Thursday 30 July 2015

कोई तो हो जो मुझको डाँटे

गुरूपूर्णिमा पर
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सालों से मैं तरस रहा हूँ कोई तो हो जो मुझको डाँटे 
अन्दर जो दुख है पसरा कोई तो हो जो  उसको बॉंटे

तुमने तो मेरे अहंकार को जी-जी  भरकर तोड़ा भी था
मेरे  प्रेम पिपासित मन को प्रभु चरणों से जोड़ा भी था
फिर से माया के बंधन में हूँ कोई तो हो जो इसको काटे
सालों से मैं तरस रहा हूँ कोई तो हो  जो मुझको    डाँटे 

तुमने तो जीवन सार्थक कर प्रभु चरणों में विश्राम  पा लिया
पहिले तो मेरी बॉंहें पकड़ी फिर बीच धार में मुझे छोड़ दिया
चारो तरफ़ खॉंई ही खॉंई कोई तो हो जो इनको पाटे
सालों से मैं तरस रहा हूँ  कोई तो हो जो मुझको डॉंटे
अन्दर जो दुख है पसरा कोई तो  हो जो  उसको बॉंटे

Tuesday 28 July 2015

सपने वे हैं जो सोने नहीं देते


सपने वे हैं जो सोने नहीं देते

आपने
कहा था
"सपने वे नहीं जो आप नींद में देखते है
सपने वे हैं जो आपको सोने नहीं देते "
आपने 
यह केवल कहा भर नहीं था
इसे जिया भी था 
जिस उम्र में
आदमी
सपने पूरे करना तो दूर
सपने देखने से भी दूर भागता है 
आप नित्य सपना देखते थे 
एक ऐसे ख़ुशहाल भारत का
जिसकी सुबह होगी
मन्दिर की घंटियों से, मस्जिद की अजानो से
बाइबिल की पँक्तियों से,गुरुवाणी की तानो से
स्कूल जाते खिलखिलाते बच्चों से
धमाचौकड़ी मचाते किशोरों से
राष्ट्र के विकास के लिए
तैयारी करते नौजवानों के जोश से 
बृद्धों के होश से
और यही सपना आपको सोने नहीं देता था
निरन्तर आपको गतिमान रखता था
देश के एक कोने से दूसरे कोने तक
कभी बच्चों के बीच
कभी नौजवानों के बीच
कभी देश के प्रबुद्ध जनों के बीच
"गीता" का निष्काम कर्मयोग 
अवतरित हुआ था
आपमें पूरी शिद्दत के साथ
आज आपका शरीर
सुपुर्दे ख़ाक हो जायेगा
पर हम आज आपको
वचन देते हैं 
कि हम 
ज़िन्दा रक्खेंगे
आपके सपनों को अपनी अन्तिम सॉंस तक


Saturday 25 July 2015

जहँ-जहँ कबीर माठा का जॉंय,भैंस पड़ा दोनौ मरि जॉंय

"जहँ-जहँ कबीर माठा का जॉंय,भैंस पड़ा दोनौ मरि जॉंय"
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यह बुन्देलखण्ड की एक कहावत है ।

इसका शाब्दिक अर्थ है कि कबीर जहाँ-जहाँ मठ्ठा(छाछ) के लिए जाते हैं,वहॉं भैंस और पड़वा (भैंस का बच्चा) दोनों मर जाते हैं ।

इसका लाक्षणिक अर्थ यह है कि व्यक्ति का भाग्य,उसके आगे-आगे चलता है ।

इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि कबीर जहाँ-जहाँ मठ्ठा यानि कि अपनी खोज में गए तो उन्होंने पाया कि भैंस यानि कि माया और पड़ा यानि कि अंहकार का विगलन स्वत: हो गया है ।

Friday 24 July 2015

कल फिर वही सूरज उगेगा

जीवन का सूरज
ढलता तो है
मरता नहीं है
कल
फिर वही
सूरज उगेगा
उजास होगा
उल्लास होगा 
कलियाँ खिलेंगी
चिड़ियॉं चहचहायेगीं
सप्तरंगी रश्मियों की
डोली में
आयेगा
मन्दिरों में घंटियाँ बजेंगीं 
मस्जिदों में अजान होगी
ज़िन्दगी गुनगुनायेगी
जवानी मुस्करायेगी
इस
आने वाली सुबह के लिए
जीवन की संध्या को
सूरज को
अपने आग़ोश में
लेना ही होगा 
लेना ही होगा

