Wednesday 12 September 2012

कात्यायनी (ख़ुशी) के तृतीय जन्मदिन पर

आज
तुम्हारा जन्म दिन है
मेरी लाडली
और
मुझे
याद आ रहा है
वह घटनाक्रम
जो आज भी
स्मृतियों में
इस तरह जीवंत है
जैसे कल ही घटा हो
यह सब कुछ
आश्रम में
बैठे थे
हम
कि तभी तुम्हारे पापा का आया था
फ़ोन
उत्तेजना, निराशा और घबराहट
से परिपूर्ण स्वर में
तुम्हारे पापा ने बताया था
हमें
कि
कुछ दुश्वारियां आ जाने के कारण
तुम्हे गर्भ में ही ख़त्म करने की सलाह
दे रही है डॉक्टर
तुम्हारी दादी ने की थी
फ़ोन पर
डॉक्टर से बात
डॉक्टर ने
किया था निर्देशित
तुरंत निर्णय लेने के लिए
अनिर्णय की स्थिति   में
कुछ भी घटित होने की चेतावनी देते हुए
यह भी कहा था
कि यदि आप लोग गर्भ रोकने का निर्णय लेते हैं
तो बच्चे के विकलांग पैदा होने की पूरी सम्भावना है
घबड़ा गए थे हम पूरी तरह से
स्वामी जी को जैसे ही पूरी बात बतायी
मुझे आज भी याद है
स्वामी जी का वह तमतमाया  हुआ चेहरा
वह थरथराती हुई आवाज
"तुम और तुम्हारी डॉक्टर भगवान बन गए हो
तुम लोग निर्णय लोगे
कि
किस जीव को धरती पर आना है किसे नहीं ?"
हमने डरते हुए बताया
कि पैदा होने कि स्थिति में
बच्चे के विकलांग होने की पूरी सम्भावना है
वह पूरे विश्वास के साथ बोले
कि मैं गारंटी लेता हूँ
बच्चे को कुछ नही होगा
वह पूरी तरह स्वस्थ और मेधावी होगा
इतना कहकर
वह उठे थे तेजी से
आश्रम के बाहर
धार्मिक पुस्तकों की दूकान से
लेकर लौटे थे वे
"संतान गोपाल स्त्रोत"
इस पुस्तक के दसवें श्लोक पर
अपने हाथ से लगाकर निशान
पुस्तक
मुझे देते हुए
बोले
कि तुम्हे नित्य पाठ करना है
इसका
और दसवें श्लोक की माला
कम से कम एक बार अवश्य जपनी है
और ख़ाली समय में मौन होकर निरंतर जप करना है
श्लोक को जाग्रत करने की प्रक्रिया बताते हुए
उन्होंने आश्वस्त किया कि प्रभु कृपा करेंगे
और सब कुछ शुभ होगा
और इस तरह  तुम माँ के गर्भ में ही
काल को पराजित करके
धरा पर अवतरित हुई थी
मेरी माँ, मेरी दुर्गा, मेरी कात्यायनी

मुझे
यह भी  याद है कि जब हमने
स्वामी जी को तुम्हारे जन्म का समाचार दिया था
तो वह खुश  होकर बोले थे
कि यह तुम सब के जीवन में खुशियाँ लेकर आई है
अत: इसका नाम ख़ुशी होगा
आज के दिन
मेरे गुरु, मेरे पिता मेरे भगवान
विष्णु लोक से यही आशीर्वाद दे रहे हैं
कि तुम अपने पवित्र आचरण से
अपने संपर्क में आने वाले हर प्राणी के जीवन को
खुशियों से भर देना
मेरी बच्ची
महर्षि कत्य के तप से प्रसन्न होकर
माँ ने महर्षि को
मनचाहा वरदान देते हुए कहा था
मैं आपकी इच्छा अनुसार
आपकी पुत्री के रूप में ही दुष्टों का संहार  करने के लिए
धरा पर अवतरित होउंगी
और मेरा नाम आपके नाम पर ही कात्यायनी    होगा
अपने नाम ख़ुशी और कात्यायनी  को सार्थक करना
मेरी लाडली
आज के दिन मेरा भी यही आशीर्वाद  है |



Thursday 21 June 2012

सो माया बस भयो गोसाईं, बंध्यो कीर मरकट की नाईं

                                                          जब भी किसी उम्रदराज व्यक्ति से मुलाकात होती है तो हर बुजुर्ग आदमी की यही शिकायत होती है कि वह अब सब कुछ छोड़कर भगवान का भजन करना चाहता है, पर वह करे तो क्या करे ? यह संसार उसे छोड़ता ही नहीं है । जब वह  यह कहता है तो मुझे मानस की यही पंक्ति,"सो माया बस भयो  गोसाईं, बंध्यों कीर मरकट की नाईं ।" याद आ जाती है । हम सभी मानवों की यही हालत है ।
                                                          जब जीव इस धरती पर आता है तो वह आकाश से गिरने वाली पानी की बूंद की तरह पवित्र,निर्मल और स्वच्छ होता है पर जैसे ही यह पवित्र बूंद धरती का स्पर्श करती है, मटमैली हो जाती है । उसी प्रकार यह जीव भी जैसे ही धरती का स्पर्श करता है, माया आकर उससे लिपट जाती है,"भूमि परत भा ढाबर पानी,जिम जीवहिं माया लिपटानी" और फिर यह माया जीव से पूरे जीवन भर किसी न किसी रूप में लिपटी ही रहती है । कभी माँ-बाप के रूप में, कभी प्रेमी -प्रेमिका के रूप में, कभी पत्नी और बच्चों के रूप में, कभी सुन्दरता के रूप में,कभी ज्ञान और पद के अहंकार के रूप में,कभी दानी और त्यागी के रूप में,कभी साधू और सन्यासी होने के अहंकार के रूप, यानि यह माया किसी न किसी रूप में जीव से लिपटी ही रहती है ।
                                                             जीव नित्य मुक्त है । पर माया के आवरण के कारण वह अपने को कीर और मरकट की तरह यह मानता है कि संसार उसे पकडे हुए है । जब कि वास्तिविकता यही है कि संसार उसे नहीं पकड़े,वही संसार को पकड़े हुए है । शिकारी तोते{कीर}को पकड़ने के लिए एक रस्सी के ऊपर पोपली [पोला बांस] चढ़ा देता है और नीचे तोते का प्रिय खाद्य मिर्च डाल  देता है । तोता जैसे ही मिर्च के खाने के लालच में पोपली के ऊपर बैठता है, पोपली पलट जाती है और तोता सिर के बल नीचे लटक जाता है । तोता यह समझता है कि पोपली ने उसे पकड़ लिया है, जब कि वास्तविकता यह है कि वह पोपली को पकड़े हुए है । वह पोपली को छोड़ दे तो वह नित्य मुक्त है पर वह माया के आवरण के कारण पोपली को छोड़ नहीं पाता और यह काल रूपी शिकारी उसे पकड़ कर अपने साथ ले जाता है ।
                                                               ठीक यही स्थिति मरकट [बंदर] की होती है । शिकारी उसको पकड़ने के लिए, एक सकरे मुंह का घड़ा[सुराही], जमीन में गाड़ देता है और उस घड़े में बंदर का प्रिय खाद्य [चने] डाल देता है ।बंदर चने के लालच में घड़े में हाथ डालकर, चने अपनी मुट्टी में भर लेता है । अब मुट्टी सुराही  का मुहं सकरा होने के कारण, निकल नहीं पाती तो वह समझता है कि घड़े ने उसे पकड़ लिया है और तभी काल रूपी शिकारी आकर उसे पकड़ लेता है । यदि बंदर चनों का लालच छोड़ कर  मुट्टी खोल दे तो वह जीव की तरह नित्य मुक्त तो है ही ।
                                                                इसी माया के आवरण के कारण जीव समझता है कि संसार उसे पकडे हुए है, जबकि वास्तविकता यही है कि जीव संसार को पकडे हुए है । जीव पुरुषार्थ के द्वारा इस माया के पार नहीं जा सकता । इसके लिये उसे प्रभु की शरणागति स्वीकार करनी पड़ेगी, तभी वह इस माया के आवरण को भेदने में समर्थ हो सकेगा । भगवान गीता में स्पष्ट घोषणा कर रहे हैं,"मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते" पर हम भगवान को तो मानते है पर भगवान की कही बात पर विश्वास नहीं करते । यही हमारे दुःख का कारण है । इसके लिए हम ही दोषी हैं, कोई दूसरा नहीं ।

