Thursday 26 January 2012

गणतंत्र दिवस पर

२६ जनवरी,१९५० को मेरे देश को संवैधानिक आज़ादी प्राप्त हुई थी । बहुत सारे राष्ट्रों के संविधान का सम्यक मनन एवं चिंतन करने के पश्चात् हमारे राष्ट्र के चिंतक, मनीषियों, विधि वेत्ताओं एवं राज नेताओं ने मिलकर हमको एक सशक्त संविधान दिया था । उनके इस देय के लिये,आज के दिन मैं उन्हें कोटि-कोटि नमन करता हूँ । यह संविधान ही है जो हमारे मौलिक अधिकारों को तमाम झंझावातों के बाद भी सुरक्षित रक्खे हुए है । कितनी बार प्रयास नहीं किया गया हमारे मदांध शासकों द्वारा हमारे इन मौलिक अधिकारों को छीनने का ? अपनी सत्ता बचाने के लिये,इस राष्ट्र ने आपातकाल का एक ऐसा काल भी देखा है जो इतिहास के पन्नों में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया है । उस काल में दंशित हुए व्यक्ति आज भी उसे याद कर सिहर उठते हैं । यह इस देश के गणतंत्र का ही कमाल है कि उन मदांध शासकों को, इसका खामियाजा, सत्ता से च्युत होकर चुकाना पड़ा । उस समय भी इस गण की एक इकाई पूरी दबंगई के साथ मदांध शासको को खुली चुनौती दे रही थी,
    " कौन कहता है कि आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों "                        
  " कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिये, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिये 
     न हो कमीज तो पावों से पेट ढक लेगें, यह लोग कितने मुनासिब है इस सफ़र के लिये "
                            जब-जब भी व्यक्ति के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों को छीनने का प्रयास किया गया है, यह गणतंत्र की ही ताकत थी कि उसने इनकी रक्षा की है । आज इतिहास से सबक न लेते हुए, फिर से इस तरह के प्रयास किये जा रहे है पर मैं आश्वस्त हूँ कि मेरे देश का गणतंत्र इतना मजबूत हो चुका है कि यह अब किसी के लिये भी संभव नहीं होगा कि वह इस देश की अस्मिता के साथ खिलवाड़ कर सके ।
                             शेष प्रभु कृपा ।
 
   

