Friday 18 May 2012

मेरे गुरु की अतीन्द्रिय शक्तियां

    आज से करीब ९ वर्षों पूर्व मैं अपने इस जीवन के गुरु के संपर्क में आया था | संपर्क में आने की घटना भी इस तरह घटी कि मैं कार्यालय से घर लौट रहा था, रास्ते में मेरे एक मित्र का ऑफिस पड़ता था | मैंने सोचा कि अगर वह घर चलना चाहे तो उन्हें भी लेता चलूँ | हम दोनों के घर पास-पास ही थे | यह घटना संभवत: अक्टूबर,२००३ की है | मुझे प्रयाग आये तीन महीने हो चुके थे | मैं मित्र के ऑफिस पहुंचा तो मित्र खाली थे, मैंने उनसे घर चलने के लिए पूंछा तो वे बोले कि बैठो और इनसे मिलो यह है श्री लक्ष्मीनारायण जी, यह भागवत बहुत अच्छी कहते हैं | मैंने कहा कि ऑफिस तो खाली है कुछ अपने मित्र से सुनवाइये | लक्ष्मीनारायण जी ने पूंछा कि क्या सुनेंगे ? मैंने कहा कि" गोपीगीत " सुनाइये तो उन्होंने कुछ श्लोक सुनाये, बहुत ही अच्छा लगा | मैंने उनसे कहा कि अब आगे कब शुभ अवसर प्राप्त होगा ? तो उन्होंने कहा कि वे जब भी प्रयाग आते हैं तो सुबह संगम स्नान के बाद ब्रह्मचर्य आश्रम में स्वामी जी के पास जरुर बैठते हैं वहां पंडित रामकृष्ण शास्त्री भी आते है जो कि आज के समय के मूर्धन्य विद्वानों में है | स्वामी जी के सानिध्य में सत्संग हो जाता है | अत: यदि मैं सत्संग का एवं एक अच्छे महात्मा के दर्शन का लाभ उठाना चाहता हूँ तो कल सुबह वही आ जाऊं |
                                                                      इस तरह मैं स्वामी जी के सम्पर्क में आया | उनसे मिलने के बाद मुझे लगा कि प्रभु ने मुझे अपने गुरु से भेंट कराने के लिए ही,  प्रयाग की पवित्र भूमि में भेजा है | शुरू  में स्वामी जी ज्यादा  देर आश्रम में बैठने नहीं देते थे | मेरे साथ ही नहीं, अन्य नवागुन्त्कों के साथ भी वह यही करते थे | मैं अपनी पत्नी को भी साथ ले जाने लगा था | एक दिन घर से निकलते समय पत्नी ने कहा कि पहिले संगम चलेंगे तब स्वामी जी के पास आयेंगे | मैंने कहा ठीक है, पर पता नहीं कैसे हुआ कि मेरे दिमाग से यह बात उतर गयी और मैं सीधे आश्रम पहुँच गया | आश्रम में बाइक खड़ा भी न कर पाया था कि स्वामी जी ने अंदर से आवाज दी कि पहिले हम संगम हो आये, संगम में प्रणाम करने के बाद ही आश्रम आयें | हम दोनों आश्चर्यचकित रह गए कि इन्हें कैसे मालूम हो गया कि हम घर से पहिले संगम जाने की सोंच कर ही चले थे | इसी तरह एक दिन और हुआ घर से सोचकर चले कि पहिले हनुमान जी को प्रणाम करके तब स्वामी जी के पास बैठेंगे, उस दिन भी जाते ही स्वामी जी ने पूंछा कि हनुमान जी को प्रणाम कर आये ? हमने कहा कि अभी नहीं तो वे बोले कि पहिले हम हनुमान जी को प्रणाम कर आये तब उनके पास आये |
                                                                       आश्रम आना जाना शुरू  हो गया था पर ज्यादा देर रुकने नहीं देते थे | एक दिन पत्नी ने कहा कि आज जाने को कहें तो तुम उठना नहीं | मैंने कहा कि कहीं नाराज हो गए तो पत्नी ने कहा ऐसा कुछ नहीं होगा | हम गए, जब थोड़ी देर हो गयी तो उन्होंने जाने का इशारा किया पर हम अनदेखी करके बैठे रहे तो उन्होंने मुखर होकर पूंछ लिया कि अब जाओगे नहीं | मैं कुछ कहता कि इससे पहिले ही पत्नी बोल पड़ी, अभी थोड़ी देर और बैठेंगे | स्वामी जी खुल कर हँसने लगे | इसके बाद हमारा रास्ता खुल गया और एक दिन वह भी आ गया कि जब स्वामी जी चाहते थे कि हम उनके पास हमेशा मौजूद रहें |