                                                                 शेष प्रभु कृपा ।


Monday 18 June 2012

ईश्वर अंश जीव अविनाशी

" ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन,अमल,सहज सुख राशी |" यह जीव ब्रह्म की ही तरह अविनाशी है | इसका कभी भी नाश नहीं होता | नाश शरीर का होता है आत्मा का नहीं | "वासांसि जीरणानि   यथा विहाय,नवानि गृह्णाति नारोपराणि | तथा शरीराणि विहाय जीर्ण|न्यन्यानि  संयाति नवानि देहि |" जिस प्रकार नर, वस्त्र पुराने हो जाने पर, नए वस्त्र ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार जीव, शरीर पुराना हो जाने पर, नया शरीर ग्रहण कर लेता है | इसी तरह जैसे ब्रह्म शाश्वत है,उसी तरह जीव भी शाश्वत है | जन्म शरीर का होता है,नाश शरीर का होता है,जीव का नहीं,"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: | अजो नित्य: शाश्वतोयम पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे |"  इसलिए जिस तरह ब्रह्म का कभी भी नाश नहीं होता, उसी प्रकार जीव का भी कभी नाश नहीं होता |
                                                                               जिस प्रकार से ईश्वर या ब्रह्म चेतन है उसी प्रकार जीव भी चेतन है | जीव के चेतन होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि शरीर से जीव के निकल जाने के बाद, शरीर जड़ हो जाता है | इसका अर्थ यही हुआ कि शरीर में जो चेतनता थी, उसका कारण जीव था | जिस तरह से सारी प्रकृति जड़ है | इस जड़ प्रकृति को चेतनता प्रदान करती है,ब्रह्म की उपस्थिति | ब्रह्म के प्रकाश से ही, प्रकृति प्रतिभासित होती है,उसी प्रकार जीव की उपस्थिति ही जड़ शरीर को प्रतिभासित करती है |
                             
                                                  जिस प्रकार ब्रह्म अमल है | यानि मल रहित या विकार रहित है | उसी प्रकार जीव भी अमल है,यानि मल या विकार रहित है | जीव जब ब्रह्म से उसके अंश के रूप में धरती पर आता है तो वह अपने मूल की ही तरह अमल एवं विकार रहित होता है | जिस तरह पानी की बूंद जब बादल से अलग होती है तो वह एकदम शुद्ध होती है पर धरती का स्पर्श होते ही वह मटमैली हो जाती है उसी प्रकार जीव के  भी धरती पर आते ही, माया उससे लिपट जाती है | " भूमि परत भा ढाबर पानी. जिम जीवहि माया लिपटानी |"
                                                                                 जिस प्रकार ब्रह्म सहज है उसी प्रकार जीव भी सहज है | जीव में असहजता आती है माया के कारण | माया का विस्तार इतना व्यापक है कि उससे पार पाना जीव के लिए पुरुषार्थ के द्वारा संभव नहीं है, इसके लिए जीव को प्रभु के शरण में जाना ही पड़ेगा, "मामेव ये प्रपद्यन्ते, मायामेतां तरन्ति ते"  
                                                                                 जिस प्रकार ब्रह्म  सुख की राशि है, उसी प्रकार जीव भी सुख की राशि है | ब्रह्म को वेदों ने "रसो वै स:" यानि ईश्वर या ब्रह्म, रस यानि आनंद का ही स्वरुप है | ईश्वर को सुख का सागर कहा गया है और इसी सुख के सागर से ही हमारी उत्पत्ति हुई है | जिस वस्तु की उत्पत्ति जहाँ से होती है, उसे अपने उद्गम स्थल से मिलकर अपार सुख का अनुभव होता है | दीपक की लव में प्रकाश सूरज का ही अंश है, इसलिए दीपक की लव उर्ध्वमुखी होती है,अपने उद्गमस्थल सूर्य से मिलने के लिए आतुर, क्योंकि उससे मिलकर अपने अस्तित्व का तिरोहण करने में ही उसे सुख की अनुभूति होती है | इसी प्रकार जल की उत्पत्ति सागर से होती है अत: जल के हर बूंद की यही कामना होती है कि वह सागर में मिलकर अपने अस्तित्व की समाप्ति कर दे क्योंकि इसी में उसे सुख की अनुभूति होती है |
                                                                                   यह विषय इतना व्यापक है कि वेदों ने भी नेति-नेति कहकर अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी है, अत: मैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर कुछ बातें आपसे कहकर अपनी बात समाप्त  करता हूँ | जैसा कि उपरोक्त से यह स्पष्ट हो गया है कि हम उस ईश्वर के अंश के रूप में इस धरती पर आये हैं जो चेतन है,अमल है,सहज है और सुख की राशि है | पर धरती पर आते ही माया के वशीभूत होकर हम संसार में सुख की तलाश कर रहे हैं | हर जीव संसार में जो भी कर रहा है वह कर सुख के लिए ही रहा है | आप मकान बनवाते हो यह मानकर की यह आपको सुख देगा | आप धन इकट्टा करते हो यह सोचकर कि यह आपको सुख देगा | आप शादी करते हो यह मानकर कि पत्नी आपको सुख देगी | आप बच्चे पैदा करते हो यह मानकर कि यह आपको सुख देंगे | आप दान करते हो यह सोचकर कि इससे आपको यश मिलेगा, समाज आपको सम्मान देगा और उसमे आपको सुख मिलेगा | आप शराब भी पीते हो तो इसीलिए कि उसमे आपको सुख मिलता है | यह सब हम जो भी संसार में करते है वह सुख के लिए ही करते है क्योंकि सुखसागर से हमारी उत्पत्ति हुई है | हम भी सुख स्वरुप है | पर मेरे मित्रो यह सारा का सारा सांसारिक सुख ह्रास्य्मान है | इसके प्राप्त होते ही इसका क्षरण शुरू हो जाता है | एक उपनिषद् कहता है कि सारे संसार का राज्य,सारे संसार का वैभव, सारे संसार का सौंदर्य,सारे संसार का ज्ञान भी अगर प्राप्त हो जाये तो" तत: किम" | इस" तत: किम " में ही आपके समस्त प्रश्नों के उत्तर निहित है | आप के अंदर जिस दिन यह जिज्ञासा जग जाएगी कि "को अहम" उस दिन आप अपने उद्गमस्थल,सुखसागर की तलाश में निकल पड़ोगे और इसमें मिलने वाला सुख निरंतर वर्धमान होगा | इस यात्रा का समापन मूल उद्गमस्थल जो सुख का सागर है में अपने अस्तित्व के पूर्ण समर्पण से होगा और तब जीव कह उठेगा "सो अहम" |
                                                                                   आइये हम सब इस यात्रा का शुभारम्भ करें, भले ही हम इस जन्म में वहां तक न पहुँच पाए,पर कुछ कदम तो उस दिशा में चल ही लेंगे | अगले जन्म में यह कुछ कदम मंजिल की दूरी को कम करने में तो सहायक होंगे ही, क्योंकि भगवान गीता में स्पष्ट रूप से घोषणा कर रहे है,"नेहाभिक्रमनासोअस्ति प्रत्यवायो न विद्यते,स्वल्म अप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात" या "शुचीनाम श्रीमताम गेहे योग भ्रष्टो अभिजायते"
                                                                                    शेष प्रभु कृपा |

