Thursday 21 June 2012

सो माया बस भयो गोसाईं, बंध्यो कीर मरकट की नाईं

                                                          जब भी किसी उम्रदराज व्यक्ति से मुलाकात होती है तो हर बुजुर्ग आदमी की यही शिकायत होती है कि वह अब सब कुछ छोड़कर भगवान का भजन करना चाहता है, पर वह करे तो क्या करे ? यह संसार उसे छोड़ता ही नहीं है । जब वह  यह कहता है तो मुझे मानस की यही पंक्ति,"सो माया बस भयो  गोसाईं, बंध्यों कीर मरकट की नाईं ।" याद आ जाती है । हम सभी मानवों की यही हालत है ।
                                                          जब जीव इस धरती पर आता है तो वह आकाश से गिरने वाली पानी की बूंद की तरह पवित्र,निर्मल और स्वच्छ होता है पर जैसे ही यह पवित्र बूंद धरती का स्पर्श करती है, मटमैली हो जाती है । उसी प्रकार यह जीव भी जैसे ही धरती का स्पर्श करता है, माया आकर उससे लिपट जाती है,"भूमि परत भा ढाबर पानी,जिम जीवहिं माया लिपटानी" और फिर यह माया जीव से पूरे जीवन भर किसी न किसी रूप में लिपटी ही रहती है । कभी माँ-बाप के रूप में, कभी प्रेमी -प्रेमिका के रूप में, कभी पत्नी और बच्चों के रूप में, कभी सुन्दरता के रूप में,कभी ज्ञान और पद के अहंकार के रूप में,कभी दानी और त्यागी के रूप में,कभी साधू और सन्यासी होने के अहंकार के रूप, यानि यह माया किसी न किसी रूप में जीव से लिपटी ही रहती है ।
                                                             जीव नित्य मुक्त है । पर माया के आवरण के कारण वह अपने को कीर और मरकट की तरह यह मानता है कि संसार उसे पकडे हुए है । जब कि वास्तिविकता यही है कि संसार उसे नहीं पकड़े,वही संसार को पकड़े हुए है । शिकारी तोते{कीर}को पकड़ने के लिए एक रस्सी के ऊपर पोपली [पोला बांस] चढ़ा देता है और नीचे तोते का प्रिय खाद्य मिर्च डाल  देता है । तोता जैसे ही मिर्च के खाने के लालच में पोपली के ऊपर बैठता है, पोपली पलट जाती है और तोता सिर के बल नीचे लटक जाता है । तोता यह समझता है कि पोपली ने उसे पकड़ लिया है, जब कि वास्तविकता यह है कि वह पोपली को पकड़े हुए है । वह पोपली को छोड़ दे तो वह नित्य मुक्त है पर वह माया के आवरण के कारण पोपली को छोड़ नहीं पाता और यह काल रूपी शिकारी उसे पकड़ कर अपने साथ ले जाता है ।
                                                               ठीक यही स्थिति मरकट [बंदर] की होती है । शिकारी उसको पकड़ने के लिए, एक सकरे मुंह का घड़ा[सुराही], जमीन में गाड़ देता है और उस घड़े में बंदर का प्रिय खाद्य [चने] डाल देता है ।बंदर चने के लालच में घड़े में हाथ डालकर, चने अपनी मुट्टी में भर लेता है । अब मुट्टी सुराही  का मुहं सकरा होने के कारण, निकल नहीं पाती तो वह समझता है कि घड़े ने उसे पकड़ लिया है और तभी काल रूपी शिकारी आकर उसे पकड़ लेता है । यदि बंदर चनों का लालच छोड़ कर  मुट्टी खोल दे तो वह जीव की तरह नित्य मुक्त तो है ही ।
                                                                इसी माया के आवरण के कारण जीव समझता है कि संसार उसे पकडे हुए है, जबकि वास्तविकता यही है कि जीव संसार को पकडे हुए है । जीव पुरुषार्थ के द्वारा इस माया के पार नहीं जा सकता । इसके लिये उसे प्रभु की शरणागति स्वीकार करनी पड़ेगी, तभी वह इस माया के आवरण को भेदने में समर्थ हो सकेगा । भगवान गीता में स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं,"मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते" पर हम भगवान को तो मानते है पर भगवान की कही बात पर विश्वास नहीं करते । यही हमारे दुःख का कारण है । इसके लिए हम ही दोषी हैं, कोई दूसरा नहीं ।

