Sunday 6 March 2016

महाशिवरात्रि पर

महाशिवरात्रि पर
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आज शिव और पार्वती का विवाह पर्व है, जिसे पूरा देश उल्लास, श्रद्धा और विश्वास के साथ मना रहा है । इस पर्व पर मैं सभी को अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ । 

रामचरितमानस के बालकाण्ड के द्वितीय श्लोक में, तुलसीदास जी ने माता पार्वती और भगवान शिव को, श्रद्धा और विश्वास के रूप में प्रतिस्थापित किया है । इस युग्म के बग़ैर यानि कि जीवन में श्रद्धा और विश्वास के अभाव में, आप अपने अन्दर स्थित ईश्वर या अपने आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं कर सकते, भले ही आपने भौतिक सिद्धियों की उपलब्धि क्यों न कर ली हो ?

"भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ
 याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम्"
(श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्त:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते ।)

आइए श्रद्धा और विश्वास के इस विवाह पर्व पर हम भी संकल्प लें कि हम भी अपने जीवन में इनका अवतरण करें जिससे हम भी अपने आत्मस्वरूप का दिग्दर्शन कर सकें ।

Tuesday 1 March 2016

जीवन और मृत्यु के बीच की न भूलने वाली शान्ति ।

जीवन और मृत्यु के बीच की न भूलने वाली शान्ति ।
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आज से लगभग ४५ वर्षों पूर्व भी जीवन में एक रात्रि ऐसी ही आयी थी, जब मेरे शरीर में नाम मात्र का रक्त शेष रह गया था । रक्त की अल्पता के कारण डाक्टर द्वारा, मुझे सुलाने के लिए दिया जाने वाला मर्फिया का इंजेक्शन भी बेअसर हो गया था और मैं पूरी रात चेतन और अचेतन के झूले में झूले में झूलता रहा था । स्थानीय डाक्टरों ने एक तरीक़े से जवाब दे दिया था और शीघ्रताशीघ्र कानपुर ले जाने की सलाह दी थी । उस समय सुबह की पैसेन्जर के पहिले कानपुर जाने का कोई साधन नहीं था । पूरी रात जब भी चेतना वापिस आती थी तो देखता था कि पूरा परिवार मेरी चारपाई के चारों ओर इकट्ठा है, सबकी ऑंखों से अश्रुपात हो रहा है । मैं उन्हे आश्वस्त करता था कि घबड़ाओ नहीं ! अभी मैं मरुंगा नहीं ! इतना कहते-कहते मैं शून्य में पहुँच जाता था और एक अवर्णनीय शान्ति के सागर में डूब जाता था । मुझे लगता था कि जब मृत्यु में इतनी शान्ति है तो आदमी मृत्यु से इतना घबड़ाता क्यों है ?

इतने वर्षों बाद विगत २७ जनवरी को ऐसी ही विराट शान्ति का सुखद अनुभव तब हुआ जब ह्रदय की तीन धमनियों की गड़बड़ी के कारण एक अतिरिक्त धमिनी से रक्त को मार्ग देने के लिए, मुझे शल्य चिकित्सा हेतु, शल्य कक्ष में ले जाया जा रहा था और मैं एक अखण्ड शान्ति में डूबा हुआ, अपने आराध्य से मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि मेरी इस शान्ति को चिर शान्ति में परिवर्तित कर दे । कहीं कोई उद्विग्नता नहीं, शरीर छूटने का कोई भय नहीं । बार-बार एक ही विचार दृढ़ होता जा रहा था कि जब इस शरीर द्वारा संसार में आने का मुख्य उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पा रहा है, यानि कि आवागमन से मुक्ति के मार्ग पर नहीं चल पा रहा हूँ तो फिर इस शरीर को रखने का औचित्य क्या है ? एक बार मन में एक विचार और आया कि मान लो भगवान ने मेरी प्रार्थना न सुनी, तब ?यह तब जैसे ही आया, उसी क्षण मन ने संकल्प लिया कि यदि ऐसा हुआ तो शेष जीवन आवागमन से मुक्ति के प्रयास में ही गुज़ारूँगा ।

मेरे प्रभु ने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी । मैं वापिस आ गया हूँ । यह तो भविष्य ही बताएगा कि मेरे प्रभु ने मेरे शेष भोंगों को भोगने के लिए, मेरी प्रार्थना अस्वीकार की है या फिर उस अकारण करुणावरुणालय ने करुणा करके मुझे अपने में समाहित करने का एक शुभ अवसर और प्रदान किया है ।

शेष प्रभु कृपा ।