फादर्स डे पर

मुझे नहीं है याद अपने पिता की
क्योंकि जब उन्होंने शरीर छोड़ा था
तब मैं मात्र 6 माह का था  ।
माँ के पूजा भवन में रक्खी
उनकी एकमात्र फोटो ही
मेरी स्मृतियों में जीवित है ।

और जीवित है
माँ के द्वारा पिता के विषय में दी गयी जानकारी
कि वह इतने खूबसूरत थे कि शादी में उनके दूलह रूप को देखने के लिए
उमड़ आया था पूरा गाँव
कि मेरे पिता जितने शरीर से खूबसूरत थे
उससे भी ज्यादा खुबसूरत था
उनका मन ।
मैं आभारी हूँ
मैं अपने उस पिता का
जो मुझे इस धरती पर लाये थे ।
रक्त में मिले संस्कारों के लिए
मैं
कभी भी ऋण मुक्त नहीं हो सकता ।
पिता के जाने के बाद
मेरे सबसे बड़े भाई
जिनकी उम्र उस समय 12 वर्ष की थी
ने
कभी भी नहीं महसूस होने दिया
पिता का अभाव ।
माँ और बड़े भाई के रहते
मैंने कभी भी नहीं महसूस किया
अपने को अनाथ ।
हाँ
पहिले माँ और फिर बड़े भाई के जाने के बाद
मैंने पहिली बार महसूस किया था
अपने को अनाथ ।
इतना बड़ा शून्य मेरी जिन्दगी में आ गया था
कि जीवन निरर्थक लगने लगा था ।
पर तभी मेरे अकारण करुणा वरुणालय प्रभु
ने
मेरे जीवन के उत्तरार्ध में
भेज दिया गुरु के रूप में
मेरे उस पिता को जो मुझे 6 माह की उम्र में
छोडकर चले गये थे ।
मेरे प्रभु ने
ब्याज के साथ लौटाया था मेरे पिता को ।
जीवन भर पिता के वात्सल्य के लिये
तरसा मेरा मन
आप्लावित हो गया था
गुरु रूपी पिता के
अकथनीय,अतुलनीय
उस अनुराग से
जिसमें
पुत्र की गलतियों को
क्षमा करते हुए
वात्सल्य की कभी न खत्म होने वाली  शीतल वर्षा थी ।
और थी अपने शिष्य को
जीवन की सार्थकता का बोध करा देने की
आकुलता और व्याकुलता ।
जीवन के यह 8 वर्ष
यदि मेरे जीवन से निकाल दिए जाये
तो शेष शून्य ही बचेगा ।
अब
उनके जाने के बाद
अपने प्रभु से
समय-समय पर
पूंछता रहता हूँ
कि जब उनसे बिछड़ना ही मेरा प्रारब्ध था
तो उनसे मिलवाया ही क्यों था ?
                                                                                                             शेष प्रभु कृपा ।

