहने वाले बहुत हैं,वे किस दिन काम आएँगे ? तुझे अपने जन्मदाताओं पर विश्वास रखना चाहिए,वे तुझे बचाने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा देंगे क्योंकि उनके घरों में चूल्हा तेरी वजह से ही जलता है,तेरी रोशनी से ही उनके घरों के चिराग़ रोशन होते हैं ।

Tuesday 2 June 2015

मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहि विरंचि सम ।

                                                 मैंने आज से लगभग १५ वर्ष पूर्व,जब गम्भीरता से अपने धर्म शास्त्रों का अनुशीलन प्रारम्भ किया तो हर शास्त्र के आख़ीर में,मुझे यह मुमानियत बहुत अजीब सी लगी कि इन शास्त्रों का पठन-पाठन या इन पर चर्चा उन व्यक्तियों से न की जाए,जिनका प्रभु चरणों में अनुराग न हो,यानि कि नास्तिक हों । इस सम्बन्ध में रामचरितमानस और गीता की कुछ पंक्तियॉं उल्लेखनीय हैं,
                                                  "यह न कहिअ सठही हठसीलहि,जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि
                                                    कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि,जो न भजइ सचराचर स्वामिहि"
(मानस के अन्त में शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए,यह मुमानियत कर रहे है कि इस कथा को,उन व्यक्तियों से न कहा जाय,जो सठ हों,हठशील हों और हरि की लीलाओं में जिनका मन न लगता हो तथा ऐसे व्यक्ति भी जो क्रोधी हों,लोभी हों,कामी हो और जो पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी का भजन न करता हो,से भी इस कथा को न कहा जाय)
                                                     तो फिर इस कथा के सुनने के पात्र कौन हैं?
                                                     "राम कथा के तेइ अधिकारी,जिनके सतसंगति अति प्यारी 
                                                       गुर पद प्रीति नीति रत जेई,द्विज सेवक अधिकारी तेई
                                                       ता कहँ यह विशेष सुखदाई,जाहि प्रानप्रिय श्री रघुराई"
(इस कथा को सुनने के अधिकारी वे हैं,जिनको सतसंगति अति प्यारी हो,जिनकी गुर चरणों में प्रीति हो,जो नीति रत हों,द्विज सेवक हों ।जिनको राम प्राणों से भी अधिक प्रिय हों,उनको यह विशेष सुख प्रदान करने वाली है)
                                                       "इदं ते नातपसकाय नाभक्ताय कदाचन
                                                        न चाशुश्रूषवे वाचयं न च मां यो अभयसूयति"
(यह गुहयज्ञान उनको कभी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं,न एकनिष्ठ,न भक्ति में रत हैं,न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो)।      
                                                        मुझे लगा कि इस ज्ञान की सबसे ज़्यादा आवश्यकता तो उन्हीं लोगों को है,जिनको इसकी मुमानियत की गयी है ।मेरी बुद्धि यह स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं थी कि यह मुमानियत अर्थहीन है ।यह प्रश्न मन को मथते रहे ।जब मैं अपने इस जनम के गुरु,स्वामी जी के सम्पर्क मे आया तो मैंने उनसे इन प्रश्नों का समाधान चाहा तो उन्होंने जो समाधान दिया वह इस प्रकार है ।
                                                         हर मनुष्य का बौद्धिक स्तर अलग-अलग होता है ।एक स्तर है जिसे सठ कहा जाता है,उसके सुधार की गुंजाइश रहती है,"सठ सुधरहिं सतसंगति पाई,पारस,धातु-कुधातु सुहाई"अर्थात इस स्तर के व्यक्ति,सत्संग के प्रभाव से उसी तरह से सुधर जाते हैं,जैसे पारस के सम्पर्क में आने से लोहा,सोने में परिवर्तित हो जाता है ।
                                                          दूसरे स्तर के व्यक्ति हैं,'मूर्ख' ।इनको यदि ब्रह्मा भी गुरु के रूप में मिल जायें तो भी उनमें उसी प्रकार परिवर्तन असम्भव है,जैसे मेघ यदि अमृत भी बरसाएँ तो भी बेंत(बॉंस) के पेड़ पर फूल और फल नहीं आ सकते ।"मूरख ह्रदय न चेत,जो गुरु मिलहिं विरंचि सम ।फूलहिं-फलहिं न बेंत,जदपि सुधा बरसहिं जलधि"
                                                           एक तीसरा स्तर भी है और वह है'खल' का ।और इनके लिए कहा गया है कि इनका त्याग स्वान की तरह कर देना चाहिए,"खल परिहरिहिं स्वान की नाईं"
                                                            स्वामी जी ने कहा कि हमारे ग्रन्थों में इसीलिए नास्तिकों को,इसकी चर्चा करने से मना किया गया है,क्योंकि वे तुम्हारी बात मानेंगे नहीं ।तरह-तरह के तर्क-वितर्क करेगें,उनसे बात कर के तुम अपनी ऊर्जा और समय का विनाश ही करोगे और इससे उनका भी कोई भला नहीं होना ।आत्म साक्षात्कार या प्रभु का ज्ञान बिना श्रध्दा के सम्भव नहीं है ।वह तर्क ,मन,बुद्धि और वाणी से भी परे है,"राम अतर्क,मन,बुद्धि,बानी" तथा"श्रध्दावान् लभते ज्ञानम् तत्पर: संयते इन्द्रिय:
ज्ञानम् लब्धवा पराम् शान्ति नचिरेणाधिगचछति"