Tuesday 17 January 2012

अन्तर्भेदी द्रष्टि

                                                        मैं अपने गुरु जी की अनिच्छा के बावजूद पहिली बार बाहर गया था | लगभग २ वर्षों से गुरु जी अस्वस्थ चल रहे थे और पिछले डेढ़ वर्षों से उन्होंने मुझे कहीं भी बाहर जाने की अनुमति नहीं दी  थी | इस अन्तराल में ही मेरी दो भाभियों का शरीर शांत हुआ और एक भतीजी का विवाह भी हुआ, किन्तु अनुमति न मिल पाने के कारण मैं नहीं जा सका | इससे मेरे परिजन नाराज भी हुये | ४ दिसम्बर को मेरी छोटी बेटी के देवर का विवाह आगरा में था | वह महाराज जी का  भी कृपापात्र था, जब हम दोनों लोगो ने जाने की अनुमति मांगी तो उन्होंने मना कर दिया | जब मैंने कयी बार अनुरोध किया और यह कहा कि दोनों में से एक व्यक्ति भी न जायेगा तो अच्छा नहीं लगेगा तो उन्होंने बड़े बेमन से केवल मुझे जाने की अनुमति दी | मैंने  जब ६ दिसम्बर को वापिस आकर उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने बैठाने का इशारा किया | उन्हें बिठाकर मैं उनके सामने ज़मीन में बैठ गया | मेरी धर्मपत्नी उन्हें सहारा दिये उनके बगल में बैठी थी | मेरे गुरु अपनी अन्तर्भेदी द्रष्टि से मुझे लगातार देख रहे थे और मैं द्रष्टि की अन्तर्भेदी करुणा से इतना विगलित हो गया था कि उनकी तरफ न देखकर जानबूझकर दूसरी तरफ देख रहा था | मेरा मन कर रहा था मैं उनसे लिपटकर जी भरकर रो लूँ | मेरी पत्नी ने स्वामी जी से हास्य में कहा कि आप इन्ही को ज्यादा चाहते हैं, जो आपको छोड़कर आगरा चले गये थे और आप इन्ही को देखे जा रहे है | पत्नी ने मुझसे कहा कि जरा इधर देखो न | यह कैसे तुम्हारा मुँह निहारे पड़े है और तुम इधर देख भी नहीं रहे हो | मैं सब देख रहा था, सब सुन रहा था, पर जानबूझ कर अनदेखा, अनसुना कर रहा था क्योंकि वह अन्तर्भेदी द्रष्टि मुझे अंदर तक चीरे डाल रही थी और उसका सामना करने का साहस मुझमें नहीं था |
                                               विगत कुछ दिनों से मैं ऐसा महसूस कर रहा था कि गुरु जी मेरे चेहरे को निहारते  रहते हैं | इससे मुझे डर लगने लगा था कि कहीं यह उनके महाप्रयाण की पूर्व सूचना तो नहीं है | यही भाव मुझे अंदर तक कंपा जाता था | वही हुआ जिसका डर मुझे लगातार भयाक्रांत किये हुए था | ८ दिसम्बर को उन्होंने मुझे और मेरी पत्नी को सामाजिक संबंधों के निर्वहन के लिए मुक्त करते हुए, महाप्रयाण कर दिया | मैं और मेरी पत्नी दोनों महाप्रयाण के समय उनके पास नहीं थे |
                                                हम जब स्टेशन से अमित को लेकर निकल ही रहे थे कि आश्रम से सूचना आई कि हम तुरंत आश्रम पहुंचे | हमें होनी का आभास हो गया था और हम जब आश्रम पहुंचे तो उन्हें आसन में बिठाया जा चुका था | उनकी आँखे खुली हुई थी | वह उपर की ओर देख रहे थे | मुझे ऐसा लगा कि मानो वह मुझे जाते-जाते सन्देश छोड़ गये हैं कि अब तो मैं संसार को देखना छोड़ दूँ और उपर की तरफ देखना शुरूं कर दूँ जहाँ मुझे जाना है | यह संसार के प्रति मेरा मोह ही था जिसने अंतिम समय में मुझे उनसे अलग कर दिया था |
                                                  मेरे गुरु अंतिम समय तक मुझे मोह से उबारने का प्रयास करते रहे पर अभागा मैं आज तक इस मोह को अपने से अलग नहीं कर सका | बीच-बीच में विरक्ति का भाव प्रबल होता है पर तभी मोह अपने रूप बदल कर फिर से अपने बंधन में जकड़ लेता है | कभी नातिनो के रूप में, कभी पोती के रूप में | मेरे गुरु की अन्तर्भेदी द्रष्टि आज भी मुझे भेदती रहती है | कभी-कभी गहन निद्रा में वही द्रष्टि मुझे झिझोंढकर जगा देती है, जैसे मुझसे पूंछ रही हो, कब ख़त्म होगी मेरी प्रतीक्षा ? मेरे गुरु,मेरे प्रभु, मेरे पिता, मेरे भगवान मैं आभारी हूँ आपका और आपकी अन्तर्भेदी द्रष्टि का जो   आज भी इस नारकीय जीव को अपनी करुणा का दान देकर,निकालने के लिये व्याकुल है, इस नरक से | प्रभु मेरे बस का कुछ नहीं है | मेरे बस का होता तो जाने कब का तोड़ चुका होता इस मोह के बंधन को | तुम्हारी कृपा ही का सहारा है, मेरे प्रभु | मेरे उपर अपनी अहैतुकी कृपा की वर्षा कर दो मेरे स्वामी, मेरे प्रभु | यहाँ तक लाकर मुझे मझधार में न छोड़ो, मेरे भगवान | तुम अकारण करुणावरुनालय  हो मेरे उपर भी कृपा करके पार उतार दो, दीनदयाल |
                                         शेष प्रभु कृपा |