                                                                 शेष प्रभु कृपा ।


Monday 18 June 2012

ईश्वर अंश जीव अविनाशी

" ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन,अमल,सहज सुख राशी |" यह जीव ब्रह्म की ही तरह अविनाशी है | इसका कभी भी नाश नहीं होता | नाश शरीर का होता है आत्मा का नहीं | "वासांसि जीरणानि   यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नारोपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्ण|न्यन्यानि  संयाति नवानि देहि |" जिस प्रकार नर, वस्त्र पुराने हो जाने पर, नए वस्त्र ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार जीव, शरीर पुराना हो जाने पर, नया शरीर ग्रहण कर लेता है | इसी तरह जैसे ब्रह्म शाश्वत है,उसी तरह जीव भी शाश्वत है | जन्म शरीर का होता है,नाश शरीर का होता है,जीव का नहीं,"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: | अजो नित्य: शाश्वतोयम पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे |"  इसलिए जिस तरह ब्रह्म का कभी भी नाश नहीं होता, उसी प्रकार जीव का भी कभी नाश नहीं होता |
                                                                               जिस प्रकार से ईश्वर या ब्रह्म चेतन है उसी प्रकार जीव भी चेतन है | जीव के चेतन होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि शरीर से जीव के निकल जाने के बाद, शरीर जड़ हो जाता है | इसका अर्थ यही हुआ कि शरीर में जो चेतनता थी, उसका कारण जीव था | जिस तरह से सारी प्रकृति जड़ है | इस जड़ प्रकृति को चेतनता प्रदान करती है,ब्रह्म की उपस्थिति | ब्रह्म के प्रकाश से ही, प्रकृति प्रतिभासित होती है,उसी प्रकार जीव की उपस्थिति ही जड़ शरीर को प्रतिभासित करती है |
                             
                                                  जिस प्रकार ब्रह्म अमल है | यानि मल रहित या विकार रहित है | उसी प्रकार जीव भी अमल है,यानि मल या विकार रहित है | जीव जब ब्रह्म से उसके अंश के रूप में धरती पर आता है तो वह अपने मूल की ही तरह अमल एवं विकार रहित होता है | जिस तरह पानी की बूंद जब बादल से अलग होती है तो वह एकदम शुद्ध होती है पर धरती का स्पर्श होते ही वह मटमैली हो जाती है उसी प्रकार जीव के  भी धरती पर आते ही, माया उससे लिपट जाती है | " भूमि परत भा ढाबर पानी. जिम जीवहि माया लिपटानी |"
                                                                                 जिस प्रकार ब्रह्म सहज है उसी प्रकार जीव भी सहज है | जीव में असहजता आती है माया के कारण | माया का विस्तार इतना व्यापक है कि उससे पार पाना जीव के लिए पुरुषार्थ के द्वारा संभव नहीं है, इसके लिए जीव को प्रभु के शरण में जाना ही पड़ेगा, "मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते"  
                                                                                 जिस प्रकार ब्रह्म  सुख की राशि है, उसी प्रकार जीव भी सुख की राशि है | ब्रह्म को वेदों ने "रसो वै स:" यानि ईश्वर या ब्रह्म, रस यानि आनंद का ही स्वरुप है | ईश्वर को सुख का सागर कहा गया है और इसी सुख के सागर से ही हमारी उत्पत्ति हुई है | जिस वस्तु की उत्पत्ति जहाँ से होती है, उसे अपने उद्गम स्थल से मिलकर अपार सुख का अनुभव होता है | दीपक की लव में प्रकाश सूरज का ही अंश है, इसलिए दीपक की लव उर्ध्वमुखी होती है,अपने उद्गमस्थल सूर्य से मिलने के लिए आतुर, क्योंकि उससे मिलकर अपने अस्तित्व का तिरोहण करने में ही उसे सुख की अनुभूति होती है | इसी प्रकार जल की उत्पत्ति सागर से होती है अत: जल के हर बूंद की यही कामना होती है कि वह सागर में मिलकर अपने अस्तित्व की समाप्ति कर दे क्योंकि इसी में उसे सुख की अनुभूति होती है |
                                                                                   यह विषय इतना व्यापक है कि वेदों ने भी नेति-नेति कहकर अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी है, अत: मैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर कुछ बातें आपसे कहकर अपनी बात समाप्त  करता हूँ | जैसा कि उपरोक्त से यह स्पष्ट हो गया है कि हम उस ईश्वर के अंश के रूप में इस धरती पर आये हैं जो चेतन है,अमल है,सहज है और सुख की राशि है | पर धरती पर आते ही माया के वशीभूत होकर हम संसार में सुख की तलाश कर रहे हैं | हर जीव संसार में जो भी कर रहा है वह कर सुख के लिए ही रहा है | आप मकान बनवाते हो यह मानकर की यह आपको सुख देगा | आप धन इकट्टा करते हो यह सोचकर कि यह आपको सुख देगा | आप शादी करते हो यह मानकर कि पत्नी आपको सुख देगी | आप बच्चे पैदा करते हो यह मानकर कि यह आपको सुख देंगे | आप दान करते हो यह सोचकर कि इससे आपको यश मिलेगा, समाज आपको सम्मान देगा और उसमे आपको सुख मिलेगा | आप शराब भी पीते हो तो इसीलिए कि उसमे आपको सुख मिलता है | यह सब हम जो भी संसार में करते है वह सुख के लिए ही करते है क्योंकि सुखसागर से हमारी उत्पत्ति हुई है | हम भी सुख स्वरुप है | पर मेरे मित्रो यह सारा का सारा सांसारिक सुख ह्रास्य्मान है | इसके प्राप्त होते ही इसका क्षरण शुरू हो जाता है | एक उपनिषद् कहता है कि सारे संसार का राज्य,सारे संसार का वैभव, सारे संसार का सौंदर्य,सारे संसार का ज्ञान भी अगर प्राप्त हो जाये तो" तत: किम" | इस" तत: किम " में ही आपके समस्त प्रश्नों के उत्तर निहित है | आप के अंदर जिस दिन यह जिज्ञासा जग जाएगी कि "को अहम" उस दिन आप अपने उद्गमस्थल,सुखसागर की तलाश में निकल पड़ोगे और इसमें मिलने वाला सुख निरंतर वर्धमान होगा | इस यात्रा का समापन मूल उद्गमस्थल जो सुख का सागर है में अपने अस्तित्व के पूर्ण समर्पण से होगा और तब जीव कह उठेगा "सो अहम" |
                                                                                   आइये हम सब इस यात्रा का शुभारम्भ करें, भले ही हम इस जन्म में वहां तक न पहुँच पाए,पर कुछ कदम तो उस दिशा में चल ही लेंगे | अगले जन्म में यह कुछ कदम मंजिल की दूरी को कम करने में तो सहायक होंगे ही, क्योंकि भगवान गीता में स्पष्ट रूप से घोषणा कर रहे है,"नेहाभिक्रमनासोअस्ति प्रत्यवायो न विद्यते,स्वल्म अप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात" या "शुचीनाम श्रीमताम गेहे योग भ्रष्टो अभिजायते"
                                                                                    शेष प्रभु कृपा |