Friday 18 May 2012

मेरे गुरु की अतीन्द्रिय शक्तियां

    आज से करीब ९ वर्षों पूर्व मैं अपने इस जीवन के गुरु के संपर्क में आया था | संपर्क में आने की घटना भी इस तरह घटी कि मैं कार्यालय से घर लौट रहा था, रास्ते में मेरे एक मित्र का ऑफिस पड़ता था | मैंने सोचा कि अगर वह घर चलना चाहे तो उन्हें भी लेता चलूँ | हम दोनों के घर पास-पास ही थे | यह घटना संभवत: अक्टूबर,२००३ की है | मुझे प्रयाग आये तीन महीने हो चुके थे | मैं मित्र के ऑफिस पहुंचा तो मित्र खाली थे, मैंने उनसे घर चलने के लिए पूंछा तो वे बोले कि बैठो और इनसे मिलो यह है श्री लक्ष्मीनारायण जी, यह भागवत बहुत अच्छी कहते हैं | मैंने कहा कि ऑफिस तो खाली है कुछ अपने मित्र से सुनवाइये | लक्ष्मीनारायण जी ने पूंछा कि क्या सुनेंगे ? मैंने कहा कि" गोपीगीत " सुनाइये तो उन्होंने कुछ श्लोक सुनाये, बहुत ही अच्छा लगा | मैंने उनसे कहा कि अब आगे कब शुभ अवसर प्राप्त होगा ? तो उन्होंने कहा कि वे जब भी प्रयाग आते हैं तो सुबह संगम स्नान के बाद ब्रह्मचर्य आश्रम में स्वामी जी के पास जरुर बैठते हैं वहां पंडित रामकृष्ण शास्त्री भी आते है जो कि आज के समय के मूर्धन्य विद्वानों में है | स्वामी जी के सानिध्य में सत्संग हो जाता है | अत: यदि मैं सत्संग का एवं एक अच्छे महात्मा के दर्शन का लाभ उठाना चाहता हूँ तो कल सुबह वही आ जाऊं |
                                                                      इस तरह मैं स्वामी जी के सम्पर्क में आया | उनसे मिलने के बाद मुझे लगा कि प्रभु ने मुझे अपने गुरु से भेंट कराने के लिए ही,  प्रयाग की पवित्र भूमि में भेजा है | शुरू  में स्वामी जी ज्यादा  देर आश्रम में बैठने नहीं देते थे | मेरे साथ ही नहीं, अन्य नवागुन्त्कों के साथ भी वह यही करते थे | मैं अपनी पत्नी को भी साथ ले जाने लगा था | एक दिन घर से निकलते समय पत्नी ने कहा कि पहिले संगम चलेंगे तब स्वामी जी के पास आयेंगे | मैंने कहा ठीक है, पर पता नहीं कैसे हुआ कि मेरे दिमाग से यह बात उतर गयी और मैं सीधे आश्रम पहुँच गया | आश्रम में बाइक खड़ा भी न कर पाया था कि स्वामी जी ने अंदर से आवाज दी कि पहिले हम संगम हो आये, संगम में प्रणाम करने के बाद ही आश्रम आयें | हम दोनों आश्चर्यचकित रह गए कि इन्हें कैसे मालूम हो गया कि हम घर से पहिले संगम जाने की सोंच कर ही चले थे | इसी तरह एक दिन और हुआ घर से सोचकर चले कि पहिले हनुमान जी को प्रणाम करके तब स्वामी जी के पास बैठेंगे, उस दिन भी जाते ही स्वामी जी ने पूंछा कि हनुमान जी को प्रणाम कर आये ? हमने कहा कि अभी नहीं तो वे बोले कि पहिले हम हनुमान जी को प्रणाम कर आये तब उनके पास आये |
                                                                       आश्रम आना जाना शुरू  हो गया था पर ज्यादा देर रुकने नहीं देते थे | एक दिन पत्नी ने कहा कि आज जाने को कहें तो तुम उठना नहीं | मैंने कहा कि कहीं नाराज हो गए तो पत्नी ने कहा ऐसा कुछ नहीं होगा | हम गए, जब थोड़ी देर हो गयी तो उन्होंने जाने का इशारा किया पर हम अनदेखी करके बैठे रहे तो उन्होंने मुखर होकर पूंछ लिया कि अब जाओगे नहीं | मैं कुछ कहता कि इससे पहिले ही पत्नी बोल पड़ी, अभी थोड़ी देर और बैठेंगे | स्वामी जी खुल कर हँसने लगे | इसके बाद हमारा रास्ता खुल गया और एक दिन वह भी आ गया कि जब स्वामी जी चाहते थे कि हम उनके पास हमेशा मौजूद रहें |
                                                                        यह भी शुरुवात  की ही बात है मैं देखता था कि कभी भी कोई भी अभ्यागत भिक्षा की आशा से आश्रम आता था तो स्वामी जी उसका हृदय से स्वागत करते | यदि कोई गेरुआ वस्त्र में होता तो उसे स्वयम खड़े होकर प्रसाद खिलवाते और जैसे ही वह महात्मा प्रसाद पा चुकते तो स्वामी जी उनके सामने हाथ जोडकर खड़े हो जाते और उनसे पूंछते कि महाराज जी आपने प्रसाद पा लिया ? उनके यह पूंछने का अर्थ ही यही होता था की प्रसाद पा लिए तो अब बैठे क्यों है ? अपने गंतव्य की और प्रस्थान कीजिये | मुझे यह बहुत अजीब सा लगता की स्वामी जी प्रसाद तो बहुत प्रेम से पवाते है पर प्रसाद पाने के बाद किसी को भी दो मिनट आश्रम में रुकने नहीं देते | उनके इस कृत्य का औचित्य मेरी समझ से बाहर था ? तभी एक दिन आश्रम में मेरे अलावा जब कोई नहीं था, स्वामी जी अचानक इस तरह बोलने लगे कि जैसे आत्मालाप कर रहे हों, भाई मैं जो मेरे आश्रम में प्रसाद पाने कि इच्छा  से आता है उसे मैं यह समझ कर प्रसाद पवाता  हूँ कि इसके अंदर बैठे मेरे प्रभु ही प्रसाद पा रहे है | प्रसाद पाने के बाद मैं उसे रुकने इसलिए नहीं देता कि वह या तो अपने गुरु भाईयों की बुराई करेगा या अपने आश्रम की बुराई करेगा, उसे इस अपराध से बचाने के लिए और मेरे अंदर उसके साधुवेश को देखकर जो श्रद्धा उत्पन्न हुई है वह नष्ट न हो, इसलिए मैं प्रसाद पाने के बाद उसे रुकने नहीं देता | जिनको मुझे जानकारी होती है कि यह सत्संग के लिए रुकना चाहते है, उनके प्रति मेरा व्यवहार अलग होता है | अब किसी को अच्छा लगे या बुरा जो मैं ठीक समझता हूँ, वह करता हूँ | मैं समझ गया कि यह मेरे मन में उठ रहे प्रश्न का समाधान किया गया है | इसके बाद कभी भी मैंने उनके किसी भी कृत्य का औचित्य तलाशने का प्रयास नहीं किया | गुरु वशिष्ठ के मन में पहिले भरतजी को लेकर शंका पैदा हुई पर बाद में गुरु वशिष्ठ को यह कहना पड़ा," समुझब कहब करब तुम्ह जोई, धरम सारु जग होइहि सोई ||"
                                                              स्वामी जी ने एक बार बताया  था कि वह १३ वर्ष की उम्र में घर छोड़ दिए थे | शुरू में उन्हें तंत्र विद्या सीखने का शौक चढ़ा तो वह एक तांत्रिक के यहाँ जाना शुरू  ही किये थे कि तभी एक दण्डी सन्यासी ने उन्हें बुलाकर खूब डाटा और कहा कि तुम ब्राह्मण के घर में पैदा होकर यह निकृष्ट विद्या सीखना चाहते हो? तुम भगवान की सात्विक भक्ति करो वही तुम्हारे लिए कल्याणकारी होगी | स्वामी जी इसके बाद कभी भी तांत्रिक के यहाँ नहीं गए | पर जो वह कुछ दिन गए थे, उसका ज्ञान तो उनके मानस पटल पर अंकित था ही | स्वामी जी के पास जब भी कोई अपनी सांसारिक समस्याओं को लेकर आता था तो स्वामी जी या तो वैदिक मन्त्रों का जप करने को कहते थे या भगवान के नाम जप के लिए कहते थे या रामचरित मानस की कोई पंक्ति बताकर उसको जाग्रत करने का तरीका बताकर, उसका जप करने के लिए कहते थे | वह हमेशा यही कहते थे कि प्रभु से आर्त भाव से  मांगो, प्रभु तुम्हारे उपर अवश्य कृपा करेंगे | वह यह कभी नहीं कहते थे कि जाओ तुम्हारा काम हो जायेगा | वह यही कहते थे कि भगवान  आराधना तुम्हे स्वयम करनी पड़ेगी | ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम भगवान को सच्चे दिल से पुकारो और भगवान तुम्हारी आर्त पुकार को अनसुना कर दें |
                                                                मैंने ८ वर्षों में केवल दो बार उन्हें अपनी अतीन्द्रिय शक्तियों का प्रयोग करते हुए देखा | दोनों बार उनके पुराने शिष्यों को अपने लापता बच्चों की चिंता में बिलखकर रोते देखकर, वह मजबूर हो गए थे अपनी इन शक्तियों का प्रयोग करने के लिए | दोनों ही मामलों में शाम को ही वह लोग आये थे और दोनों को ही स्वामी जी ने अगली सुबह बुलाया था | इत्तिफाक से दोनों मामलों में मैं शाम और सुबह दोनों टाइम मोजूद था | एक मामले में स्वामी जी ने कोई स्पष्ट उत्तर न देकर,भगवान की आराधना करने और यह कहकर कि भगवान भला करेंगे, से बात को ख़त्म कर दिया था | उनके जाने के बाद जब मैंने स्वामी जी से पूंछा कि आपने स्पष्ट क्यों नहीं बताया तो स्वामी जी बोले कि क्या उसकी माँ अपने बच्चे के मृत्यु के समाचार को बर्दास्त कर पाती, उसका बिलखना तुम सुन नहीं रहे थे | अब कम से उसे बच्चे के आने की आशा, जीने के लिए संबल तो प्रदान करती रहेगी | दूसरे मामले में उन्होंने कह दिया था की बच्चा कल घर आ जायेगा और बच्चा आ गया | वे लोग बच्चे को लेकर स्वामी जो को प्रणाम करने लाये और स्वामी जी के परती आभार प्रदर्शन करते हुए कुछ धनराशि देनी चाही तो स्वामी जी बोले मैंने इसमें कुछ नहीं किया है | हनुमान जी की कृपा से तुम्हारा बच्चा वापस आया है, यह पैसा उठाओ और जाकर हनुमान जी को प्रसाद चड़ाओ | वह सारा प्रसाद गरीबों में बाँट देना | उनके बहुत आग्रह करने के बाद भी स्वामी जी ने उनसे कुछ ग्रहण नहीं किया | ज्यादा जिद करने पर स्वामी जी ने उन्हें तुरंत आश्रम से जाने के लिए कह दिया | उनके जाने के बाद स्वामी जी बोले इनके लिए मुझे वह करना पड़ा जो मुझे नहीं करना चाहिए था |
                                                                  शेष प्रभु कृपा |