Monday 16 January 2012

मानस की चौपाई सी याद तुम्हारी आयी

मानस की चौपाई सी  याद तुम्हारी आयी
अंतस के सूनेपन में  गूंज  उठी  शहनायी 
                                                           कोने में दुबक गया संसय का सर्प
                                                           आँखों में बिहँस गया मनुहारा दर्प
गर्मीली   दोपहरी    ने   अंगुली  चटकायी
मानस की चौपाई सी याद तुम्हारी  आयी 
                                                            पूजा की थाली सा महक उठा  तन 
                                                            ऊषा की लाली सा चमक उठा  मन 
श्रमहारी     संध्या ने  आरती       सजायी
मानस की चोपाई सी याद तुम्हारी  आयी 
अंतस   के सूनेपन में  गूंज उठी  शहनायी
                                                         (विवाह के कुछ ही दिनों बाद लिखा गया गीत)

Thursday 12 January 2012

गुरूजी के महाप्रयाण पर

वह दिन भी आ गया जिसको लेकर पिछले कई दिनों से मैं सशंकित था | उनके महाप्रयाण के एक दिन पहिले मुझे उन्होंने आभासित करा दिया था | मैं रात्रि में उनके बगल में लेटा हुआ था | उस रात्रि उन्होंने घंटी नहीं बजायी | जब काफी देर हो गयी तो मैं सशंकित होकर उठा, देखा तो इशारे से मुझे बुला रहे थे | मैंने पूंछा कि बैठेगें ? मना कर दिया | थोड़ी देर में मैं लेट गया | लेटने के बाद बड़ी देर तक बेचैनी रही | मन में तरह-तरह के विचार आते रहे | इसके पहिले मेरी पत्नी काफी देर तक, बच्चो की तरह उन्हें लेकर बैठी रही,फिर उन्होंने लिटाने के लिए पूंछा तो मना कर दिया | तब उन्होंने कहा कि कल सबेरे जल्दी अमित को लेने जाना है, अत:आप लेट जाये तो हम भी थोड़ी देर सो लें | बड़ी अनिच्छा पूर्वक वह लेटे थे | यह सब सोच ही रहा था कि अचानक एक विचार बड़ी तीव्रता से बार-बार आने लगा कि कहीं यह स्वामीजी की सेवा की अंतिम रात्रि तो नहीं है ? कहीं स्वामीजी ने महाप्रयाण का निश्चय तो नहीं कर लिया? कल उनके गुरु स्थान में भंडारा है | क्या भंडारे के दिन ही
यह महाप्रयाण करेंगे ? सुबह ३ बजे उठा तो वह सोते से लगे | ५बजे स्टेशन जाना था पर ट्रेन लेट हो जाने के कारण मैं उनसे अनुमति लेकर लगभग ७.३० बजे इन्हें लेकर घर आ गया | ट्रेन लगातार लेट होती गयी | लगभग ११ बजे हम वापसी के लिए सीढियाँ उतर ही रहे थे कि तभी आश्रम से फ़ोन आ गया कि हम तुरंत आश्रम पहुचें | यह सुनते ही हमे होनी का आभास हो गया और हम रोने लगे | रास्ते में दुबारा फ़ोन आ गया और हमारी आशंका सच हो गयी | किसी तरह आश्रम पहुंचे | काफी देर विलाप के बाद  कर्तव्य बोध जाग्रत हुआ और आगे का कार्य शुरू किया | सभी शिष्यों को एवं शंकराचार्य जी को सूचना दी गयी | शंकराचार्य जी आये और उन्होंने