Thursday 31 December 2015

नव-वर्ष के आगमन पर ।

"सीय-राम मय सब जग जानी । करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी ।।"
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२०१५ की विदाई और २०१६ के स्वागत् में, आप सब में, अपने आराध्य सिया-राम का ही निवास मानते हुए, आपके श्रीचरणों में करबद्ध प्रणाम करते हुए, निवेदन करता हूँ कि आप सब ह्रदय से मुझे आशीर्वाद दे कि नव-वर्ष में, मेरी गर्दन,जो, रूढ़ियों, परम्पराओं और जन्मो-जन्मो के संस्कारों के अंहकार के कारण, झुकना भूल गयी है और हर समय अकड़ी रहती है, को अपने मूल स्वरूप की स्मृति आ जाए और वह ज़रा सा झुक जाए जिससे मैं अपने यार (आराध्य) के दीदार करने में सफल हो सकूँ ।

"दिल में छुपा के रक्खी है, तस्वीरे यार की ।
ज़रा सा गर्दन झुकाई, देख ली ।।"

Tuesday 15 December 2015

शास्त्रों की जीवन में उपयोगिता ।

स्थान - अपर-श्रमायुक्त कार्यालय, कानपुर (उ०प्र०) में चल रही क्षेत्रीय श्रम अधिकारियों की मासिक बैठक ।
वर्ष - १९९३
दृश्य प्रथम :- हर मासिक बैठक की तरह, अपर-श्रमायुक्त महोदय, अधीनस्थो की मिजाजपुर्सी अपने स्वाभावानुसार  (जिसमें अशालीन् शब्दों का प्रयोग स्वाभाविक गति से करना अनिवार्य था और जिसके कारण रक्तचाप से पीड़ित अधीनस्थ,रक्तचाप की दुगनी मात्रा में औषधि लेकर ही, बैठक कक्ष में प्रवेश का साहस कर पाते थे ।) करके हल्के मूड में आ चुके थे ।

दृश्य द्वितीय :- चाय-नास्ते का दौर,पूरी उन्मुक्तता के साथ, चलायमान था कि तभी एक अधीनस्थ ने एक अक्षम्य अपराध कर डाला और उसका अक्षम्य अपराध यह था कि उसने पूर्व अधिकारी के श्रम क़ानूनों के गहन ज्ञान की प्रशंसा करने की गुस्ताखी कर डाली थी ।

दृश्य तृतीय :- "क्या बकवास कर रहे हो ? किस नीच की प्रशंसा कर रहे हो ? वह साला जिसको रोज़ शराब,कबाब और शबाब चाहिए, उसे तुम ज्ञानी बता रहे हो लगता है तुम भी सरुऊ उसी लाइन के हो । जाओ उसी के पास,यहॉं हमारे पास क्या कर रहे हो ? साला टिकियाचोर को ज्ञानी बताता है ।" अधीनस्थ सिर झुकाए मन ही मन सोच रहा था कि यह हो क्या गया ? उसने बहुत कोशिश की पर ज्ञान और शराब,कबाब,शबाब के अन्तर-सम्बन्धों की गुत्थी सुलझाने में सफल न हो सका । उसकी दृष्टि समाधान की तलाश करती-करती मेरे चेहरे पर आ टिकी । मेरे चेहरे पर स्मित हास्य का लास्य देख कर, वह तिलमिला गया पर वातावरण ऐसा था कि उसके पास ख़ून का घूँट पीकर,बैठक के ख़त्म होने के इन्तज़ार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था ।

दृश्य चतुर्थ :- मैं बैठक समाप्ति के बाद अपने कक्ष में ठीक से बैठ भी नहीं पाया था कि वह धड़धड़ाते हुए आया और रोष के साथ बोला,"आपके हास्य का कारण जानने आया हूँ ? आपसे मुझे इस व्यवहार की उम्मीद नहीं थी ।" मैंने कहा,यार बैठो तो सही ।कारण भी बताऊँगा और तुमको कुछ मिष्ठान्न भी खिलाऊँगा । मिष्ठान्न उसकी कमज़ोरी थी यह मुझे मालूम था । मिष्ठान्न के नाम से उसका पारा कुछ नीचे आया । मिष्ठान्न खाते-खाते वह सामान्य हो गया था । तब मैंने उससे कहा कि अगर तुमने बाल्मीकि रामायण का परायण किया होता तो तुमने यह ग़लती न की होती, जिसके कारण बैठक में तुम्हें ज़लील होना पड़ा ।वह फिर उखड़ने लगा और बोला कि क्या ज्ञानी की प्रशंसा करना अपराध है और इस घटना का बाल्मीकि रामायण से क्या सम्बन्ध है ? मैंने कहा प्रशंसा करना अपराध नहीं है पर प्रशंसा के लिए, पात्र,काल और परिस्थिति का ज्ञान होना आवश्यक है और इस ज्ञान का सम्बन्ध बाल्मीकि रामायण से है । राम वन गमन के प्रसंग में दो-तीन श्लोकों में राम सीता को समझाते हुए कह रहे हैं कि सीते मेरे वन  गमन के पश्चात् तुम मेरी चर्चा से बचना और मेरी प्रशंसा तो कदापि मत करना क्योंकि सत्ता में बैठा हुआ व्यक्ति अपने समक्ष दूसरे की प्रशंसा  सहन नहीं कर पाता ।यहसुनकर वह हँसते हुए चला गया और मैंने चैन की सॉस ली ।