                                                                        यह भी शुरुवात  की ही बात है मैं देखता था कि कभी भी कोई भी अभ्यागत भिक्षा की आशा से आश्रम आता था तो स्वामी जी उसका हृदय से स्वागत करते | यदि कोई गेरुआ वस्त्र में होता तो उसे स्वयम खड़े होकर प्रसाद खिलवाते और जैसे ही वह महात्मा प्रसाद पा चुकते तो स्वामी जी उनके सामने हाथ जोडकर खड़े हो जाते और उनसे पूंछते कि महाराज जी आपने प्रसाद पा लिया ? उनके यह पूंछने का अर्थ ही यही होता था की प्रसाद पा लिए तो अब बैठे क्यों है ? अपने गंतव्य की और प्रस्थान कीजिये | मुझे यह बहुत अजीब सा लगता की स्वामी जी प्रसाद तो बहुत प्रेम से पवाते है पर प्रसाद पाने के बाद किसी को भी दो मिनट आश्रम में रुकने नहीं देते | उनके इस कृत्य का औचित्य मेरी समझ से बाहर था ? तभी एक दिन आश्रम में मेरे अलावा जब कोई नहीं था, स्वामी जी अचानक इस तरह बोलने लगे कि जैसे आत्मालाप कर रहे हों, भाई मैं जो मेरे आश्रम में प्रसाद पाने कि इच्छा  से आता है उसे मैं यह समझ कर प्रसाद पवाता  हूँ कि इसके अंदर बैठे मेरे प्रभु ही प्रसाद पा रहे है | प्रसाद पाने के बाद मैं उसे रुकने इसलिए नहीं देता कि वह या तो अपने गुरु भाईयों की बुराई करेगा या अपने आश्रम की बुराई करेगा, उसे इस अपराध से बचाने के लिए और मेरे अंदर उसके साधुवेश को देखकर जो श्रद्धा उत्पन्न हुई है वह नष्ट न हो, इसलिए मैं प्रसाद पाने के बाद उसे रुकने नहीं देता | जिनको मुझे जानकारी होती है कि यह सत्संग के लिए रुकना चाहते है, उनके प्रति मेरा व्यवहार अलग होता है | अब किसी को अच्छा लगे या बुरा जो मैं ठीक समझता हूँ, वह करता हूँ | मैं समझ गया कि यह मेरे मन में उठ रहे प्रश्न का समाधान किया गया है | इसके बाद कभी भी मैंने उनके किसी भी कृत्य का औचित्य तलाशने का प्रयास नहीं किया | गुरु वशिष्ठ के मन में पहिले भरतजी को लेकर शंका पैदा हुई पर बाद में गुरु वशिष्ठ को यह कहना पड़ा," समुझब कहब करब तुम्ह जोई, धरम सारु जग होइहि सोई ||"
                                                              स्वामी जी ने एक बार बताया  था कि वह १३ वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिए थे | शुरू में उन्हें तंत्र विद्या सीखने का शौक चढ़ा तो वह एक तांत्रिक के यहाँ जाना शुरू  ही किये थे कि तभी एक दण्डी सन्यासी ने उन्हें बुलाकर खूब डाटा और कहा कि तुम ब्राह्मण के घर में पैदा होकर यह निकृष्ट विद्या सीखना चाहते हो? तुम भगवान की सात्विक भक्ति करो वही तुम्हारे लिए कल्याणकारी होगी | स्वामी जी इसके बाद कभी भी तांत्रिक के यहाँ नहीं गए | पर जो वह कुछ दिन गए थे, उसका ज्ञान तो उनके मानस पटल पर अंकित था ही | स्वामी जी के पास जब भी कोई अपनी सांसारिक समस्याओं को लेकर आता था तो स्वामी जी या तो वैदिक मन्त्रों का जप करने को कहते थे या भगवान के नाम जप के लिए कहते