                                       

Monday 25 May 2015

जिन गीतों में तेरा नाम न होगा गीत नहीं मैं वह गाऊँगा

जिन गीतों में, तेरा नाम न होगा,गीत नहीं मैं वह गाऊँगा
जिन राहों में, तेरा धाम न होगा,राह नहीं मैं वह जाऊँगा

अाती-जाती इन साँसों में, तुझको ही पाया है, मैंने
कबिरा, तुलसी के दोहों में, तुझको ही गाया है, मैनें
जिन बाँहों में, मेरी बॉंह न होगी,बॉंह नहीं मैं वह चाहूँगा 
जिन गीतों में, तेरा नाम न होगा,गीत नहीं मैं वह गाऊँगा
जिन राहों में, तेरा धाम न होगा, राह नहीं मैं वह जाऊँगा 

तुमने तो कब का चाहा था,मैं ही तुमको समझ न पाया
माया ने अपने संग रकखा,मन ने भी मुझको ख़ूब नचाया
पीछा कुछ-कुछ छूट रहा है, जाकर फिर से नहीं फँसूँगा 
जिन गीतों में, तेरा नाम न होगा,गीत नहीं मैं वह गाऊँगा 
जिन राहों में, तेरा धाम न होगा, राह नहीं मैं वह जाऊँगा 





Saturday 23 May 2015

अधजल गगरी छलकत जाय ।

                                                 हम सब इसी 'अधजल' गगरी की तरह ही हैं ।अधजल गगरी रास्ते में छलक-छलक कर,घर पहुँचते-पहुँचते चौथाई रह जाती है ।रास्ते भर यह शोर कर-कर,अपने आधेपन की सूचना भी प्रसारित करती रहती है ।भरी हुयी गागर,कभी नहीं बताती कि वह भरी हुई है ।वह जैसी जलाशय से भरी हुई चली थी,वैसी ही अपने घर तक वापिस पहुँचती है ।
                                                  उपनिषद् की एक कथा है कि एक रृषि अपने पुत्र को ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाहर भेजते हैं । जब पुत्र ज्ञान प्राप्त करके वापिस आता है तो पिता उसे देखकर समझ जाते हैं कि वह ज्ञान नहीं,ज्ञान का अहंकार लेकर आया है ।वे उससे प्रश्न करते हैं कि क्या उसने वह ज्ञान प्राप्त कर लिया है,जिसके बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता ? पुत्र कहता है कि ऐसा ज्ञान तो उसके गुरू ने उसे दिया ही नहीं है ।पिता कहते हैं कि वापिस जाओ और 'वह' ज्ञान प्राप्त करके आओ । पुत्र चला जाता है और फिर वह वापिस पिता के पास नहीं आता । पिता पुत्र की ज्ञान प्राप्ति के प्रति आश्वस्त हो जाते  हैं ।
                                                    मैं अपने इस जीवन में, जितने भी अच्छे सन्तों से मिला हूँ, उन सब की एक ही पीड़ा है कि उनके पास जो लोग भी आते है,वे सब अपनी सांसारिक परेशानियों को दूर करने के लिए,अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए आते हैं ।जो साधु बनने आते हैं,उनका उद्देश्य मंहत बनना होता है ।पूरे जीवन में,उन्हे एक भी व्यक्ति ऐसा न मिला जो उनसे यह पूंछने गया हो कि प्रभु कैसे मिलेंगे ? उसको पाने के लिए क्या साधना की जाये ? कैसे इस मार्ग पर आगे बढ़ा जाये ? वे पूज्य सन्त,ब्रह्मलीन होने के पहिले,कठोर साधना से प्राप्त ज्ञान को दे जाना चाहते हैं पर कोई सुपात्र उन्हे नहीं मिला ।उनमें से कुछ तो ब्रह्मलीन हो चुके हैं और कुछ उसकी तैयारी में हैं । वे सब चाहते है कि सारे भौतिक,पारिवारिक,धार्मिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाने के बाद, मुझे "को अहम्" की खोज में पूर्ण समर्पण के साथ लग जाना चाहिए ।पर बच्चों के मोह में फँसा होने के कारण,अभी पूर्ण समर्पण की स्थिति नहीं बन पा रही है ।इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि एक वर्ष में सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त होने का कारण,ब्रह्मलीन मेरे गुरू की कृपा ही थी,मेरा पुरुषार्थ नहीं ।

