बाह्य मुखर होता रहता है, अन्तस में तो भ्रम ही पलता
तुम्हें छोड़कर,सब कुछ पाया, झूम-झूम,कर, नाचा-गाया
थकित हुआ तन, भ्रमित हुआ मन,मानव-जीवन व्यर्थ गँवाया
घिरा हुआ हूँ माया से अब, उस पर, नहीं,मेरा वश चलता
बाह्य मुखर होता रहता है, अन्तस में तो भ्रम ही पलता
गागर यदि मेरी ख़ाली है,तो तुम कैसे,"करुणा सागर" ?
अब भी मुझको नटी नचाये,तो तुम कैसे,"नटवर नागर "?
इस सब से तू मुझे छुड़ाकर, क्यों, तू, संग नहीं ले चलता ?
बाह्य मुखर होता रहता है,अन्तस में तो भ्रम ही पलता ।
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