Monday 25 May 2015

जिन गीतों में तेरा नाम न होगा गीत नहीं मैं वह गाऊँगा

जिन गीतों में, तेरा नाम न होगा,गीत नहीं मैं वह गाऊँगा
जिन राहों में, तेरा धाम न होगा,राह नहीं मैं वह जाऊँगा

अाती-जाती इन साँसों में, तुझको ही पाया है, मैंने
कबिरा, तुलसी के दोहों में, तुझको ही गाया है, मैनें
जिन बाँहों में, मेरी बॉंह न होगी,बॉंह नहीं मैं वह चाहूँगा 
जिन गीतों में, तेरा नाम न होगा,गीत नहीं मैं वह गाऊँगा
जिन राहों में, तेरा धाम न होगा, राह नहीं मैं वह जाऊँगा 

तुमने तो कब का चाहा था,मैं ही तुमको समझ न पाया
माया ने अपने संग रकखा,मन ने भी मुझको ख़ूब नचाया
पीछा कुछ-कुछ छूट रहा है, जाकर फिर से नहीं फँसूँगा 
जिन गीतों में, तेरा नाम न होगा,गीत नहीं मैं वह गाऊँगा 
जिन राहों में, तेरा धाम न होगा, राह नहीं मैं वह जाऊँगा 





Saturday 23 May 2015

अधजल गगरी छलकत जाय ।

                                                 हम सब इसी 'अधजल' गगरी की तरह ही हैं ।अधजल गगरी रास्ते में छलक-छलक कर,घर पहुँचते-पहुँचते चौथाई रह जाती है ।रास्ते भर यह शोर कर-कर,अपने आधेपन की सूचना भी प्रसारित करती रहती है ।भरी हुयी गागर,कभी नहीं बताती कि वह भरी हुई है ।वह जैसी जलाशय से भरी हुई चली थी,वैसी ही अपने घर तक वापिस पहुँचती है ।
                                                  उपनिषद् की एक कथा है कि एक रृषि अपने पुत्र को ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाहर भेजते हैं । जब पुत्र ज्ञान प्राप्त करके वापिस आता है तो पिता उसे देखकर समझ जाते हैं कि वह ज्ञान नहीं,ज्ञान का अहंकार लेकर आया है ।वे उससे प्रश्न करते हैं कि क्या उसने वह ज्ञान प्राप्त कर लिया है,जिसके बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता ? पुत्र कहता है कि ऐसा ज्ञान तो उसके गुरू ने उसे दिया ही नहीं है ।पिता कहते हैं कि वापिस जाओ और 'वह' ज्ञान प्राप्त करके आओ । पुत्र चला जाता है और फिर वह वापिस पिता के पास नहीं आता । पिता पुत्र की ज्ञान प्राप्ति के प्रति आश्वस्त हो जाते  हैं ।
                                                    मैं अपने इस जीवन में, जितने भी अच्छे सन्तों से मिला हूँ, उन सब की एक ही पीड़ा है कि उनके पास जो लोग भी आते है,वे सब अपनी सांसारिक परेशानियों को दूर करने के लिए,अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए आते हैं ।जो साधु बनने आते हैं,उनका उद्देश्य मंहत बनना होता है ।पूरे जीवन में,उन्हे एक भी व्यक्ति ऐसा न मिला जो उनसे यह पूंछने गया हो कि प्रभु कैसे मिलेंगे ? उसको पाने के लिए क्या साधना की जाये ? कैसे इस मार्ग पर आगे बढ़ा जाये ? वे पूज्य सन्त,ब्रह्मलीन होने के पहिले,कठोर साधना से प्राप्त ज्ञान को दे जाना चाहते हैं पर कोई सुपात्र उन्हे नहीं मिला ।उनमें से कुछ तो ब्रह्मलीन हो चुके हैं और कुछ उसकी तैयारी में हैं । वे सब चाहते है कि सारे भौतिक,पारिवारिक,धार्मिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाने के बाद, मुझे "को अहम्" की खोज में पूर्ण समर्पण के साथ लग जाना चाहिए ।पर बच्चों के मोह में फँसा होने के कारण,अभी पूर्ण समर्पण की स्थिति नहीं बन पा रही है ।इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि एक वर्ष में सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त होने का कारण,ब्रह्मलीन मेरे गुरू की कृपा ही थी,मेरा पुरुषार्थ नहीं ।

Wednesday 20 May 2015

राग और विराग के बीच ।

रागों में मन डूब चुका है, दूजा मन मैं कहॉं से लाऊँ  ?
राहों में ही भटक रहा हूँ , अपना लक्ष्य कहॉं से पाऊँ ?