कल १० बजे तक जल समाधि के लिए निर्देशित किया तथा षोडसी जो २३ तारीख को पड़ रही थी, में अपनी अनुपलब्धता  की बात कही तो स्वामीजी के एकमात्र सन्यासी शिष्य भास्करानंद जी ने शंकराचार्य जी से उनकी उपस्थिति में ही कार्यक्रम संपन्न होना श्रेयस्कर माना | मैंने भी शंकराचार्य जी से निवेदन किया कि उनकी उपस्थिति में ही कार्यक्रम संपन्न होना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जीवित अवस्था में मैंने कयी बार स्वामीजी से उनकी षोडसी के बारे में पूंछा था और हर बार उन्होंने यही कहा कि शंकराचार्य जी उनके गुरु है,तुम केवल उनको सूचित कर देना बाकी का कार्य वह जैसा उचित समझेगें, संपन्न करायेगें और इसमें तुम लोग अपनी कोई इच्छा भी व्यक्त मत करना | तब शंकराचार्य जी ने कहा कि वह २७ को उपलब्ध रहेगें अत: २७ को ही षोडसी और भंडारा कर लिया जाये, उन्होंने यह भी कहा कि सन्यास लेने के पहिले सारे कर्मकांड करके ही व्यक्ति सन्यास लेता है अत: सन्यासी के लिए कोई कर्मकांड का बंधन शेष नही रह जाता | उन्होंने कुछ संतो के उदाहरण भी दिए जिनकी षोडसी १६ दिनों के बाद की गयी थी अत: न तो इसमें कोई शास्त्रीय बाधा है और न ही परम्परा सम्बन्धी कोई बाधा है | मैंने और निर्देश चाहे तो उन्होंने कहा कि हम व्यवस्था कर देंगे, दो दिन बाद से यहाँ ४ पंडित बैठकर, उपनिषद, गीता, भागवत, रामायण का पाठ करेंगे जो २७ तक चलेगा, उन्होंने इस सब व्यवस्था के लिए अपने आश्रम के प्रबन्धक आचार्य श्री छोटेलाल जी को निर्देशित भी कर दिया | इस घटनाक्रम के समय स्वामी जी के काफी शिष्य उपस्थित थे | स्वामी जी के महाप्रयाण के थोड़ी देर बाद आश्रम में भगवान के नाम का संकीर्तन करने के लिए एक मंडली को बैठाल दिया गया था क्योंकि स्वामी जी को संकीर्तन से अत्यधिक लगाव था | शंकराचार्य जी के जाने के बाद जल समाधि की व्यवस्था में लोग लग गए | मैं अमित को लेकर थोड़ी देर के लिए घर आ गया | जब मैं आश्रम पहुंचा तो मुझे जानकारी दी गयी कि कुछ लोग १६ दिनों में ही षोडसी करने की बात कह रहे हैं तो मुझे क्रोध आ गया और मैंने कहा कि जब शंकराचार्य जी यह व्यवस्था दे रहे थे तब जिन्हें उनकी यह व्यवस्था शास्त्र या लोकरीति के विपरीत लग रही थी, उन्हें एतराज करना चाहिए था | अब उनके जाने के बाद इस तरह का विवाद उत्पन्न करना शोभनीय नहीं है | अगर धर्मगुरु को ही हम लोग,धर्म सिखाने लगेंगे तो इससे बड़ा अपमान तो धर्मगुरु का हो ही नहीं सकता | अगर आप लोगों को अपनी मनमानी करना है तो आप लोग अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र है | मैं स्वामी जी के समय ही यह घोषणा कर चुका था कि स्वामी जी के महाप्रयाण के बाद मैं आश्रम से कोई सम्बन्ध नहीं रक्खूँगा,अगर आप लोग चाहते हैं कि मैं षोडसी, भंडारे,यहाँ तक कि जलसमाधि में भी शामिल न होऊं तो मैं घर जा रहा हूँ, आप लोग जैसा उचित समझे, वैसा करें | मेरे क्रोध करने पर स्वामी भास्करानंद जी ने कहा कि अभी तो स्वामी जी का शरीर पड़ा हुआ है, इस समय यह विवाद उचित नहीं है | कल जल समाधि के बाद इस पर चर्चा करना उचित होगा | मैंने उनके आदेश को शिरोधार्य करते हुए अपने को शांत किया और कल दी जाने वाली जलसमाधि की व्यवस्था में लग गया | दूसरे दिन स्वामी जी की जलसमाधि बड़े ही धूमधाम के साथ, शंकराचार्य जी की उपस्थिति एवं निर्देशन में सकुशल संपन्न हो गयी | शंकराचार्य जी अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में शामिल होने के लिए ४ घंटे विलम्ब से, संगम तट से ही रवाना हो गए, मैं आश्रम आया और सभी शिष्यों को प्रसाद देकर विदा किया | स्वामी भास्करानंद जी ने यह जानकारी दी कि वह कल शंकराचार्य जी के पास गए थे और उन्होंने कुछ शिष्यों द्वारा १६ दिनों यानि कि २३ तारीख को षोडसी करने कि इच्छा की जानकारी शंकराचार्य जी को दी थी जिसपर शंकराचार्य जी ने यह कहा कि भक्तों को अपने मन की करना है तो वह अपने हिसाब से करें, फिर मैं अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के हिसाब से प्रात: ६ बजे निकल जाता हूँ, भक्त लोग अपने हिसाब से जल समाधि भी दे लें | भास्करानंद जी ने बताया कि स्वामी जी उनके अनुरोध पर ६ बजे के बजाय १० बजे जाने के लिए राजी तो हो गए थे  पर उपरोक्त कथन से उनकी नाराजिगी प्रगट हो रही थी  और इससे स्वामी जी की आत्मा को कष्ट होगा | मैं उनसे यह कहकर कि मैं स्वामी जी के दिए गए निर्देश के अनुसार जो शंकराचार्य जी आदेश करेंगे,उसी का पालन करूंगा, शाम को घर चला | मुझे अपने मेहमानों को, जो स्वामी जी की जल समाधि पर अंतिम दर्शन के लिए आये थे,क्रमश: विदा करना था कि तभी आचार्य श्री छोटेलाल जी का फ़ोन आ गया कि उनके पास तीन व्यक्ति आये थे जो कि अपने को राजकीय उच्च अधिकारी बता रहे थे और अपने को स्वामी जी का शिष्य बता रहे थे | वे लोग २३ तारीख को षोडसी करना चाहते है  | इसके लिए वह शंकराचार्य जी की सहमति चाहते है | मैंने उन्हें ६ बजे आश्रम में बुलाया है, आप भी आ जाइये तो वहीँ सबसे बातचीत करके तब शंकराचार्य जी से फ़ोन में बात कर ली जाएगी | मैंने उन्हें बताया कि मुझे अपने मेहमानों को विदा करना है, अत: शाम को मेरा आना संभव नही हो सकेगा | जब श्री छोटेलाल जी ने मेरी राय पूंछी तो मैंने कहा कि शंकराचार्य जी १७ को वापिस आ रहे हैं | उनके वापिस आने पर जैसा शंकराचार्य जी का आदेश होगा वैसे कर लिया जाएगा | यह लोग शाम को आश्रम नहीं पहुंचे | सुबह उनमे से एक सज्जन का फ़ोन आया कि वे लोग आश्रम में है, मैं भी आश्रम पहुँच जाऊँ | मैंने उस समय आश्रम पहुचंने में अपनी असमर्थता व्यक्त की