Sunday 13 May 2012

मदर्स डे पर ।

माँ,
जो स्वयं
सो कर
गीले में
सुलाती है
बच्चों को
सूखे में ।
माँ,
जो बच्चों को
चिपकाकर
सोती है
छाती से
और
कुनकुनाते ही बच्चों के
जाती है जग ।
माँ,
जो बच्चों को
कभी नहीं सुलाती
पीठ की तरफ
क्योंकि
उसे याद है
भगवान शंकर का वह आदेश
जिसमें उन्होंने कहा था अपने गणों से
कि जो माँ 
पीठ करके सोयी हो
बच्चों की तरफ
काटकर उसकी गरदन
जोड़ दो उसे
गणेश के धड के साथ ।
माँ,
जिसे हमेशा यह चिंता रहती है
कि लापरवाह है उसका बच्चा
खाने-पीने के प्रति
जिसके कारण वह होता जा रहा है
दुबला ।
माँ,
जो बच्चे से दूर होने पर   
करती रहती है
आत्मालाप
सुबह से शाम तक
पता नहीं
बहू ने नाश्ता बनाया होगा या नहीं ?
कहीं बगैर नाश्ते के वह ऑफिस न चला गया हो ?
पता नहीं लंच पर घर आया हो या काम में उलझा हो ?
शाम तक फोन न आने पर
उसका आत्मालाप हो उठता है
मुखर
"जब उसको हमारी चिंता नहीं है
तो मैं ही क्यों करूँ ?"
इतना कहकर
टीवी खोलकर
या कोई धार्मिक पुस्तक लेकर
जाती है बैठ
पर कान
फोन की घंटी पर ही लगे रहते हैं ।
माँ,
जो कछुए की तरह
अहर्निश चिन्तन करती है
अपने बच्चों का ।
माँ,
जो
महीने में १० दिन व्रत  करती है
बच्चों के लिए ।
माँ,
जो
तीर्थ यात्राओं में
तीर्थों से मांगती है
केवल और केवल
बच्चों का कल्याण ।
माँ,
जो
बच्चों पर जरा सा भी संकट आने पर
तुरंत जाती है पहुँच
शरण में
माँ संकटा देवी के ।
माँ,
जिसे
अपनी बहू नासमझ
और लड़का समझदार लगता है ।
माँ,
जिसे
अपनी लड़की समझदार
और दामाद  नासमझ लगता है ।
माँ,
जिसके लिए
हमने एक दिन निश्चित कर दिया है ।
माँ,
उस दिन का इंतजार करती है
बेसब्री से
कब सुबह हो ?
कब बच्चों के मुख से " हैप्पी मदर्स डे"
सुनने को मिले और वह धन्य हो जाये ।
कितने आधुनिक हो गए हैं हम
भूल गए हैं हम
अपनी सारी परम्पराएँ ।
भूल गए है
अपने सांस्कृतिक मूल्य ।
हम,
उस संस्कृति के वाहक हैं
जहाँ
सुबह उठकर
धरती माँ पर चरण रखने के पहिले
मांगी जाती है क्षमा माँ से
"समुद्र वसने देवि,पर्वत स्तन मंडले,
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यम्, पाद स्पर्शम क्षमस्व मे "।
पृथ्वी माता से मांगने के बाद क्षमा
सबसे पहिले प्रणाम किया जाता था
जननी को ।
और उसके बाद नंबर आता था
पिता और गुरु का
"प्रातकाल उठके रघुनाथा,मातु,पिता,गुरु नावहिं माथा"।
हम,
वाहक है उस संस्कृति के
जहाँ माता का स्थान सर्वोपरि था ।
माँ,
जिसे पूरा अधिकार था
पिता के आदेश में संशोधन करने का
"जौं केवल पितु आयुष ताता, तौं जनि जाहु जानि बड़ि माता
जौं पितु-मातु कह्यो बन जाना, तौं कानन सत अवध समाना "
मुझे माफ़ करना
मेरे देशवासियों
मैं,
नहीं मना पाउंगा
तुम्हारे साथ "मदर्स डे"
क्योंकि
मेरी माँ
मेरी हर साँस में बसती है
जीवन की अंतिम साँस तक
ऋणी रहूँगा
मैं,
अपनी माँ का
कोई भी आभार प्रदर्शन
नहीं मुक्त कर सकता मुझे
अपनी जननी के ऋण से
                             