फादर्स डे पर

मुझे नहीं है याद अपने पिता की
क्योंकि जब उन्होंने शरीर छोड़ा था
तब मैं मात्र 6 माह का था  ।
माँ के पूजा भवन में रक्खी
उनकी एकमात्र फोटो ही
मेरी स्मृतियों में जीवित है ।

और जीवित है
माँ के द्वारा पिता के विषय में दी गयी जानकारी
कि वह इतने खूबसूरत थे कि शादी में उनके दूलह रूप को देखने के लिए
उमड़ आया था पूरा गाँव
कि मेरे पिता जितने शरीर से खूबसूरत थे
उससे भी ज्यादा खुबसूरत था
उनका मन ।
मैं आभारी हूँ
मैं अपने उस पिता का
जो मुझे इस धरती पर लाये थे ।
रक्त में मिले संस्कारों के लिए
मैं
कभी भी ऋण मुक्त नहीं हो सकता ।
पिता के जाने के बाद
मेरे सबसे बड़े भाई
जिनकी उम्र उस समय 12 वर्ष की थी
ने
कभी भी नहीं महसूस होने दिया
पिता का अभाव ।
माँ और बड़े भाई के रहते
मैंने कभी भी नहीं महसूस किया
अपने को अनाथ ।
हाँ
पहिले माँ और फिर बड़े भाई के जाने के बाद
मैंने पहिली बार महसूस किया था
अपने को अनाथ ।
इतना बड़ा शून्य मेरी जिन्दगी में आ गया था
कि जीवन निरर्थक लगने लगा था ।
पर तभी मेरे अकारण करुणा वरुणालय प्रभु
ने
मेरे जीवन के उत्तरार्ध में
भेज दिया गुरु के रूप में
मेरे उस पिता को जो मुझे 6 माह की उम्र में
छोडकर चले गये थे ।
मेरे प्रभु ने
ब्याज के साथ लौटाया था मेरे पिता को ।
जीवन भर पिता के वात्सल्य के लिये
तरसा मेरा मन
आप्लावित हो गया था
गुरु रूपी पिता के
अकथनीय,अतुलनीय
उस अनुराग से
जिसमें
पुत्र की गलतियों को
क्षमा करते हुए
वात्सल्य की कभी न खत्म होने वाली  शीतल वर्षा थी ।
और थी अपने शिष्य को
जीवन की सार्थकता का बोध करा देने की
आकुलता और व्याकुलता ।
जीवन के यह 8 वर्ष
यदि मेरे जीवन से निकाल दिए जाये
तो शेष शून्य ही बचेगा ।
अब
उनके जाने के बाद
अपने प्रभु से
समय-समय पर
पूंछता रहता हूँ
कि जब उनसे बिछड़ना ही मेरा प्रारब्ध था
तो उनसे मिलवाया ही क्यों था ?
                                                                                                             शेष प्रभु कृपा ।