थे या रामचरित मानस की कोई पंक्ति बताकर उसको जाग्रत करने का तरीका बताकर, उसका जप करने के लिए कहते थे | वह हमेशा यही कहते थे कि प्रभु से आर्त भाव से  मांगो, प्रभु तुम्हारे उपर अवश्य कृपा करेंगे | वह यह कभी नहीं कहते थे कि जाओ तुम्हारा काम हो जायेगा | वह यही कहते थे कि भगवान  आराधना तुम्हे स्वयम करनी पड़ेगी | ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम भगवान को सच्चे दिल से पुकारो और भगवान तुम्हारी आर्त पुकार को अनसुना कर दें |
                                                                मैंने ८ वर्षों में केवल दो बार उन्हें अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों का प्रयोग करते हुए देखा | दोनों बार उनके पुराने शिष्यों को अपने लापता बच्चों की चिंता में बिलखकर रोते देखकर, वह मजबूर हो गए थे अपनी इन शक्तियों का प्रयोग करने के लिए | दोनों ही मामलों में शाम को ही वह लोग आये थे और दोनों को ही स्वामी जी ने अगली सुबह बुलाया था | इत्तिफाक से दोनों मामलों में मैं शाम और सुबह दोनों टाइम मोजूद था | एक मामले में स्वामी जी ने कोई स्पष्ट उत्तर न देकर,भगवान की आराधना करने और यह कहकर कि भगवान भला करेंगे, से बात को ख़त्म कर दिया था | उनके जाने के बाद जब मैंने स्वामी जी से पूंछा कि आपने स्पष्ट क्यों नहीं बताया तो स्वामी जी बोले कि क्या उसकी माँ अपने बच्चे के मृत्यु के समाचार को बर्दास्त कर पाती, उसका बिलखना तुम सुन नहीं रहे थे | अब कम से उसे बच्चे के आने की आशा, जीने के लिए संबल तो प्रदान करती रहेगी | दूसरे मामले में उन्होंने कह दिया था की बच्चा कल घर आ जायेगा और बच्चा आ गया | वे लोग बच्चे को लेकर स्वामी जो को प्रणाम करने लाये और स्वामी जी के परती आभार प्रदर्शन करते हुए कुछ धनराशि देनी चाही तो स्वामी जी बोले मैंने इसमें कुछ नहीं किया है | हनुमान जी की कृपा से तुम्हारा बच्चा वापस आया है, यह पैसा उठाओ और जाकर हनुमान जी को प्रसाद चड़ाओ | वह सारा प्रसाद गरीबों में बाँट देना | उनके बहुत आग्रह करने के बाद भी स्वामी जी ने उनसे कुछ ग्रहण नहीं किया | ज्यादा जिद करने पर स्वामी जी ने उन्हें तुरंत आश्रम से जाने के लिए कह दिया | उनके जाने के बाद स्वामी जी बोले इनके लिए मुझे वह करना पड़ा जो मुझे नहीं करना चाहिए था |
                                                                  शेष प्रभु कृपा |

Sunday 13 May 2012

मदर्स डे पर ।

माँ,
जो स्वयं
सो कर
गीले में
सुलाती है
बच्चों को
सूखे में ।
माँ,
जो बच्चों को
चिपकाकर
सोती है
छाती से
और
कुनकुनाते ही बच्चों के
जाती है जग ।
माँ,
जो बच्चों को
कभी नहीं सुलाती
पीठ की तरफ
क्योंकि
उसे याद है
भगवान शंकर का वह आदेश
जिसमें उन्होंने कहा था अपने गणों से
कि जो माँ 
पीठ करके सोयी हो
बच्चों की तरफ
काटकर उसकी गरदन
जोड़ दो उसे
गणेश के धड के साथ ।
माँ,
जिसे हमेशा यह चिंता रहती है
कि लापरवाह है उसका बच्चा
खाने-पीने के प्रति
जिसके कारण वह होता जा रहा है
दुबला ।
माँ,
जो बच्चे से दूर होने पर   
करती रहती है
आत्मालाप
सुबह से शाम तक
पता नहीं
बहू ने नाश्ता बनाया होगा या नहीं ?