और उनसे बताया कि मेरी श्री छोटेलाल जी से बात हो गयी है | १७ को शंकराचार्य जी के वापिस आने पर उनका जैसा निर्देश होगा वैसा कर लिया जायेगा | उन्होंने मेरी बात से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यही ठीक रहेगा | इसके बाद मुझे जानकारी मिली कि उन्होंने श्री छोटेलाल जी के माध्यम से शंकराचार्य जी से फ़ोन पर बात कर ली है | फिर कुछ लोगो ने मुझे फ़ोन करके बताया कि वे लोग अन्य लोगो से फ़ोन करके या मिलकर ५००० रूपये की सहयोग राशि मांग रहे है और यह कह रहे हैं कि १० लोगो से यह सहयोग राशि लेकर स्वामी जी कि षोडसी २३ को कि जायेगी | मुझे इस बात से अत्याधिक दुःख हुआ | इन तीनो में से कोई भी ऐसा नहीं था जो अकेले ही षोडसी न कर सके | स्वामी जी ने अपने पूरे जीवन में  कभी किसी से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं की थी | लोग पैसा लेकर आते थे और आश्रम में भंडारा करना चाहते थे पर स्वामी जी, पात्रता देखकर ही उसका प्रस्ताव स्वीकार करते थे | एक नगरसेठ को मेरे सामने वे मना कर चुके थे | स्वामी जी के कई बार इलाज के भुगतान के समय, इन्ही लोगो ने, भुगतान में सहयोग करना चाहा तो स्वामी जी ने इशारे से मुझे भुगतान करने के लिए निर्देशित किया | उन्होंने मेरी माता जी की ही तरह मुझे ही यह सेवा प्रदान की | यह प्रभु की मेरे उपर अतिशय कृपा का प्रतीक है | मैं प्रभु की इस कृपा से इतना अभिभूत हूँ कि उस अकारण करुणावरलाणय ने मुझे इस लायक समझा | एक निस्पृह कर्मयोगी की षोडसी चंदे से की जा रही है, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है ? जिस नगरसेठ को स्वामी जी ने कभी पसंद नहीं किया वह उनके षोडसी में सन्यासियों को देने के लिए वस्त्र ला रहा है | धन्य है स्वामी जी के यह तथाकथित भक्त | प्रभु इन्हें सद्बुद्धि और सद्गति प्रदान करे | यह तीनो दो दिन बाद मेरे घर,२३ तारीख के कार्यक्रम में शामिल होने के लिए, कहने के लिए, आये थे | मैंने १७ को शंकराचार्य जी के वापिस आने पर, उनसे दिशा निर्देश प्राप्त कर, वैसा ही करने का अपना निश्चय उन्हें बता दिया था | मेरे यह सब लिखने का उद्देश्य किसी को आहत करना नहीं है | स्वामी जी जब तक थे मैं उनसे अपने मन की व्यथा कहकर उनसे दिशानिर्देश प्राप्त कर,हल्का हो जाता था | उनके जाने के बाद मैंने अपने को अपने ही कमरे में बंद कर लिया है और अपने मन को हल्का करने के लिए यह सब लिख रहा हूँ | इस प्रकरण में दो बातें छूट गयीं हैं | एक तो यह कि स्वामी जी का मन और मस्तिष्क अंतिम स्वांस तक स्वस्थ एवं प्रसन्न रहा और दूसरी बात यह कि स्वामी जी की शोभा यात्रा में एक नंदी, आगे-आगे संगम तक नेतृत्व करता रहा | स्वामी जी शंकर स्वरुप थे अत: नंदी महाराज को तो अगवानी करनी ही थी | शेष प्रभु कृपा |