                                                  शेष प्रभु कृपा |

Monday 30 April 2012

नर्मदा का अप्रतिम सौंदर्य

आज बहुत दिनों बाद माँ नर्मदा की गोद में अठखेलियाँ करने का मौका मिला । प्रयाग छूटने के बाद माँ गंगा की गोद छूट गयी थी । आज इतने दिनों बाद माँ की गोद में मुहँ छिपाकर उसको गुदगुदाने का सुख स्वामी वियोगानंद जी की कृपा से प्राप्त हो सका । कई बार नर्मदा जिले के सरदार सरोवर के पास स्थित आनंद आश्रम में आने का तथा स्वामी जी के दर्शन तथा उनके सत्संग का लाभ मुझे प्राप्त हो चुका था । मैंने स्वामी जी से दो-चार दिन आश्रम में रहकर उनके श्री वचनों से लाभान्वित होने की इच्छा प्रगट की तो उन्होंने अपनी अनुमति  प्रदान कर दी पर मैं जिन तिथियों में आना चाहता था, उन तिथियों में स्वामी जी उपलब्ध नहीं थे । मैं स्वामी जी की उपस्थिति में ही रहना चाहता था पर स्वामी जी ने कहा तुम एक बार यहाँ रहकर देखो तो माँ नर्मदा तुम्हे वह सब कुछ प्रदान करेंगी जो तुम मेरी उपस्थिति में पाना चाहते हो ।

                                   मैं उनका आदेश मानकर तीन दिन पूर्व यहाँ आ गया था और यहाँ आकर लगा कि स्वामी जी ने ठीक ही कहा था । माँ नर्मदा ने मुझे जिस तरह मुझे दुलारा, उससे माँ गंगा से पिछले चार महीने से बिछड़ने के कारण जो जड़ता आ गयी थी, वह टूटी और जीवन में फिर से उत्साह का संचार हुआ ।

                                     स्वामी कृपालानंद जी ने अपनी साधुता और अपनी प्रबंधकीय क्षमता से अभिभूत कर दिया । स्वामी कृपालानंद जी की कृपा से एक अन्य दार्शनिक सन्यासी स्वामी भारती जी से, उनकी दार्शनिक कविताओं के श्रवण का दुर्लभ संयोग प्राप्त हुआ । स्वामी भारती जी की एक बात ने बहुत प्रभावित किया वह यह कि उन्होंने सामने वाले को अपने विचारो से असहमत होने की पूरी स्वतंत्रता, ईमानदारी के साथ प्रदान की । स्वामी भारती जी की कविताओं की आश्रम में प्रमुख श्रोता आदरणीया माता जी का श्वेतवर्ण अभिजात्य एवं गरिमा नमन के लिये विवश कर देती है । तिवारी और बलबीर का सेवा भाव,आज के समय में कम देखने में आता है ।

                                     आज प्रात: माँ नर्मदा से जी भरकर खेलने के बाद उनके अप्रतिम सौंदर्य को देर तक निहारता रहा और तब लगा कि माँ नर्मदा को चिर कुंवारी इसीलिये कहा गया कि इनका अप्रतिम सौंदर्य, अक्षत है । माँ नर्मदा को प्रणाम करके जब विदा ले रहा था,तब भाई पहारिया जी के दो गीतों के दो बन्द याद आये," नदी रोज पूंछा करती है ऐसे क्यों चल दिये अकेले, एक वहां अनजान नगर है यहाँ भावनाओं के मेले ।"

" अच्छा नदी मुझे चलने दो, मेरा नगर भले जंगल हो । उम्र वहीँ बीतेगी मेरी, जीवन भले वहां दंगल हो ।"

                                      स्वामी वियोगानंद जी की श्री वाणी सुनने की प्यास लिये माँ नर्मदा से करबद्ध प्रार्थना के साथ विदा लेता हूँ कि माँ मुझे जल्दी ही अपने पास बुलाना क्योंकि माँ गंगा ने मेरी ऐसी आदत ख़राब कर दी है कि बगैर माँ के दुलराये जीवन नीरस हो जाता है ।

                                                                                                                शेष प्रभु कृपा ।

Friday 27 April 2012

जीवन में व्यवहारिक नियमों का पालन अति आवश्यक है |

"सीय-राम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी" या "सब देखहिं प्रभुमय जगत केहि सन करहिं विरोध" जब तक जीव इस भाव भूमि पर स्थापित न हो जाये तब तक उसे जीवन में व्यवहारिक नियमों का पालन अवश्य करना चाहिये, नहीं तो उसका जीवन नरक हो जायेगा । कार्यालय में यदि आप सहकर्मियों में अपने प्रभु का दर्शन करने लगे तो स्वाभाविक है कि आप न तो उनसे कड़े शब्दों का प्रयोग ही कर पाएंगे और न ही उनकी लापरवाही के प्रति कोई दंड ही दे पाएंगे । प्रभु को भी लीला के लिए ही सही यह कहना पड़ा,"विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत । बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीति ।"अम्मा कहा करती थी कि प्रेम मन की गहराइयों  में छिपा कर रखना चाहिए ऐसा मेरे पिताजी कहा करते थे । अनुशासन बनाये रखने के लिये, हर रिश्ते में एक फासला होना जरुरी है । अपने वक्त के एक  महान संत ने यह कहा था कि शिष्य को अपने गुरु के बहुत नजदीक नहीं जाना चाहिए, हमेशा दोनों के बीच में एक फासला आवश्यक है । गुरु यदि शिष्य को मुहँ लगा लेता है तो किसी न किसी दिन शिष्य के द्वारा, अनचाहे ही गुरु का अपमान हो जायेगा । यह बात सभी रिश्तों में लागू होती है । चाहे वह पति-पत्नी का रिश्ता हो चाहे पिता-पुत्र का, पिता- पुत्री का, चाहे सास-बहू,श्वसुर-बहू का , चाहे मालिक-नौकर या राजा और प्रजा का हो, हर रिश्ते की गरिमा बनाये रखने के लिये उनके बीच एक फासला होना बहुत जरुरी है । सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है कि बहू को अपनी बेटी की तरह ही समझना चाहिए । आप लाख उसे बेटी समझ लें पर वह शायद ही आपको अपने माता-पिता की तरह  अन्तरंग समझ सके । एक प्रबुद्ध महिला ने एक बार कहा था कि यह कोशिश आप करते ही क्यों है ? दोनों रिश्ते अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण है । दोनों को अलग-अलग  ही रहने दें । यही बात पुत्र और दामाद के रिश्ते में भी लागू होती है । दामाद को पुत्र की तरह प्यार तो दो पर उससे पुत्र की तरह अपेक्षा मत करो ।
                                                                                               शेष प्रभु कृपा 