कहीं बगैर नाश्ते के वह ऑफिस न चला गया हो ?
पता नहीं लंच पर घर आया हो या काम में उलझा हो ?
शाम तक फोन न आने पर
उसका आत्मालाप हो उठता है
मुखर
"जब उसको हमारी चिंता नहीं है
तो मैं ही क्यों करूँ ?"
इतना कहकर
टीवी खोलकर
या कोई धार्मिक पुस्तक लेकर
जाती है बैठ
पर कान
फोन की घंटी पर ही लगे रहते हैं ।
माँ,
जो कछुए की तरह
अहर्निश चिन्तन करती है
अपने बच्चों का ।
माँ,
जो
महीने में १० दिन व्रत  करती है
बच्चों के लिए ।
माँ,
जो
तीर्थ यात्राओं में
तीर्थों से मांगती है
केवल और केवल
बच्चों का कल्याण ।
माँ,
जो
बच्चों पर जरा सा भी संकट आने पर
तुरंत जाती है पहुँच
शरण में
माँ संकटा देवी के ।
माँ,
जिसे
अपनी बहू नासमझ
और लड़का समझदार लगता है ।
माँ,
जिसे
अपनी लड़की समझदार
और दामाद  नासमझ लगता है ।
माँ,
जिसके लिए
हमने एक दिन निश्चित कर दिया है ।
माँ,
उस दिन का इंतजार करती है
बेसब्री से
कब सुबह हो ?
कब बच्चों के मुख से " हैप्पी मदर्स डे"
सुनने को मिले और वह धन्य हो जाये ।
कितने आधुनिक हो गए हैं हम
भूल गए हैं हम
अपनी सारी परम्पराएँ ।
भूल गए है
अपने सांस्कृतिक मूल्य ।
हम,
उस संस्कृति के वाहक हैं
जहाँ
सुबह उठकर
धरती माँ पर चरण रखने के पहिले
मांगी जाती है क्षमा माँ से
"समुद्र वसने देवि,पर्वत स्तन मंडले,
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यम्, पाद स्पर्शम क्षमस्व मे "।
पृथ्वी माता से मांगने के बाद क्षमा
सबसे पहिले प्रणाम किया जाता था
जननी को ।
और उसके बाद नंबर आता था
पिता और गुरु का
"प्रातकाल उठके रघुनाथा,मातु,पिता,गुरु नावहिं माथा"।
हम,
वाहक है उस संस्कृति के
जहाँ माता का स्थान सर्वोपरि था ।
माँ,
जिसे पूरा अधिकार था
पिता के आदेश में संशोधन करने का
"जौं केवल पितु आयुष ताता, तौं जनि जाहु जानि बड़ि माता
जौं पितु-मातु कह्यो बन जाना, तौं कानन सत अवध समाना "
मुझे माफ़ करना
मेरे देशवासियों
मैं,
नहीं मना पाउंगा
तुम्हारे साथ "मदर्स डे"
क्योंकि
मेरी माँ
मेरी हर साँस में बसती है
जीवन की अंतिम साँस तक
ऋणी रहूँगा
मैं,
अपनी माँ का
कोई भी आभार प्रदर्शन
नहीं मुक्त कर सकता मुझे
अपनी जननी के ऋण से
                             
                                                  शेष प्रभु कृपा |