Thursday 23 July 2015

अकड़

किसी की अकड़ तोड़ने की बजाय,उसकी अकड़ को इस सीमा तक बड़ा देनी चाहिए कि वह अपने आप टूट जाए । ऑंधी आने पर वही पेड़ सुरक्षित रह पाते हैं,जो झुकना जानते हैं, अकड़ में तने पेड़ो का टूटना ही उसकी नियति है । किसी की अकड़ तोड़ने के अपराध बोध से हम क्यों ग्रसित हो ?

किसी की आलोचना करना बहुत आसान है,क्योंकि भगवान भी अगर मानव शरीर में आए हैं तो उन्होंने भी मानवीय कमज़ोरियों का दिग्दर्शन कराया है । इन्सान कमज़ोरियों का पुतला है और हम उसकी कमज़ोरियों को ही देखते हैं, उसके गुणों को हम देखने की कोशिश ही नहीं करते । बुरे से भी बुरे आदमी में भी कुछ अच्छाइयॉं होती है,बेहतर होगा कि हम उसकी आलोचना करने के स्थान पर उसके गुणों की प्रशंसा करे, जिससे वह अच्छाई की तरफ़ जा सके ।

Tuesday 21 July 2015

मैं खड़ा हूँ

जीवन
नदी के
जल सा
निरन्तर 
सरकता
जा रहा है
मैं
नदी के
तट पर 
खड़ा हूँ 
एकदम
अकेला

Monday 20 July 2015

पीर पर्वत सी सयानी हुई है

पीर पर्वत सी सयानी हुई है
शब्द बौने हैं नहीं कह पायेगें

मन घिरा है राग के सैलाब में
वैरागी गीत हम नहीं गा पायेगें

ज़िन्दगी बंध में जकड़ी  हुई है
निर्बंध प्रभु आप ही कर पायेगें









Sunday 12 July 2015

एक ऐसी लघुकथा जिसके विस्तार का कोई अन्त नहीं है ।

एक ऐसी लघुकथा जिसके विस्तार का कोई अन्त नहीं है ।
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हमारी भाषा की वर्णमाला का प्रथम अक्षर "क" है और अन्तिम अक्षर "ज्ञ" है ।

हमारे मानव जीवन की पूरी यात्रा, इन्हीं दोनो अक्षरों के बीच सिमटी हुई है ।

"क" माने कौन ? यानि कि मैं कौन हूँ,"को अहम्"? जिस दिन मन में यह प्रश्न उठता है, हम इस यात्रा के पथिक बन जाते हैं और इस यात्रा का अन्त होता है "ज्ञ" यानि ज्ञान में । जब यह ज्ञान हो जाता है कि मैं वही हूँ "सो अहम्" दूसरा कोई है ही नहीं । तब इस यात्रा का अन्त हो जाता है । पर इस छोटी सी यात्रा पूरी करने में कितना समय (कितने जन्म) लगेगें, पता नहीं ? हॉं,"ख" यानि अन्तरिक्ष (अनन्त) को जानने के लिए यदि "ग" यानि गुरू की कृपा प्राप्त हो जाती है तो इस यात्रा में इतना ही समय लगता है जितना रकाब में पैर रखकर अश्व की सवारी में लगता है ।

Friday 10 July 2015

रिश्वत लेने के सिद्धान्त

रिश्वत लेने के सिद्धान्त 
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(वर्ष १९७३ में घटी एक सत्य घटना के आधार पर)

