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ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन,अमल,सहज सुख राशी |" यह जीव ब्रह्म की ही तरह
अविनाशी है | इसका कभी भी नाश नहीं होता | नाश शरीर का होता है आत्मा का
नहीं | "वासांसि जीरणानि यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नारोपराणि | तथा
शरीराणि विहाय जीर्ण|न्यन्यानि संयाति नवानि देहि |" जिस प्रकार नर,
वस्त्र पुराने हो जाने पर, नए वस्त्र ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार जीव,
शरीर पुराना हो जाने पर, नया शरीर ग्रहण कर लेता है | इसी तरह जैसे ब्रह्म
शाश्वत है,उसी तरह जीव भी शाश्वत है | जन्म शरीर का होता है,नाश शरीर का
होता है,जीव का नहीं,"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न
भूय: | अजो नित्य: शाश्वतोयम पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे |" इसलिए जिस
तरह ब्रह्म का कभी भी नाश नहीं होता, उसी प्रकार जीव का भी कभी नाश नहीं
होता |
जिस प्रकार से ईश्वर या ब्रह्म चेतन है उसी प्रकार जीव भी चेतन है | जीव के चेतन होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि शरीर से जीव के निकल जाने के बाद, शरीर जड़ हो जाता है | इसका अर्थ यही हुआ कि शरीर में जो चेतनता थी, उसका कारण जीव था | जिस तरह से सारी प्रकृति जड़ है | इस जड़ प्रकृति को चेतनता प्रदान करती है,ब्रह्म की उपस्थिति | ब्रह्म के प्रकाश से ही, प्रकृति प्रतिभासित होती है,उसी प्रकार जीव की उपस्थिति ही जड़ शरीर को प्रतिभासित करती है |
जिस प्रकार ब्रह्म अमल है | यानि मल रहित या विकार रहित है | उसी प्रकार
जीव भी अमल है,यानि मल या विकार रहित है | जीव जब ब्रह्म से उसके अंश के
रूप में धरती पर आता है तो वह अपने मूल की ही तरह अमल एवं विकार रहित होता
है | जिस तरह पानी की बूंद जब बादल से अलग होती है तो वह एकदम शुद्ध होती
है पर धरती का स्पर्श होते ही वह मटमैली हो जाती है उसी प्रकार जीव के भी
धरती पर आते ही, माया उससे लिपट जाती है | " भूमि परत भा ढाबर पानी. जिम
जीवहि माया लिपटानी |"
जिस प्रकार ब्रह्म सहज है उसी प्रकार जीव भी सहज है | जीव में असहजता आती
है माया के कारण | माया का विस्तार इतना व्यापक है कि उससे पार पाना जीव के
लिए पुरुषार्थ के द्वारा संभव नहीं है, इसके लिए जीव को प्रभु के शरण में
जाना ही पड़ेगा, "मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते"
जिस प्रकार ब्रह्म सुख की राशि है, उसी प्रकार जीव भी सुख की राशि है |
ब्रह्म को वेदों ने "रसो वै स:" यानि ईश्वर या ब्रह्म, रस यानि आनंद का ही
स्वरुप है | ईश्वर को सुख का सागर कहा गया है और इसी सुख के सागर से ही
हमारी उत्पत्ति हुई है | जिस वस्तु की उत्पत्ति जहाँ से होती है, उसे अपने
उद्गम स्थल से मिलकर अपार सुख का अनुभव होता है | दीपक की लव में प्रकाश
सूरज का ही अंश है, इसलिए दीपक की लव उर्ध्वमुखी होती है,अपने उद्गमस्थल
सूर्य से मिलने के लिए आतुर, क्योंकि उससे मिलकर अपने अस्तित्व का तिरोहण
करने में ही उसे सुख की अनुभूति होती है | इसी प्रकार जल की उत्पत्ति सागर
से होती है अत: जल के हर बूंद की यही कामना होती है कि वह सागर में मिलकर
अपने अस्तित्व की समाप्ति कर दे क्योंकि इसी में उसे सुख की अनुभूति होती
है |
यह विषय इतना व्यापक है कि वेदों ने भी नेति-नेति कहकर अपनी असमर्थता
व्यक्त कर दी है, अत: मैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर कुछ बातें आपसे
कहकर अपनी बात समाप्त करता हूँ | जैसा कि उपरोक्त से यह स्पष्ट हो गया है
कि हम उस ईश्वर के अंश के रूप में इस धरती पर आये हैं जो चेतन है,अमल
है,सहज है और सुख की राशि है | पर धरती पर आते ही माया के वशीभूत होकर हम
