Wednesday 10 June 2015

कर्म का स्वरूप

गीता में कहा गया है,
"नेहाभिक्रमनासोअस्ति प्रत्यायो न विद्यते
  स्वलपम् अपि धर्मसय त्रायते महतो भयात्"
करम को तीन भागो में बाँटा गया है १-संचित २-क्रियमाण ३-प्रारबध ।
आप जो इस जीवन में कर रहे हो,वह क्रियमाण करम है ।अनगिनित जीवनों के करम,जिनका भोग अभी तक आपने नहीं भोगा है,संचित की श्रेणी में आएँगे और इन संचित करमों में से छाँटकर आपके इस जीवन का प्रारबध (भाग्य) बना है ।आप पुरुषार्थ (क्रियमाण) के द्वारा संचित करमों को तो नष्ट कर सकते हो पर प्रारबध का भोग तो आपको भोगना ही पड़ेगा । इस प्रारबध के भोग से रामकृष्ण
परमहंस जैसे महापुरुष भी नहीं बच पाए । उन्होंने इस भोग को प्रसन्नता के साथ भोगा है क्योंकि वे जानते थे कि यह भोग भोगने से ही नष्ट होगा ।
अब प्रश्न यह उठता है कि पुरुषार्थ क्या है ? और इसका क्या महत्व है ? तो इसके लिए शुरु में कहा गया श्लोक काफ़ी कुछ स्पष्ट कर देता है । जो भी आप इस जनम में सत्करम या धर्म (जो धारण करने योग्य है,वही धर्म है) करोगे, वह कभी भी नष्ट नहीं होगा और वह आपको बहुत बड़े-बड़े भयों से मुक्त कर देगा । इससे होगा क्या ? इससे यह होगा कि आपका अगला जनम इस जनम की पूँजी के साथ शुरू होगा ।
"प्राप्य पुण्य कृताम् लोकानिषतवा शाश्वती समा:
  शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टो अभिजायेते"
"अथवा योगिनाम् कुले भवति धीमताम्"
इसमें कहने के लिए बहुत कुछ है । पर बहुत कुछ कहकर या जानकर भी विश्वास और श्रध्दा के साथ यदि जीवन में उसका अवतरण नहीं होता तो वह व्यर्थ ही है ।
"श्रध्दावान् लभते ज्ञानम् तत्पर: संयते इन्द्रिय:
  ज्ञानम् लब्धवा पराम् नचिरेणाधिगचछति"

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