मैं कानपुर स्टेशन पर कानपुर-बाँदा पैसेंजर में बैठने जा ही रहा था कि उसी समय पीछे से किसी सज्जन ने कन्धे में हाथ रक्खा । मैं पलटा तो देखा कि टी०सी० सिंह साहब हैं । सिंह साहब मुझसे उम्र में बड़े थे । वह कयी वर्षों से रेलवे की मुजालमत कर रहे थे और साथ ही परास्नातक में मेरे सहपाठी भी थे । मैं उन्हे बड़े होने के नाते भाई साहब ही कहता था और वह मुझे मिश्रा कहकर बुलाते थे । उन्होंने पूंछा कि मिश्रा टिकट ले लिया है ? मैने कहा हॉं भाई साहब । इस पर वे मेरा हाथ पकड़कर ले चले । मैने कहॉं ले चल रहे हैं ? वे बोले चलो हमारे साथ फ़र्स्ट क्लास में बैठो (उस समय इस रूट पर पैसेंजर ट्रेन ही चलती थी और उसमें फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा भी लगता था) मैने उन्हे बहुत मना किया पर वे माने नहीं, कहने लगे कि रास्ते मे बातें करेंगे,तुम्हारा समय भी कट जायेगा और मेरा भी । वे मुझे डिब्बे में बिठाकर,यह कहकर चले गये कि तुम बैठो मैं ट्रेन चेक करके आता हूँ । दो-तीन स्टेशन निकलने के बाद वे आए तो उनके साथ दो व्यक्ति और थे,जिन्हें वे चेकिंग में बिना टिकट पकड़ कर लाये थे । अब उनके मध्य हुआ संवाद,जिसके लिए यह लेखन किया गया है, निम्नवत् है ।

चलो निकालो पैसे । रसीद कटवाओ ।
अरे सिंह साहब ! रसीद-वसीद छोड़िए । हम सेवा के लिए तैयार हैं,सेवा बताइए ।
चलो अच्छा इतने-इतने निकालो ।
यह तो बहुत ज़्यादा है साहब,हम तो रोज़ वाले हैं ।
मैं जानता हूँ कि तुम दोनो रोज़ वाले हो,इसीलिए तो इतना मांग रहा हूँ ।
यह क्या बात हुई साहब ?
देखो,मेरा एक सिद्धान्त है कि ट्रेन में बैठने के पहिले यदि तुमने मुझे ढूँढ़ लिया तो पैसा तुम्हारी मर्ज़ी का ।और यदि ट्रेन चलने के बाद, मुझे तुम्हें ढूँढ़ना पड़ा तो पैसा मेरी मर्ज़ी का । मैं अपने इस सिद्धान्त  से कभी कोई समझौता इसलिए नहीं करता, जिससे तुम भविष्य  में ऐसी ग़लती न करो ।
मैंने भाई साहब की इस सिद्धान्तवादिता को मन ही मन नमन किया ।

Thursday 9 July 2015

वर्ष १९७३ में लिखी गयी लघुकथा

वर्ष १९७३ में लिखी गयी लघुकथा ।
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एक अधिकारी अपने मातहत पर बिगड़ रहे थे ।
तुम बेवक़ूफ़ हो ?
जी सर !
तुम नालायक हो ?
जी सर !
तुम कामचोर हो ?
जी सर !
क्या जी सर, जी सर लगा रक्खा है ।" जी सर" के अलावा भी कुछ जानते हो ?
जी सर !
क्या ?
मैं अधिकारी नहीं हूँ, सर !


Wednesday 8 July 2015

जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है ।

जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है 
एक पूरा हुआ नहीं कि दूजा आता है

मुक्ति नहीं होनी है तेरी क्योंकि तू रागों से घिरा हुआ है
तेरा एक-एक अंग काम के पुष्प बाणों से बिंधा हुआ है
लो मधु का प्याला भी रीता जाता है 
जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है

अब भी बच सकता है तू यदि नेह कहीं तू और जोड़ ले
बेमतलब की इस दुनिया से यदि अब भी तू मुँह मोड़ ले 
सॉंसे कम है एैसा यह पगला गाता है
जीवन अनुबन्धो में ही बीता जाता है


Tuesday 7 July 2015

"तिरिया चरित्रम्,पुरुषस्य भाग्यम्,दैवो न जानसि"