Wednesday 20 May 2015

राग और विराग के बीच ।

रागों में मन डूब चुका है, दूजा मन मैं कहॉं से लाऊँ  ?
राहों में ही भटक रहा हूँ , अपना लक्ष्य कहॉं से पाऊँ ?

मैंने जो बोया था पहिले, उसको ही तो काट रहा हूँ 
धोखा जो पाया था जग से,उसको ही तो बॉंट रहा हूँ 
नफ़रत में ही पला-बढ़ा हूँ,अब मैं प्रेम कहॉं से लाऊँ ?

काम सर्प से डँसा गया हूँ,   नीम मुझे मीठी लगती है
लोभपाश से बंधा हुआ हूँ,  मुक्ति मुझे सीठी लगती है
तुम चाहो तो मुझे उबारो,मैं तो तुम तक पहुँच न पाऊँ ।


Friday 8 May 2015

आनन्द सभा से जुड़ने के बाद ?

                                                   चार बरस पूर्व सेवानिवृत्त के समय बच्चों ने एक लैपटॉप दिया था, जिससे मेरा ख़ालीपन भरता रहे । बच्चे यह भी चाहते थे कि मैं,छात्र जीवन के बाद से छूट गये लेखन को फिर से प्रारम्भ करूँ । मैं उन्हे कैसे समझाता कि अडतीस वरसो के अन्तराल के बाद फिर से लेखन प्रारम्भ करना कितना दुष्कर होगा ? छात्र जीवन में ही छपने का एवं आकाशवाणी के युवामंच कार्यक्रम में काव्यपाठ का सुख मैं उठा चुका था, अत: अन्तस में उस सुख के पुन: भोगने के संस्कार, निश्चित रूप से रहे होगें, जिसे शायद बच्चों ने समझ लिया होगा ।इतने लम्बे अन्तराल का कारण मेरी यह सोच थी कि मैं जिन आदर्शों की बातें,अपने लेखन में करता हूँ, उसके अनुरूप जब मैं स्वयं अपना जीवन नहीं जी पा रहा हूं तो ऐसे लेखन का क्या अर्थ है ? और तब मैंने सायास लेखन छोड़ दिया था ।
                                                      जिस समय मैं सेवानिवृत्त हुआ था,उस समय मेरे इस जीवन के वह गुरू जी,जिन्होंने आठ वर्षों में मेरे अर्थहीन जीवन को एक अर्थ दे दिया था, गम्भीर रूप से अस्वस्थ चल रहे थे । मैं उनके विछोह की कल्पना मात्र से  अन्दर तक कॉंप जाता था । मैंने अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखने के लिए,ब्लाग लेखन प्रारम्भ किया और इसके कारण ही मैं छह माह बाद हुये अपने गुरू के महाप्रयाण के बाद, अपने को संतुलित रखने में सफल हो सका । उनके महाप्रयाण के बाद मैं विक्षिप्त होने से तो बच गया, पर एक अजीब सी जड़ता जीवन में आ गयी । अब मेरे जीवन का कोई उद्देश्य ही नहीं रह गया था ।इस जीवन के सारे भौतिक,पैतृक,धार्मिक उत्तरदायित्वों से मेरे गुरु जी अपने जीवन काल में ही मुक्त कर गये थे ।