 

Saturday 5 December 2015

जीवन यात्रा के कुछ पड़ाव,कुछ यादें,कुछ चाहकर भी न भूल पाने वाली घटनाएँ ।

इधर कुछ दिनों से मित्रों का आग्रह रहा है कि मैं अपनी जीवन यात्रा के कुछ संस्मरण लिपिबद्ध करूँ । आज इसका प्रारम्भ कर रहा हूँ । शुरुआत पिछले महीने ही की गयी यात्रा से कर रहा हूँ ।
माह अक्टूबर के उत्तरार्ध में अहमदाबाद से सीधे काशी के लिए प्रस्थान किया । काशी में चार दिन रुकने के बाद,एक आपात स्थिति आ जाने के कारण,तुरन्त प्रयाग जाना पड़ा । काशी और प्रयाग की बातें फिर कभी, अभी फ़िलहाल मैं आपको ले चलता हूँ,प्रयाग से सीधे चित्रकूट । चित्रकूट, जहाँ श्री राम ने अपने बनवास काल के १४ वर्षों में से लगभग ११,१/२(साढ़े ग्यारह) वर्ष बिताए । चित्रकूट,जहाँ स्फटिक सिला आज भी जीवन्त साक्षी के रूप में मौन पसरी हुई है,अपनी छाती में श्री युगल के उस अप्रतिम सौन्दर्य की स्मृतियॉं सँजोए,जिसमें प्रिय ने अपनी प्रिया का वन पुष्पों के आभूषण अपने हाथों से बनाकर,अद्भुत श्रृंगार किया था,"एक बार चुनि कुसुम सुहाए,निज कर भूषन राम बनाए ।। सीतहि पहिराए प्रभु सादर । बैठे फटिक सिला पर सुंदर ।।"

चित्रकूट, जहाँ श्री राम, महर्षि बाल्मीकि के निर्देश पर आए थे, जिससे वह ऋषियों की तपस्थली चित्रकूट में,उनके सानिध्य में रहकर उन मूल्यों का संचयन कर सके, जो रामराज्य की स्थापना का आधार बन सकें ।"चित्रकूट गिरि करहु निवासू । तहं तुम्हार सब भॉंति सुपासू ।।"

यह चित्रकूट ही है,जिसने मार्क्सवादी विचारधारा के इस युवक को आद्योपान्त परिवर्तित कर दिया था । एक तरह से कहा जाए तो वहीं से ही जीवन का प्रारम्भ हुआ था और आज जीवन के उत्तरार्ध में यह कह सकता हूँ कि वहॉं बिताए गए ८ वर्ष मेरे जीवन के स्वर्णिम वर्ष हैं । पिछले ४५ वर्षों में मैंने कामदगिरि की कितनी परिक्रमा की हैं ? उसकी गणना सम्भव नहीं है । उन परिक्रमाओं में हुई रसानुभूति (आनन्दानुभूति) का वर्णन भी सम्भव नहीं है ।चित्रकूट यात्रा में कामदगिरि की परिक्रमा का विशेष महत्व है । वहॉं का प्राकृतिक सौन्दर्य,वहॉं के कण-कण में व्याप्त सकारात्मक ऊर्जा इतनी ज़बर्दस्त है कि उसका अनुभव वहीं जाकर किया जा सकता है, भाषा में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह शब्दों के माध्यम से आपको उसका अनुभव करा सके ।"कामद भे गिरि राम प्रसादा । अवलोकत अपहरत विषादा ।।" जिसके अवलोकन मात्र से विषाद का हरण हो जाता है । ऐसे हैं हमारे कामदगिरि जी महाराज ।

