Monday 29 June 2015

नातिन के १२वें दिन पर

आज उसके धरा में पधारने का १२वॉं दिन है । उसकी मॉं यानि कि मेरी बेटी,उसकी मालिश और स्नान प्रकिया पूरी होने के बाद,उसे मेरे बिस्तर पर लिटा गयी है । वह धरती पर अवतरित हुई परी सी लग रही है । वह अपनी ऑंखें बन्द किए है,मानो किसी गहन समस्या को सुलझाने में लगी हो । बीच-बीच में स्मित हास्य,उसके होंठों और गालों पर खेलने लगता है । मैं उसके इस स्मित हास्य का आनन्द ले ही रहा था कि अचानक वह एकदम दुखी होकर रोने की मुद्रा बनाने लगती है,मानो कोई बुरा स्वप्न देख रही हो ? बुज़ुर्ग कहा करते थे कि बच्चों की क्षण-क्षण में,मुद्राएँ बदलने का कारण, उनकी पूर्व जन्मों की स्मृतियॉं हैं ।

मेरी लाड़ली,प्रभु की अतिशय कृपा से ही,जीव को मानव योनि मिलती है । यही एक मात्र कर्म योनि है, बाकी सारी भोग योनियाँ हैं । इसी योनि में जीव अच्छे कर्म करके, आनन्दानुभूति का साक्षात्कार कर सकता है । मानव योनि में भी मातृ शक्ति के रूप में,अवतरित होना, प्रभु की अतिशय से भी अतिशय कृपा का परिचायक है । ईश्वर जब-जब भी, इस धरा पर अवतरित हुआ है, उसे भी किसी न किसी माता के गर्भ की शरण लेनी पड़ी है । इसीलिए हमारी संस्कृति में मॉं को प्रथम स्थान दिया गया है । पुत्र केवल अपने पितृ कुल का ही उद्धार करता है या उसके यश की वृध्दि करता है, पुत्री तो पितृ कुल और मातृ कुल दोनो का ही उद्धार करती है या उसके यश में वृध्दि करती है । इसीलिए जनक को सीता के लिए कहना पड़ा,"पुत्रि,पवित्र किए कुल दोऊ"।

आज के दिन प्रभु से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें, मॉं सीता की तरह धैर्य दे, मॉं सरस्वती की तरह बुद्धि की अधिष्ठात्री बनाये, मॉं लक्ष्मी की तरह, अपने पति की सेवा का सामर्थ्य दे ।और-और-और मॉं दुर्गा की तरह दुष्टों (दुष्प्रवृत्तियों) का संघार करने की शक्ति दे ।

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