"तिरिया चरित्रम्,पुरुषस्य भाग्यम्,दैवो न जानसि"
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स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य के विषय में देवता भी नहीं जानते । इस सूक्त को पढ़ा तो था पर यह कितना सार्थक है,इसका अनुभव नहीं था । इसके पहिले भाग की यथार्थता का अनुभव जब जीवन में पहिली बार हुआ था तो कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया था । पूरा घटनाक्रम इस प्रकार है ।

दृश्य १- वर्ष १९६८ ।उ०प्र० का एक कस्बानुमा शहर ।जिसको शहर कहने से शहर भी लज्जा से ज़मीन में गड़ जाने का मन करता था । इसी क़स्बे के एक मात्र डिग्री कालेज की,मासिक फ़ीस जमा करने की एक मात्र खिड़की पर एक छात्र और एक छात्रा मौजूद है । मासिक फ़ीस जमा करने की अन्तिम तिथि निकल चुकी है । अब केवल विलम्ब शुल्क के साथ फ़ीस जमा हो रही है । छात्र नेता भी है, अत: वह अपना विलम्ब शुल्क,प्राचार्य से मिलकर माफ़ करवा ले आया है । वह फ़ीस जमाकर के पलटता है तो छात्रा उससे अनुरोध करती है कि वह उसका भी विलम्ब शुल्क माफ़ करा दे । छात्र, छात्रा से प्राचार्य के नाम विलम्ब माफ़ी का प्रार्थना पत्र लिखाकर, उसका भी विलम्ब शुल्क माफ़ करा देता है । इसके बाद दोनो में बातचीत शुरू होती है :-
छात्रा :- बहुत-बहुत धन्यवाद । आपकी वजह से कुछ बचत हो गयी । आप तो जानते है कि मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, इसलिए समय से फ़ीस नहीं जमा कर पायी थी ।
छात्र :- इसमें धन्यवाद की कोई आवश्यकता नहीं है । जाओ अपनी फ़ीस जमा कर दो ।
छात्रा :- वह तो मैं कर ही दूँगी । आप सुनाइए, आपकी पढ़ाई कैसी चल रही है ?
छात्र टालने के अन्दाज़ में :- पढ़ाई तो तब हो,जब नेतागिरी से फ़ुरसत मिले । तुम्हारी पढ़ाई तो ठीक चल रही है ?
छात्रा :- अरे कहॉं ? अकेले पढ़ने में मन ही नहीं लगता । दोपहर में घर में अकेले रहती हूँ, आप आ जाया करो तो दोनो लोग,साथ-साथ पढ़ा करेंगे ।छात्र बग़ैर कोई जवाब दिए, तेज़ी से आगे बढ़ जाता है । 