मैं सप्तनीक परिक्रमा पथ पर था कि तभी मेरे बग़ल से एक तेज़ हवा का झोंका सा गुज़रा । कुछ पलों के लिए मैं अचम्भित हो गया जब तक चेतना वापिस आती, वह झोंका काफ़ी दूर जा चुका था । ग़ौर से देखा तो लगा कि एक सफ़ेद बृद्ध आकृति अपनी स्वाभाविक गति से जा रही है और उसके साथ दो युवा दौड़ रहे हैं । मैं उस सफ़ेद आकृति की गति से अभिभूत हो चुका था । ४५ वर्षों के परिक्रमा काल में एक से एक अनुभव हुए थे पर इस अनुभव से मैं अभी तक वंचित रहा । तभी मुझे याद आया कि पिछली यात्रा में मेरे युवा सहयात्री (जो अब मेरे प्रिय भतीजों में शामिल हैं) ने दूरभाष से मुझे चित्रकूट में एक विलक्षण संत के सम्पर्क में आने की बात बताई थी और मुझसे यह अनुरोध भी किया था कि अगली यात्रा में मैं भी उनसे मिलूँ । मुझे लगा कि कहीं यह वही न हों ? मैंने उसे फ़ोन मिलाया और उससे, उनके विषय में जानकारी की तो उसने बताया कि वह ९० वर्ष के हैं, बारहों महीने वे केवल एक सफ़ेद चद्दर धारण करते हैं, केवल फलाहार और दूध लेते हैं । वे प्रतिदिन कामदगिरि की दो परिक्रमा सुबह और दो परिक्रमा शाम को करते है । उनकी गति बहुत तीव्र होती है, उनके साथ परिक्रमा लगाने के लिए दौड़ना पड़ता है । मैंने उसे बताया कि मैं परिक्रमा में ही हूँ और सौभाग्य से पीछे से उनके दर्शन भी हो गए हैं । मैनें उससे, उनका नाम और पता पूंछा तो उसने बताया कि केवल चद्दर धारण करने के कारण लोग उन्हे चदरिया बाबा के नाम से जानते हैं और उनकी कुटी सरयू धारा के पास है । किसी से भी पूंछने पर पता लग जायेगा ।

मैं जब उनकी कुटिया में पहुँचा तो वह बाहर बैठे हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे । गौरांग,कृषकाय,शरीर । चेहरे में झुर्रियों के बावजूद अद्भुत तेज़ । स्मित हास्य से भरा पोपला मुँह,अॉंखों में ग़ज़ब का सम्मोहन ।हम प्रथम दर्शन में ही अभिभूत हो गये ।
         मेरे युवा मित्र ने उन्हे दूरभाष से मेरे आगमन की सूचना दे दी थी । वे हमें देखते ही अपनी कुर्सी लेकर अन्दर चले गये पीछे-पीछे हमने भी प्रवेश किया तो अन्दर एक तख़्त पड़ा था और कुछ कुछ कुर्सियॉं पड़ी थी । उन्हे दण्डवत किया तो उन्होंने आसन लेने का इशारा किया और वह अन्दर से एक थाली में पर्याप्त मात्रा में काजू की बर्फ़ी लेकर लौटे । हम तीन लोग थे,उस हिसाब से वह बर्फ़ी बहुत ज़्यादा थी । मैंने उनसे निवेदन किया कि मैं सुगर का मरीज़ हूँ आप इसे कुछ कम लें । उन्होंने ने कम करने से इनकार कर दिया और कहा कि कुछ नहीं होगा, इसकी गारण्टी मैं लेता हूँ । यह कामतानाथ की भूमि है, मेरे साथ रोज़ परिक्रमा करो,एकदम ठीक हो जाओगे । मजबूरन हमें लेना पड़ा ।अभी खा ही रहे थे कि वह तेज़ी से उठे और एक प्लेट में पर्याप्त मात्रा में सेब काट लाए । उनका प्रसाद पाने के बाद,उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने बताया कि वह ४० वर्षों से चित्रकूट में हैं, इसके पहिले वे अमरकण्टक (मॉं नर्मदा का उद्गमस्थल) में थे । मैंने उन्हे बताया कि लगभग ४५ वर्षों से मैं कामतानाथ जी की शरण में हूँ और ८ वर्ष  की राजकीय सेवा तो यहीं की है पर आपके दर्शनों का सौभाग्य आज ही मिला है । उन्होंने कहा कि हर चीज़ अपने समय पर ही होती है । यह मुलाक़ात किसी माध्यम से होनी थी और वह माध्यम ही तुम्हें अभी मिला है तो हमसे मुलाक़ात पहिले कैसे हो जाती ।

बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी ।इस विस्तार में न जाकर मैं संक्षेप में निष्कर्ष पर आता हूँ और निष्कर्ष यह है कि मैं तीन दिन चित्रकूट में रहा और सुबह-शाम मिलाकर कुल ५ परिक्रमा उनके साथ लगायी । मैं उनके साथ एक परिक्रमा सुबह और एक परिक्रमा शाम को करता था । परिक्रमा ५ किलोमीटर की थी । मैं पहिली बार तो थोड़ी देर उनके साथ दौड़ा पर ह्रदय की धड़कन इतनी बढ़ गयी कि गति घटानी पड़ी । मेरा भान्जा ही दौड़कर उनके साथ चल पाया पर उसने भी दूसरी परिक्रमा करने में असमर्थता जता दी । वह ३० मिनट में ही एक परिक्रमा पूरी कर लेते है । दो परिक्रमा सुबह और दो शाम करना उनका नित्य का कार्यक्रम है । पहिली मुलाक़ात में मुझे जानकारी न होने के कारण,विदा के समय दक्षिणा देने का असफल प्रयास, उन्हें असहज कर गया था, जिसके लिए मुझे अब भी ग्लानि है । वह केवल फल और मिष्ठान्न की भेंट केवल इसलिए स्वीकार कर लेते हैं,जिससे वे आगन्तुको का सत्कार कर सकें । उन्होंने मुझसे कई बार कहा कि अब मैं भटकना बन्द करूँ और एक जगह रहकर भजन करूँ ।

उनकी सहज कृपा है कि जब से उन्हें मेरी और पत्नी की अस्वस्थता का पता लगा है, वह हर दो-तीन दिन में दूरभाष से मेरे समाचार लेते रहते हैं । मैंनें अपने जीवन में, ईश्वर की कृपा का इतनी बार अनुभव किया है कि उसकी गणना नहीं हो सकती । चदरिया बाबा का कृपापात्र बनना,मेरे प्रभु की कृपा का एक और प्रमाण है ।इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि इतनी बदपरहेजी के बाद भी लौटकर जब मैंने सुगर नपवाई तो वह नार्मल निकली ।

Thursday 3 December 2015

क़रीब ढाई महीने बाद आज आपसे मुख़ातिब हूँ । इस लम्बे अन्तराल का कारण मैं स्वंय हूँ । क्षात्र जीवन में लिखने का व्यसन था  । राजकीय सेवा में आने के बाद लगा कि अभिलाषित ज़िन्दगी न जी पाने के बाद भी, आदर्शवादी लेखन करना, लेखनधर्मिता के साथ अन्याय होगा, अत: सायास लेखन बन्द कर दिया । 
सेवानिवृत्ति के समय बच्चों द्वारा लैपटॉप भेंट किये जाने पर और उस समय अपने गुरू जी की गम्भीर अस्वस्थता के कारण,अत्यधिक मानसिक तनाव को कम करने के लिए फिर से अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए, लेखनी की शरण में जाना पड़ा । उनके विष्णुलोक गमन के बाद, जीवन निरर्थक लगने लगा । जीवन का कोई उद्देश्य शेष न रहा । अपनी इस जड़ता को तोड़ने के लिए, लगातार भ्रमण करता रहा पर सफलता न मिली । चार वर्षों तक अपने आप से भागता रहा । जीवनसाथी के ज़ोर देने पर फिर से लेखन की शरण में गया । चार-पॉंच महीने क़रीब सक्रिय रहा, एक दिन प्रात:काल अचानक एक विचार दिमाग़ में कौंधा कि कहीं यह सक्रियता, "लाईक" और "सकारात्मक टिप्पणी" देखने की सुखद वासना का परिणाम तो नहीं है ? जितना इस पर चिन्तन किया, यह विचार दृढ़ होता गया । "आई पैड" सहधर्मिणी को समर्पित कर मौन में चला गया ।
इस मौन के टूटने के पीछे कारण यह है कि २५ नवम्बर को फिर से शुरू होने वाली यात्रा,अस्वस्थता के कारण स्थगित हो गयी है । शरीर में ज़्यादा कूड़ा-करकट इकट्ठा हो जाने पर शरीर अस्वस्थ हो जाता है,इसलिए इसकी सफ़ाई का कार्य चिकित्सकों को देकर निश्चिन्त हो गया हूँ । दिमाग और मन के ऊपर बढ़ने वाले कूड़े के भार का कुछ हिस्सा आपके ऊपर डालकर हल्का होने का प्रयास कर रहा हूँ ।देखिए कितनी सफलता मिलती है ?