                                                       इस अयाचित जड़ता से बाहर निकलने के लिये मैं विगत सवा तीन वर्षों से,कहीं भी एक-डेढ़ महीने से ज़्यादा नहीं टिकता । ज़्यादातर समय पश्चिम भारत,दक्षिण भारत और उत्तर भारत में बीतता है । इतना करने के बाद भी, मैं, जड़ता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ और उसका कारण मैं स्वयं हूँ ।जब बच्चों के पास रहता हूँ तो नाती-नातियों,पोतियों की बालसुलभ हरकतें मन को आह्लादित तो करती हैं पर यह आह्लाद, मोह में परिवर्तित हो इसके पहिले ही वहॉं से खिसक लेता हूँ ।मेरे छात्र जीवन के वे लेखक मित्र जिनकी बीस-पच्चीस पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी है,चाहते हैं कि मैं,इधर बिताये गये अपने आश्रम जीवन के अनुभवो पर या अपने गुरु जी पर या अपनी राजकीय सेवा के अनुभवों पर,पुस्तकें लिखूँ ,जिसे वे अपने प्रकाशकों से छपवा देंगे,इससे मेरी जड़ता भी टूटेगी और समाज को मेरे अनुभवों का लाभ भी मिलेगा ।जैसे ही मेरा मन,इसके लिए तैयार होने लगता है, तो अन्दर से आवाज़ आती है कि तेरी यह सहमति कहीं यश पाने की कामना से ग्रसित तो नहीं है ? याद आने लगता है वह क्षण, जब अपने को समर्पित की गयी, मित्र की पुस्तक को देखकर,मैं देर तक सहलाता रहा था,छपे हुए,अपने नाम को ।
                                                       विगत दो महीनों से,जब से मैं आप सबसे जुड़ा हूँ,जमी हुई बर्फ़ के पिघलने का अहसास हो रहा है या यह कहूँ कि अन्दर का कूडाकरकट आपके ऊपर डालकर हल्का महसूस कर रहा हूं ।आभार ।  

बढ़ता हुआ सन्नाटा ।

बाहर जितना          शोर बढ़ रहा, अन्दर का सन्नाटा बढ़ता 
बाह्य मुखर  होता रहता है, अन्तस में तो भ्रम        ही पलता

तुम्हें छोड़कर,सब कुछ पाया,     झूम-झूम,कर, नाचा-गाया 
थकित हुआ तन, भ्रमित हुआ मन,मानव-जीवन व्यर्थ गँवाया 
घिरा हुआ हूँ माया से अब,    उस पर, नहीं,मेरा वश  चलता
बाह्य मुखर होता रहता है, अन्तस में  तो  भ्रम      ही  पलता

गागर यदि मेरी ख़ाली है,तो तुम     कैसे,"करुणा सागर" ?
अब भी मुझको नटी नचाये,तो तुम    कैसे,"नटवर नागर "?
इस सब से तू मुझे छुड़ाकर, क्यों, तू, संग नहीं ले चलता ?
बाह्य मुखर होता रहता है,अन्तस में तो भ्रम ही     पलता ।

Monday 4 May 2015

यायावरी

यायावर सा घूम रहा हूँ ,नगरी नगरी, द्वारे द्वारे 
चाहत क्यों उठती है मन में, कोई तो अब मुझे दुलारे ।
गिनती की सांसे बाक़ी है, जनम व्यर्थ बीता जाता है
हुआ नहीं दीदार तुम्हारा रह रह कर मन अकुलाता है ।
तन भी अब विश्राम चाहता,कोई तो अब मुझे पुकारे ।

कितनी ठोकर मारी जग ने,फिर भी उसको भूल न पाया 
तुमने तो चाहा था मिलना,मैं ही रिश्ता जोड़ न पाया 
श्रानत, क्लांत, विसरानत हुआ हूँ ,कोई तो अब मुझे निहारे ।