Sunday 5 February 2012

विवाह की ३६ वीं वर्ष गांठ पर

आज से ३६ वर्ष पूर्व 
अंनंत आकाश में 
कुलांचे भरने वाला 
यह मुक्त प्राणी 
जकड़ दिया गया था 
बन्धनों में ।
और यह बंधन का स्वीकार 
उसका स्वयं वरित था 
क्योंकि 
थक जाने पर 
इस मुक्त प्राणी ने 
जब भी किसी आधार का सहारा लेकर 
विश्रांति पानी चाही 
तब-तब आधारों ने सहारा देने की बजाय
दिया था उसे 
मानसिक यंत्रणा, त्रास और विश्वासघात का दंश 
तब मुझे लगा 
कि मैं नहीं सम्हाल पाउंगा 
अपना मानसिक संतुलन 
मेरी माँ
हाँ मेरी प्यारी-प्यारी वह माँ 
जिसने युवा अवस्था से ही झेली थी 
वैधव्य की पीड़ा 
जिसकी जाने कितनी आशाएं,आकांक्षाएं टिकी  थी 
मेरे ऊपर 
माँ जो मेरा विवाह संपन्न कराकर 
मुक्त होना चाहिती थी 
अपने सामाजिक,पारिवारिक,भौतिक 
अंतिम उत्तरदायित्व से 
माँ 
जिसका चेहरा उदास रहने लगा था 
मेरे लगातार विवाह से इंकार करने पर 
और तभी 
विक्षिप्तता  की ओर तेजी से बढ़ रहा 
मैं 
कांप उठा यह सोंचकर 
कि यदि मैं ठीक नहीं रख पाया अपना मानसिक संतुलन 
तो जीवन भर अपने बच्चों के लिए संघर्ष करती रही 
मेरी माँ 
कैसे रह पायेगी मेरे बिना ?
और तब मैंने सिर झुका कर मान लिया 
अपनी माँ का आदेश 
और इस तरह तुम मेरे जीवन में 
आयी थीं 
मेरे तीन बच्चों की माँ 
मेरी दुर्गा, मेरी सुशी 
५-२-१९७६ का अंक ३ था
५-२-२०१२ का अंक भी ३ है 
और आज ३६ वर्ष का अंक ९ है 
जो कि बहुत ही शुभ अंक माना जाता है 
क्योंकि यह पूर्णांक का द्योतक है 
३६ वर्षों तक 
मुझ जैसे व्यक्ति को 
झेलने का अप्रतिम साहस 
जिसने दिया है तुमको 
उसके लिये आभारी हूँ 
मैं 
अपने प्रभु का, अपने गुरु का, अपनी माँ का,अपनी मम्मी का 
और तुम्हारा भी 
हाँ तुम्हारा भी 
क्योंकि 
तुमने दिये हैं 
मुझे 
प्यारे-प्यारे ३ संस्कारित बच्चे 
जिन्होंने दिये  हैं 
मुझे 
माँ काली, माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती की अवतार 
कात्यायनी,श्राव्या और मनस्विनी जैसी 
प्यारी-प्यारी राजकुमारियां 
जिनका कोमल स्पर्श 
जिनकी निश्छल हंसी 
भर देती है न ख़त्म होने वाली ऊर्जा से 
मुझे अंदर तक 
और एक स्निग्ध तरलता में 
आकंठ डूब जाता हूँ 
मैं 
इसके लिये मैं आभारी हूँ 
तुम्हारा 
मेरी प्यारी-प्यारी सुशी


Saturday 4 February 2012

मनस्विनी की प्रथम वर्षगांठ पर

मैं 
ख्वाबों में, खोई  अपनी बिटिया को
"उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधयत "
का मंत्र सुनाने आया हूँ ।
मैं 
उसको 
उसके पुरखों की 
या स्वर्णिम परम्परा के वाहक होने की 
याद दिलाने आया हूँ ।
तुम आयी थी 
आज धरा पर 
जो मेरी संस्कृति का उल्लास पर्व है ।
यह स्रष्टि के पांचो तत्वों का 
राग पर्व - अनुराग पर्व है ।
आकाश की नीलाभ निर्भ्रता
शीतल मंद सुगन्धित मलयानिल की स्पर्शयता
आम्र मंजरियों की शीतल दाहकता
नदियों के लहरों की स्निग्ध कोमलता 
और और और 
सरसों की पीली साड़ी पहिने 
गुलाबों की महावर लगाये 
बाहें फैलाये 
धरा की सुन्दरता 
व्याकुल है 
स्वागत करने को 
बसंत  का 
बसंतपंचमी 
जो साक्षी है 
माँ सरस्वती के अवतरण का 
बसंतपंचमी जो साक्षी है 
क्रान्तिदर्शी महाप्राण निराला के आगमन का 
यही तुम्हारी परम्परा है 
मेरी बच्ची
माँ सरस्वती की तरह 
मन और बुद्धि पर 
शासन हो तुम्हारा 
मेरी बच्ची 
माँ सरस्वती की ही तरह 
शुभ्र वसना होना 
मेरी लाड़ली
और उन्ही की वीणा की झंकार की तरह 
तुम्हारी वाणी 
मुरझाये उदास चेहरों में 
निराश टूटे दिलों में 
जीवन का उल्लास भर दे 
मेरी दुलारी 
नीर-क्षीर विवेकी बुद्धि रूपी हंस ही 
तुम्हारा वाहन बने ।
महाप्राण निराला की तरह 
दीन-दुखी लोगो को देखकर 
तुम्हारी आखों में जल हो 
और चेहरे पर व्यवस्था को बदलने का 
संकल्प 
यही आज के दीन मेरा आशीर्वाद है 
मेरी बच्ची,मेरी लाड़ली, 
अपने माँ-बाप की 
अपनी परम्पराओं की 
वाहक बनना 
मेरी राजकुमारी ।