दृश्य २- इस घटना के क़रीब एक सप्ताह बाद, छात्र शाम क़रीब ७ बजे, अपने घर, पहुँचता है तो उसकी सबसे बड़ी भाभी (जिनका वह मॉं की तरह सम्मान करता था) दरवाज़े पर ही टकरा गयीं । वह देवी मन्दिर से वापिस आ रही थी । उसे भाभी रोज़ की करह प्रसन्न नहीं दिखीं ।
छात्र :- क्या बात है ?
भाभी :- अन्दर चलो तुम से कुछ बात करनी है ।
छात्र :- हॉं,अब बताओ क्या बात है ?
भाभी :- तुम्हारी,तुम्हारे भैया से शिकायत करनी है ।
छात्र एकदम से घबड़ा गया,क्योंकि वह जब ६ महीने का था,तभी उसके पिता की मृत्यु हो गयी थी और उसके सबसे बड़े भाई ने,कभी भी उसे पिता के अभाव का रंचमात्र भी आभास नहीं होने दिया था । वह अपने बड़े भाई का इतना सम्मान करता था कि बड़े भाई से शिकायत की बात सुनते ही,उसके भय के कारण,पसीने छूट गए ।
छात्र :- मैंने ऐसी क्या ग़ल्ती की है जो बात भइया तक पहुँचाने की नौबत आ गयी है ?
भाभी :- तेज़ी से मेरा हाथ अपने सिर पर रखकर बोलीं । तुम्हें हमारे सिर की क़सम है । जो हम पूंछने जा रहे है,उसका ठीक-ठीक उत्तर देना ।झूठ बोले तो हमारा मरा मुँह देखोगे ।
छात्र :- पूंछो ।
भाभी :- तुम सिगरेट पीते हो ?
छात्र :- हॉं ।
भाभी :- क्यों पीते हो ?
छात्र :- छोड़ दूँगा ।
भाभी :- तुम कालेज में गुन्डा- गर्दी करते हो ?
छात्र :- नहीं नेतागिरी करता हूँ ।
भाभी :- दोनो में कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है । ख़ैर यह छोड़ो ।यह बताओ कि लड़कियॉं छेड़ते हो ? सही बताना ।झूठ मत बोलना ।
छात्र :- भाभी ! आप इतनी बड़ी क़सम के बाद भी सोचती हो कि मैं झूठ बोलूँगा । मैंने आज तक किसी लड़की को नहीं छेड़ा ।
छात्र :- मैंने आपके सारे प्रश्नों के ठीक-ठीक जवाब दे दिए है । अब आपको मेरी क़सम है, सही बताइयेगा कि यह सब आपसे किसने कहा है ?
भाभी :- तुम्हारे साथ एक लड़की पढ़ती है, वह आज मन्दिर में मिली थी ।
छात्र :- बस भाभी,अब अागे बताने की ज़रूरत नहीं है । मैं समझ गया कि वह कौन है और यह शिकायत उसने क्यों की है ? अगर आप मेरी हमउम्र होती तो आपको भी मैं बता देता ।मैं आपको मॉं का सम्मान देता हूँ, इसलिए इस राज को राज ही रहने दो ।

और मित्रों,इस प्रकार मैं पहिली बार तिरिया चरित्र से रूबरू हुआ ।

Sunday 5 July 2015

जीवन बसता है सॉंसो में

जीवन बसता है सॉंसो में औ हर सॉंस में तुम बसते हो
धड़कन बसती है दिल में औ हर दिल में तुम बसते  हो 

ढूँढ़ रहा था तुमको,मैं,भी, मन्दिर,मस्जिद,गुरुद्वारों  में
ढूँढ़ रहा था तुमको,मैं,भी,  कीर्तन,सबद, अजानो   में 
भूल गया था,बसते हो,तुम,दीनों की करुण पुकारो में 

भक्ति बसती है सबरी में औ सबरी के बेरों में तुम रमते  हो 
जीवन बसता है सॉंसो में औ हर सॉंस  में   तुम  बसते  हो 

Saturday 4 July 2015

पानी मटमैला हो जाता है

जैसे धरती पर पड़ते ही पानी मटमैला हो  जाता है 
वैसे ही जीव,धरा में आकर 'माया' से घिर जाता है 

ज्यों सागर  ही बादल बनकर   फिर सागर में जाता  है
त्यों ही अंशी से अंश निकल कर फिर अंशी में आता है 

ज्यों  मिट्टी से पौधा बनकर, मिट्टी में ही मिल जाता   है
त्यों ही मनवा भटक-भटक कर वापिस ख़ुद आ जाता है 

Thursday 2 July 2015

क्यों तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी ?

टुकड़ों-टुकड़ों में मिलकर क्यों  तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी 
बार-बार सपनों में आकर क्यों मिलने की आस जगा दी 

मिलना जब प्रारब्ध नहीं था तो क्यों मिलने की आदत डाली 
तुमसे मिलकर     ऐसा लगता     जैसे सारी खुशियॉं पा लीं
ऐसा भी क्या कर डाला मैनें जो तुमने मेरी याद भुला दी
टुकड़ों-टुकड़ों में मिलकर क्यों तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी 

पीछा नहीं छोड़ूँगा तेरा चाहे जितने जन्म लगें लग जायें
नित नूतन मैं आहुति दूँगा अग्नि न जिससे बुझने पाये                
पहिले तो  बॉंहें फैलायीं फिर बिरहा की अग्नि जला दी
टुकड़ों-टुकड़ों में मिलकर क्यों तुमने मेरी प्यास बढ़ा दी