Friday 1 May 2015

भतीजे Pranshu Kanre के सगाई दिवस पर ।

तुम बँधने जा रहे हो आज ऐसे बन्धन में
जो जीवन भर तुम्हें उल्लास देगा, अनुराग देगा, तृप्ति देगा, शक्ति देगा ।
ऐसा बन्धन जो तुम्हें रुलायेगा भी, हँसायेगा भी,
गड़गड़ाओगे भी, गिड़गिड़ाओगे भी ।
ऐसा बन्धन जो अदृश्य होगा, पर सख़्त होगा ।
इस दिन का मॉं, मॉं बनने के दिन से इन्तज़ार करती है,
और बहू के सुरक्षित हाथो में सौंपकर तुमहे,
मुक्त हो जाना चाहती है, अपने उस उत्तरदायित्व से,
जिसे उसकी सास ने उसे दिया था ।
तुम पिता बनने के बाद ही समझ पाओगे, पिता होने का अर्थ ।
तुम्हारे नाम के साथ एक नाम और जुड़ने जा रहा है 
जिसका निर्धारण गजानन ने तो तुम्हारे जन्म के पूर्व कर दिया था,
संसार आज करेगा ।
आज के दिन मुझे तुम्हारे ताऊ बहुत याद आ रहे हैं,
मेरे बच्चे ।
यह शायद उन्हीं का अदृश्य निर्देश है,
जिसने मुझे, आज के दिन 
यहाँ लाकर खड़ा कर दिया है, मेरे बच्चे ।
आज के दिन अपने गुरु,अपने प्रभु से यही प्रार्थना है
कि तुम्हारा जीवन ऐसा नखलिसतान हो,
जिसमें बसन्त का उल्लास हो, फागुन का रनिवास हो ।
सावन के झूले हो, भूल जाने वाली भूले हों ।
जेठ के दिन हों तो पूस की राते हों 
बच्चों की किलकिलाहट हो और हर चेहरे पर मुस्कराहट हो ।

Friday 3 April 2015

"बिनु सत्संग विवेक न होई, रामु कृपा बिन सुलभ न सोई"

                                             हर शास्त्र में विवेक को ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्धारित किया गया है । विवेक प्राप्त होता है, सत्संग से और सत्संग के लिये चाहिए, अकारण करूणा वरुणालय की कृपा । यह अहैतुकी कृपा बरस तो सब पर रही है, पर इसका अनुभव वह ही कर पाता है जिसने अपने घट को मोह, मद, मत्सर आदि विकारों से, ख़ाली कर लिया है । जितना जितना घट ख़ाली होता जायेगा, उतना उतना ही कृपा का अनुभव प्रगाढ़ होता जायेगा । अहंकार के विगलन के साथ ही प्रारम्भ हो जायेगी, को अहम् ? से सो अहम् की यात्रा । 
                                              जीव, मोह,मद,मत्सर,अहंकार आदि विकारों से अपने को ख़ाली कैसे करे ? शास्त्रों ने इसके लिए, बहुत सारे उपाय बताए हैं । महर्षि पतांजलि ने इसे यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान और समाधि के आठ सोपानों में विभक्त करते हुए, क्रमश:आगे बढ़ने की बात कही गयी है ।
                                               "करमनयेवाधिकारसते मा फलेषु कदाचिन्,मा करम फल हेतुर भूरमा ते संगोंतस्व करमणि"के द्वारा निष्काम करमों के द्वारा, कर्मयोग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है । "सरव धर्माणि परित्यजय, मामेकं शरणं व्रज । अहं तवाम् सर्व पापेभयो मोक्षषियामि मा शुच: ।" के द्वारा भक्ति योग का प्रतिपादन किया गया है ।    
                                               जप,तप,स्वाध्याय,ईश्वर प्राणिधान,धार्मिक अनुष्ठान,नाम,रूप,लीला,धाम आदि भी विकारों  से मुक्त होने के साधन बताए गये हैं । इनमें से किसी भी एक का आश्रय लेकर, जीव अपनी यात्रा सफलता पूर्वक, पूर्ण कर सकता है । पर मुझे लगता है कि जीव मानस की इस पंक्ति को यदि अपने जीवन में उतार ले तो भी जीव अपने जीवन की सार्थकता प्राप्त कर सकता है । "परिहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई " यह पंक्ति सुनने में जितनी सरल लगती है, जब जीवन में उतारोगे तब पता चलेगा कि यह कितनी कठिन है ।