मेरे पिता मेरे गुरु |

जैसा कि मैं अपने पूर्व के ब्लॉगों में लिख चुका हूँ कि मेरे जीवन में पिता के स्नेह का अभाव रहा है | मैं जब ६ माह का था तभी इस संसार में मुझे लाने वाले मेरे पिता गोलोकवासी हो गये थे | मेरी स्मृतियों में केवल उनका चेहरा ही शेष है | वह भी इसलिये कि माताजी के पूजा के स्थान में अन्य देवताओं की मूर्तियों के साथ, उनके चित्र की भी पूजा माता जी नित्य किया करती थी | यह चित्र प्रयाग में, खुसरोबाग के पास के किसी स्टूडियो में खिचवाया गया था | माता जी बताती थी कि मेरे पिता जितने शारीरिक रूप से ख़ूबसूरत थे, उतना ही पवित्र उनका मन भी था | माता जी बताती थी कि खूबसूरती में मेरे सबसे बड़े भाई ही उनके आस-पास ठहरते हैं | मैं अपने शारीरिक पिता के ऋण से कभी भी उरिण नहीं हो सकता क्योंकि वह अगर मुझे इस संसार में न लाये होते तो पता नहीं मैं किस योनि में भटक रहा होता | पिता द्वारा खून में मिले और माता के भौतिक रूप से दिये संस्कारों का ही प्रतिफल है कि जिन्होंने मुझे जीवन में, बहुत कष्ट दिये हैं, उनके प्रति भी,उनके अमंगल की कामना तो दूर, कल्पना भी नहीं की ही | इसे मेरी आत्मश्लाघा मत समझियेगा, क्योंकि हर  व्यक्ति अपने बारे में जितना जानता है, दूसरे केवल उसकी कल्पना मात्र कर सकते हैं |
                                                  पिता के गोलोक गमन के समय मेरे सबसे बड़े भाई की उम्र १२ वर्ष थी | मेरी माँ ने कलेजे पर पत्थर रखकर,एक वर्ष के अंदर ही बड़े भाई का विवाह कर दिया, जिससे उनके कोई पर्व छूटने न पायें | पिता के जाने के बाद, जिन्हें परिवार के छोटे सदस्य पिताजी ही कहने लगे थे, ऐसे मेरे बड़े भाई  ने अपनी कम वय के बावजूद,जिस कुशलता से परिवार के संरक्षक का उत्तरदायित्व सम्हाल लिया, वह अन्य के लिये स्प्रहा का कारण हो सकता है |  सबसे पहिले मेरी रुचियों का सबसे ज्यादा ख्याल रखने वाले, उपर से दूसरे क्रम के भाई, गोलोक वासी हुए | इस सदमे से अभी उबर भी नहीं पाया था, मेरी वह माँ भी, जो मेरे लिये ऐसी ज्योतिपुंज थी, जिसके दिव्य आलोक के कारण, मेरे जीवन में तम का अभी तक प्रवेश भी नहीं हो पाया, पितृ लोक गमन कर गयी और इसके बाद मेरे वह बड़े भइया भी, जिन्होंने मुझे कभी भी पिता का अभाव महसूस नहीं होने दिया था, हमेशा के लिये गोलोक गमन कर गये | एक के बाद एक मिले इन झटको ने मुझे बुरी तरह तोड़कर रख दिया |
                                                  मैं पूरी तरह बिखर चुका था कि तभी मेरे जीवन में, मेरे प्रभु ने, जो कि अकारण करुणा वरुलाणय हैं , मेरी स्थिति पर करुणा करके, मेरे जीवन में गुरुरुपी पिता का अवतरण करा दिया | मैं धन्य हो गया | वे गुरु के रूप में जितने कठोर थे, पिता के रूप में उतने ही कोमल | मुझे एक घटना याद आ रही हैं | मैंने आदरणीय अमृतलाल नागर का उपन्यास "मानस के राजहंस" उसी समय पढ़ा था, आश्रम में प्रात: के समय, कुछ सेवा निवृत अधिकारी आया करते थे | वे लोग कुछ भजन सुनाया करते थे और स्वामी जी से अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करते थे | पहिले तो उनका आगमन, स्वामी जी की साधुता, विद्वता की परीक्षा लेने और अपने को धार्मिक सिद्ध करने के हेतु होता था, पर धीरे-धीरे उनके इस भाव में क्रमश: परिवर्तन होता गया | मेरा  और इन लोगो का आश्रम में आगमन लगभग एक ही समय में प्रारंभ हुआ था | मुझे से भी यह लोग कुछ कहने का आग्रह करते थे | मैं गुरु के समक्ष शिष्य को अनावश्यक नहीं बोलना चाहिए,इस बात को ध्यान में रखते हुए, ज्यादातर चुप ही रहता था, पर उस दिन चूँकि उपरोक्त उपन्यास के ताजा-ताजा पढ़े होने के कारण, अपने को बोलने से रोक नहीं पाया | मैंने उपन्यास के उस अंश को जिसमें, काशी में तुलसी और रत्नावली की भेंट का वर्णन किया गया है, का उल्लेख करते हुए, अपनी कल्पना को भी जोड़ दिया | स्वामी जी ने मेरे कथन के पूरे होने का भी इंतजार नहीं किया और एकदम नाराज हो गए | इसके पहिले मैंने कभी इतना नाराज होते नहीं देखा था | वे बोले," तुम तुलसी जैसे महापुरुषों का चरित्र चित्रण कल्पना के आधार पर करोगे |"मुझे अपनी भूल का तत्काल आभास हो गया और मैंने उनसे अपने अपराध की क्षमा मांगी | मेरे गुरु ने इस तरह  भविष्य में होने वाले मेरे अपराधों से मुझे बचा लिया और मुझे बोलने की वासना से भी मुक्त कर दिया |ऐसे थे मेरे मेरे पिता मेरे गुरु | 
                            शेष प्रभु कृपा |

