Friday 23 August 2013

आने वाले खतरे से अनजान पीढ़ी

                                                          कई महीनों  से मन न तो कुछ देखना चाहता है, न कुछ सुनना चाहता है और न ही कुछ लिखना चाहता है, न कुछ समझना चाहता है और न ही कुछ समझाना चाहता है । एक अजीब सा सूनापन, एक अजीब सी रिक्तता जीवन में आ गयी है । जीवन निरर्थक लगने लगा है । उद्देश्यहीन, उत्साहहीन जीवन अपनी नियति बनता जा रहा है । रामायण और गीता का पाठ जहाँ पहिले अन्दर तक सिक्त कर देता था वहाँ अब मात्र समय काटने का वाचिक उपक्रम मात्र बन कर रह गया है । पत्नी कभी-कभी हँसी में कह देती है कि स्वामीजी की बीमारी के समय बहुत शिकायत करते थे कि दो वर्षों से कहीं जा नहीं पाये । स्वामी जी ने तुम्हे अपने बंधन से मुक्त कर दिया, अब उनके जाने के बाद से लगातार घूम ही रहे हो, अब क्यों मन नहीं लगता ? जब कि वह जानती है कि इसका कारण स्वामीजी का विष्णुलोक गमन ही है | उसी की प्रेरणा से आज फिर से आपसे मुखातिब हूँ ।                                                                                                                                                               
                                                          मैं आधुनिकता का विरोधी नहीं हूँ और यदि विरोधी होऊं, तब भी समय को रोकना किसी के वश में नहीं है । हर आने वाली पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी से ज्यादा आधुनिक होती है । पीढ़ी बदलने के साथ सामाजिक तथा नैतिक मूल्य भी बदलते हैं, यह भी ध्रुव सत्य है ।                                                                                                      पुरानी पीढ़ी, नई पीढ़ी का विरोध करे, इसे भी मैं सही नहीं समझता । बेहतर यही होता है कि वह सामंजस्य स्थापित करे । हाँ इसके साथ-साथ मैं यह भी आवश्यक समझता हूँ कि जहाँ उसे लगे कि उसका चुप रहना, उसे अपनी ही नजर में गिराने लगा है तो उसे अपनी चुप्पी तोड़कर अपनी बात कह देना चाहिये नहीं तो वह स्वयं अपराधबोध से ग्रसित हो जायेगा । इसके साथ-साथ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि उसे अपने को मानसिक अवसाद से बचाने के लिये, अपनी बात को कहने का अधिकार तो है पर उस बात को मानने का आग्रह रखना, नए मानसिक अवसाद को निमंत्रित करना होगा, अत: इससे बचना चाहिये ।                                                                                                                                                                                                               हमारे शास्त्र, हमारा लोक साहित्य एवं पुरातन वांग्मय हमेशा से इस बात को कहता रहा है कि व्यक्ति जिस प्रकार का भोजन करेगा, जिस प्रकार का साहित्य पढ़ेगा, जिस प्रकार के दृश्य देखेगा, जिस प्रकार का संग करेगा, जिस प्रकार का चिंतन करेगा, वैसा ही उसका मन बनेगा । हमारी पौराणिक कथाएँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि जीव के संस्कारों का निर्माण माँ के गर्भ से ही प्रारंभ हो जाता है । 
                                                          अब इन्ही सब तथ्यों को आधुनिक विज्ञान भी पूरी तरह से प्रमाणित कर रहा है, फिर भी वर्तमान पीढ़ी इन तथ्यों से पूरी तरह आँख मूंदे हुए है । जो सोया हुआ हो,उसे तो जगाया जा सकता है पर जो सोने का नाटक कर रहा हो, उसे कौन जगा सकता है ? अपने को अत्याधुनिक प्रदर्शित करने के चक्कर में वह क्या खो रहे हैं ? जब तक इस तथ्य का साक्षात्कार उन्हें होगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी । फिर पछतावे के अलावा क्या बचेगा ?