मैंने जो बोया था पहिले, उसको ही तो काट रहा हूँ 
धोखा जो पाया था जग से,उसको ही तो बॉंट रहा हूँ 
नफ़रत में ही पला-बढ़ा हूँ,अब मैं प्रेम कहॉं से लाऊँ ?

काम सर्प से डँसा गया हूँ,   नीम मुझे मीठी लगती है
लोभपाश से बंधा हुआ हूँ,  मुक्ति मुझे सीठी लगती है
तुम चाहो तो मुझे उबारो,मैं तो तुम तक पहुँच न पाऊँ ।


Friday 8 May 2015

आनन्द सभा से जुड़ने के बाद ?

                                                   चार बरस पूर्व सेवानिवृत्त के समय बच्चों ने एक लैपटॉप दिया था, जिससे मेरा ख़ालीपन भरता रहे । बच्चे यह भी चाहते थे कि मैं,छात्र जीवन के बाद से छूट गये लेखन को फिर से प्रारम्भ करूँ । मैं उन्हे कैसे समझाता कि अडतीस वरसो के अन्तराल के बाद फिर से लेखन प्रारम्भ करना कितना दुष्कर होगा ? छात्र जीवन में ही छपने का एवं आकाशवाणी के युवामंच कार्यक्रम में काव्यपाठ का सुख मैं उठा चुका था, अत: अन्तस में उस सुख के पुन: भोगने के संस्कार, निश्चित रूप से रहे होगें, जिसे शायद बच्चों ने समझ लिया होगा ।इतने लम्बे अन्तराल का कारण मेरी यह सोच थी कि मैं जिन आदर्शों की बातें,अपने लेखन में करता हूँ, उसके अनुरूप जब मैं स्वयं अपना जीवन नहीं जी पा रहा हूं तो ऐसे लेखन का क्या अर्थ है ? और तब मैंने सायास लेखन छोड़ दिया था ।
                                                      जिस समय मैं सेवानिवृत्त हुआ था,उस समय मेरे इस जीवन के वह गुरू जी,जिन्होंने आठ वर्षों में मेरे अर्थहीन जीवन को एक अर्थ दे दिया था, गम्भीर रूप से अस्वस्थ चल रहे थे । मैं उनके विछोह की कल्पना मात्र से  अन्दर तक कॉंप जाता था । मैंने अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखने के लिए,ब्लाग लेखन प्रारम्भ किया और इसके कारण ही मैं छह माह बाद हुये अपने गुरू के महाप्रयाण के बाद, अपने को संतुलित रखने में सफल हो सका । उनके महाप्रयाण के बाद मैं विक्षिप्त होने से तो बच गया, पर एक अजीब सी जड़ता जीवन में आ गयी । अब मेरे जीवन का कोई उद्देश्य ही नहीं रह गया था ।इस जीवन के सारे भौतिक,पैतृक,धार्मिक उत्तरदायित्वों से मेरे गुरु जी अपने जीवन काल में ही मुक्त कर गये थे ।
                                                       इस अयाचित जड़ता से बाहर निकलने के लिये मैं विगत सवा तीन वर्षों से,कहीं भी एक-डेढ़ महीने से ज़्यादा नहीं टिकता । ज़्यादातर समय पश्चिम भारत,दक्षिण भारत और उत्तर भारत में बीतता है । इतना करने के बाद भी, मैं, जड़ता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पा रहा हूँ और उसका कारण मैं स्वयं हूँ ।जब बच्चों के पास रहता हूँ तो नाती-नातियों,पोतियों की बालसुलभ हरकतें मन को आह्लादित तो करती हैं पर यह आह्लाद, मोह में परिवर्तित हो इसके पहिले ही वहॉं से खिसक लेता हूँ ।मेरे छात्र जीवन के वे लेखक मित्र जिनकी बीस-पच्चीस पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी है,चाहते हैं कि मैं,इधर बिताये गये अपने आश्रम जीवन के अनुभवो पर या अपने गुरु जी पर या अपनी राजकीय सेवा के अनुभवों पर,पुस्तकें लिखूँ ,जिसे वे अपने प्रकाशकों से छपवा देंगे,इससे मेरी जड़ता भी टूटेगी और समाज को मेरे अनुभवों का लाभ भी मिलेगा ।जैसे ही मेरा मन,इसके लिए तैयार होने लगता है, तो अन्दर से आवाज़ आती है कि तेरी यह सहमति कहीं यश पाने की कामना से ग्रसित तो नहीं है ? याद आने लगता है वह क्षण, जब अपने को समर्पित की गयी, मित्र की पुस्तक को देखकर,मैं देर तक सहलाता रहा था,छपे हुए,अपने नाम को ।
                                                       विगत दो महीनों से,जब से मैं आप सबसे जुड़ा हूँ,जमी हुई बर्फ़ के पिघलने का अहसास हो रहा है या यह कहूँ कि अन्दर का कूडाकरकट आपके ऊपर डालकर हल्का महसूस कर रहा हूं ।आभार ।  