Wednesday 11 January 2012

श्राव्या विक्रांत की प्रथम वर्षगांठ पर

आज वर्षों बाद
मैंने उठायी है कलम
उस पीढ़ी के लिए
जो जब जवान होगी
बह चुका होगा
गंगा में, जाने कितना पानी
तोड़ चुके होंगे दम
जाने कितने सामाजिक मूल्य
बदल चुकी होगी
रिश्तों की भाषा
खत्म हो चुकी होगी
नैतिकता की आशा
तुम्हारा ठुमुक-ठुमुक कर चलना
और लक्ष्य तक पहुँच जाने पर
घूम-घूम कर
ताली बजाकर खिलखिलाना
निर्मल हंसी से पूरे घर को गुंजाना
बेहद चमकीली आँखों के आलोक से
सामने वाले को चौंधियाना
और-और-और
पवित्र कर देने वाली
निश्छल चंचलता
बदल चुकी होगी
एक अयाचित गाम्भीर्य में
महानगर की जन संकुलता
बेताब होगी छीन लेने के लिए
तुमसे
तुम्हारी निजता
भौतिक उपलब्धियों की अंधी दौड़ में
पिछड़ जाने का भय
आतुर होगा
छीन लेने के लिए
तुम्हारी खिलखिलाहट
तुम्हारी निश्छल चंचलता
हवा में घुली जहरीली किरकिराहट
छीन लेना चाहेगी
तुम्हारे पवित्र आँखों के आलोक को
तब-तब-तब
मेरे स्वप्नों को साकार करने के लिए
इस धरती पर अवतरित हुई
मेरी राजकुमारी
याद करना
रक्त में मिले संस्कारों को
अपनी सामाजिक परम्पराओं को
उन महानायकों को
जिन्होंने
मूल्यों की रक्षा के लिए
जीवन भर कंटकों में चलकर
अपनी मुस्कराहट से,खिलखिलाहट से
मानवता को नये आयाम दिये हैं
याद करना
उस भरत को
जिसने राजसत्ता को बना दिया था
फुटबाल
जिसने पधराया था सिंघासन पर
अपने बड़े  भाई की पादुकाएं
याद करना उस राजा राम को
जिसने खाये थे
शूद्रा सबरी के जूठे बेर
जिसने पक्षियों में भी सबसे अधम पक्षी
गीधराज जटायु को दिया था अपने पिता का सम्मान
कम हो गया था उनका दुःख
पिता को मुखाग्नि न दे पाने का
जटायु का अंतिम संस्कार करके
राजा राम जिन्होंने बनाया था
समाज के सबसे पिछड़े,दलित,अधम प्राणियों को
अपना सुह्रद
जामवंत,सुग्रीव,अंगद और हनुमान
अंदर तक भीग गये थे
अकारण करुणावरुणालय के
इस अप्रतिम प्रेम से
राम
जिन्होंने दी थी धर्म की एक अभिनव व्याख्या
"परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई"
इन पंक्तियों को कंठस्थ कर लेना मेरी दुलारी
इन पंक्तियों को जीवन में उतार लेना मेरी राजकुमारी
तुम देखना
हाँ तुम देखना
मेरी रानी
समय के झंझावात
नहीं बुझा पायेगें
तुम्हारी अन्तरज्योति को
और तुम भरती रहोगी
क्षमा,दया और सहनशीलता की
प्रतिमूर्ति धरती माँ की पुत्री
जगतजननी सीता की तरह
अपने आलोक से पूरे विश्व को
अपनी शुचिता से पवित्र करती रहोगी
पूरी मानवता को
आज तुम्हारे जन्म दिन पर
यही मेरा आशीष है
मेरी बच्ची