संसार में सुख की तलाश कर रहे हैं | हर जीव संसार में जो भी कर रहा है वह
कर सुख के लिए ही रहा है | आप मकान बनवाते हो यह मानकर की यह आपको सुख देगा
| आप धन इकट्टा करते हो यह सोचकर कि यह आपको सुख देगा | आप शादी करते हो
यह मानकर कि पत्नी आपको सुख देगी | आप बच्चे पैदा करते हो यह मानकर कि यह
आपको सुख देंगे | आप दान करते हो यह सोचकर कि इससे आपको यश मिलेगा, समाज
आपको सम्मान देगा और उसमे आपको सुख मिलेगा | आप शराब भी पीते हो तो इसीलिए
कि उसमे आपको सुख मिलता है | यह सब हम जो भी संसार में करते है वह सुख के
लिए ही करते है क्योंकि सुखसागर से हमारी उत्पत्ति हुई है | हम भी सुख
स्वरुप है | पर मेरे मित्रो यह सारा का सारा सांसारिक सुख ह्रास्य्मान है |
इसके प्राप्त होते ही इसका क्षरण शुरू हो जाता है | एक उपनिषद् कहता है कि
सारे संसार का राज्य,सारे संसार का वैभव, सारे संसार का सौंदर्य,सारे
संसार का ज्ञान भी अगर प्राप्त हो जाये तो" तत: किम" | इस" तत: किम " में
ही आपके समस्त प्रश्नों के उत्तर निहित है | आप के अंदर जिस दिन यह
जिज्ञासा जग जाएगी कि "को अहम" उस दिन आप अपने उद्गमस्थल,सुखसागर की तलाश
में निकल पड़ोगे और इसमें मिलने वाला सुख निरंतर वर्धमान होगा | इस यात्रा
का समापन मूल उद्गमस्थल जो सुख का सागर है में अपने अस्तित्व के पूर्ण
समर्पण से होगा और तब जीव कह उठेगा "सो अहम" |
आइये हम सब इस यात्रा का शुभारम्भ करें, भले ही हम इस जन्म में वहां तक न
पहुँच पाए,पर कुछ कदम तो उस दिशा में चल ही लेंगे | अगले जन्म में यह कुछ
कदम मंजिल की दूरी को कम करने में तो सहायक होंगे ही, क्योंकि भगवान गीता
में स्पष्ट रूप से घोषणा कर रहे है,"नेहाभिक्रमनासोअस्ति प्रत्यवायो न
विद्यते,स्वल्म अप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात" या "शुचीनाम श्रीमताम
गेहे योग भ्रष्टो अभिजायते"
शेष प्रभु कृपा |
जिस प्रकार से ईश्वर या ब्रह्म चेतन है उसी प्रकार जीव भी चेतन है | जीव के चेतन होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि शरीर से जीव के निकल जाने के बाद, शरीर जड़ हो जाता है | इसका अर्थ यही हुआ कि शरीर में जो चेतनता थी, उसका कारण जीव था | जिस तरह से सारी प्रकृति जड़ है | इस जड़ प्रकृति को चेतनता प्रदान करती है,ब्रह्म की उपस्थिति | ब्रह्म के प्रकाश से ही, प्रकृति प्रतिभासित होती है,उसी प्रकार जीव की उपस्थिति ही जड़ शरीर को प्रतिभासित करती है |
इश्वर से अलग होने के बाद जीव योनियो के चक्कर में केसे उलझता हे।। जानते हो तो बताओ
ReplyDeleteजैसे बहन के प्यार से अलग होने पर दूसरी लड़की से प्यार पाने की इच्छा में भटकने पर होता है
Deleteदेश और देह मे कोई फरक नहीं पहले अपने देह को ईश्वर ज्ञान से भरले आत्म साक्षात्कार मे ही हरेक मनुष्य का उध्धार है। जब जड देह मे मै चेतन की खबर मीलेगी हरेक मेरे हमारे व्यक्ति को तब ही संभव होगा यह नाम रुप जड शरीर इन्द्रिय मन के व्यभीचार से छूटने का तरीका और तभी जाग्रत होगा मनुष्य आत्मा राम स्वयं की बुद्धि से अव्यक्त स्व की पहचान होगी तभी हो जायेगा यह देश रुप देह समृध धन्यवाद। शुभ रात्री। ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुखराशी
ReplyDeleteदेश और देह मे कोई फरक नहीं पहले अपने देह को ईश्वर ज्ञान से भरले आत्म साक्षात्कार मे ही हरेक मनुष्य का उध्धार है। जब जड देह मे मै चेतन की खबर मीलेगी हरेक मेरे हमारे व्यक्ति को तब ही संभव होगा यह नाम रुप जड शरीर इन्द्रिय मन के व्यभीचार से छूटने का तरीका और तभी जाग्रत होगा मनुष्य आत्मा राम स्वयं की बुद्धि से अव्यक्त स्व की पहचान होगी तभी हो जायेगा यह देश रुप देह समृध धन्यवाद। शुभ रात्री। ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुखराशी
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