बढ़ता हुआ सन्नाटा ।

बाहर जितना          शोर बढ़ रहा, अन्दर का सन्नाटा बढ़ता 
बाह्य मुखर  होता रहता है, अन्तस में तो भ्रम        ही पलता

तुम्हें छोड़कर,सब कुछ पाया,     झूम-झूम,कर, नाचा-गाया 
थकित हुआ तन, भ्रमित हुआ मन,मानव-जीवन व्यर्थ गँवाया 
घिरा हुआ हूँ माया से अब,    उस पर, नहीं,मेरा वश  चलता
बाह्य मुखर होता रहता है, अन्तस में  तो  भ्रम      ही  पलता

गागर यदि मेरी ख़ाली है,तो तुम     कैसे,"करुणा सागर" ?
अब भी मुझको नटी नचाये,तो तुम    कैसे,"नटवर नागर "?
इस सब से तू मुझे छुड़ाकर, क्यों, तू, संग नहीं ले चलता ?
बाह्य मुखर होता रहता है,अन्तस में तो भ्रम ही     पलता ।

Monday 4 May 2015

यायावरी

यायावर सा घूम रहा हूँ ,नगरी नगरी, द्वारे द्वारे 
चाहत क्यों उठती है मन में, कोई तो अब मुझे दुलारे ।
गिनती की सांसे बाक़ी है, जनम व्यर्थ बीता जाता है
हुआ नहीं दीदार तुम्हारा रह रह कर मन अकुलाता है ।
तन भी अब विश्राम चाहता,कोई तो अब मुझे पुकारे ।

कितनी ठोकर मारी जग ने,फिर भी उसको भूल न पाया 
तुमने तो चाहा था मिलना,मैं ही रिश्ता जोड़ न पाया 
श्रानत, क्लांत, विसरानत हुआ हूँ ,कोई तो अब मुझे निहारे ।

Friday 1 May 2015

भतीजे Pranshu Kanre के सगाई दिवस पर ।

तुम बँधने जा रहे हो आज ऐसे बन्धन में
जो जीवन भर तुम्हें उल्लास देगा, अनुराग देगा, तृप्ति देगा, शक्ति देगा ।
ऐसा बन्धन जो तुम्हें रुलायेगा भी, हँसायेगा भी,
गड़गड़ाओगे भी, गिड़गिड़ाओगे भी ।
ऐसा बन्धन जो अदृश्य होगा, पर सख़्त होगा ।
इस दिन का मॉं, मॉं बनने के दिन से इन्तज़ार करती है,
और बहू के सुरक्षित हाथो में सौंपकर तुमहे,
मुक्त हो जाना चाहती है, अपने उस उत्तरदायित्व से,
जिसे उसकी सास ने उसे दिया था ।
तुम पिता बनने के बाद ही समझ पाओगे, पिता होने का अर्थ ।
तुम्हारे नाम के साथ एक नाम और जुड़ने जा रहा है 
जिसका निर्धारण गजानन ने तो तुम्हारे जन्म के पूर्व कर दिया था,
संसार आज करेगा ।
आज के दिन मुझे तुम्हारे ताऊ बहुत याद आ रहे हैं,
मेरे बच्चे ।
यह शायद उन्हीं का अदृश्य निर्देश है,
जिसने मुझे, आज के दिन 
यहाँ लाकर खड़ा कर दिया है, मेरे बच्चे ।
आज के दिन अपने गुरु,अपने प्रभु से यही प्रार्थना है
कि तुम्हारा जीवन ऐसा नखलिसतान हो,
जिसमें बसन्त का उल्लास हो, फागुन का रनिवास हो ।
सावन के झूले हो, भूल जाने वाली भूले हों ।
जेठ के दिन हों तो पूस की राते हों 
बच्चों की किलकिलाहट हो और हर चेहरे पर मुस्कराहट हो ।