Thursday 26 January 2012

गणतंत्र दिवस पर

२६ जनवरी,१९५० को मेरे देश को संवैधानिक आज़ादी प्राप्त हुई थी । बहुत सारे राष्ट्रों के संविधान का सम्यक मनन एवं चिंतन करने के पश्चात् हमारे राष्ट्र के चिंतक, मनीषियों, विधि वेत्ताओं एवं राज नेताओं ने मिलकर हमको एक सशक्त संविधान दिया था । उनके इस देय के लिये,आज के दिन मैं उन्हें कोटि-कोटि नमन करता हूँ । यह संविधान ही है जो हमारे मौलिक अधिकारों को तमाम झंझावातों के बाद भी सुरक्षित रक्खे हुए है । कितनी बार प्रयास नहीं किया गया हमारे मदांध शासकों द्वारा हमारे इन मौलिक अधिकारों को छीनने का ? अपनी सत्ता बचाने के लिये,इस राष्ट्र ने आपातकाल का एक ऐसा काल भी देखा है जो इतिहास के पन्नों में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया है । उस काल में दंशित हुए व्यक्ति आज भी उसे याद कर सिहर उठते हैं । यह इस देश के गणतंत्र का ही कमाल है कि उन मदांध शासकों को, इसका खामियाजा, सत्ता से च्युत होकर चुकाना पड़ा । उस समय भी इस गण की एक इकाई पूरी दबंगई के साथ मदांध शासको को खुली चुनौती दे रही थी,
    " कौन कहता है कि आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों "                        
  " कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिये, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिये 
     न हो कमीज तो पावों से पेट ढक लेगें, यह लोग कितने मुनासिब है इस सफ़र के लिये "
                            जब-जब भी व्यक्ति के संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों को छीनने का प्रयास किया गया है, यह गणतंत्र की ही ताकत थी कि उसने इनकी रक्षा की है । आज इतिहास से सबक न लेते हुए, फिर से इस तरह के प्रयास किये जा रहे है पर मैं आश्वस्त हूँ कि मेरे देश का गणतंत्र इतना मजबूत हो चुका है कि यह अब किसी के लिये भी संभव नहीं होगा कि वह इस देश की अस्मिता के साथ खिलवाड़ कर सके ।
                             शेष प्रभु कृपा ।
 
   

Tuesday 17 January 2012

अन्तर्भेदी द्रष्टि

                                                        मैं अपने गुरु जी की अनिच्छा के बावजूद पहिली बार बाहर गया था | लगभग २ वर्षों से गुरु जी अस्वस्थ चल रहे थे और पिछले डेढ़ वर्षों से उन्होंने मुझे कहीं भी बाहर जाने की अनुमति नहीं दी  थी | इस अन्तराल में ही मेरी दो भाभियों का शरीर शांत हुआ और एक भतीजी का विवाह भी हुआ, किन्तु अनुमति न मिल पाने के कारण मैं नहीं जा सका | इससे मेरे परिजन नाराज भी हुये | ४ दिसम्बर को मेरी छोटी बेटी के देवर का विवाह आगरा में था | वह महाराज जी का  भी कृपापात्र था, जब हम दोनों लोगो ने जाने की अनुमति मांगी तो उन्होंने मना कर दिया | जब मैंने कयी बार अनुरोध किया और यह कहा कि दोनों में से एक व्यक्ति भी न जायेगा तो अच्छा नहीं लगेगा तो उन्होंने बड़े बेमन से केवल मुझे जाने की अनुमति दी | मैंने  जब ६ दिसम्बर को वापिस आकर उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने बैठाने का इशारा किया | उन्हें बिठाकर मैं उनके सामने ज़मीन में बैठ गया | मेरी धर्मपत्नी उन्हें सहारा दिये उनके बगल में बैठी थी | मेरे गुरु अपनी अन्तर्भेदी द्रष्टि से मुझे लगातार देख रहे थे और मैं द्रष्टि की अन्तर्भेदी करुणा से इतना विगलित हो गया था कि उनकी तरफ न देखकर जानबूझकर दूसरी तरफ देख रहा था | मेरा मन कर रहा था मैं उनसे लिपटकर जी भरकर रो लूँ | मेरी पत्नी ने स्वामी जी से हास्य में कहा कि आप इन्ही को ज्यादा चाहते हैं, जो आपको छोड़कर आगरा चले गये थे और आप इन्ही को देखे जा रहे है | पत्नी ने मुझसे कहा कि जरा इधर देखो न | यह कैसे तुम्हारा मुँह निहारे पड़े है और तुम इधर देख भी नहीं रहे हो | मैं सब देख रहा था, सब सुन रहा था, पर जानबूझ कर अनदेखा, अनसुना कर रहा था क्योंकि वह अन्तर्भेदी द्रष्टि मुझे अंदर तक चीरे डाल रही थी और उसका सामना करने का साहस मुझमें नहीं था |
                                               विगत कुछ दिनों से मैं ऐसा महसूस कर रहा था कि गुरु जी मेरे चेहरे को निहारते  रहते हैं | इससे मुझे डर लगने लगा था कि कहीं यह उनके महाप्रयाण की पूर्व सूचना तो नहीं है | यही भाव मुझे अंदर तक कंपा जाता था | वही हुआ जिसका डर मुझे लगातार भयाक्रांत किये हुए था | ८ दिसम्बर को उन्होंने मुझे और मेरी पत्नी को सामाजिक संबंधों के निर्वहन के लिए मुक्त करते हुए, महाप्रयाण कर दिया | मैं और मेरी पत्नी दोनों महाप्रयाण के समय उनके पास नहीं थे |
                                                हम जब स्टेशन से अमित को लेकर निकल ही रहे थे कि आश्रम से सूचना आई कि हम तुरंत आश्रम पहुंचे | हमें होनी का आभास हो गया था और हम जब आश्रम पहुंचे तो उन्हें आसन में बिठाया जा चुका था | उनकी आँखे खुली हुई थी | वह उपर की ओर देख रहे थे | मुझे ऐसा लगा कि मानो वह मुझे जाते-जाते सन्देश छोड़ गये हैं कि अब तो मैं संसार को देखना छोड़ दूँ और उपर की तरफ देखना शुरूं कर दूँ जहाँ मुझे जाना है | यह संसार के प्रति मेरा मोह ही था जिसने अंतिम समय में मुझे उनसे अलग कर दिया था |
                                                  मेरे गुरु अंतिम समय तक मुझे मोह से उबारने का प्रयास करते रहे पर अभागा मैं आज तक इस मोह को अपने से अलग नहीं कर सका | बीच-बीच में विरक्ति का भाव प्रबल होता है पर तभी मोह अपने रूप बदल कर फिर से अपने बंधन में जकड़ लेता है | कभी नातिनो के रूप में, कभी पोती के रूप में | मेरे गुरु की अन्तर्भेदी द्रष्टि आज भी मुझे भेदती रहती है | कभी-कभी गहन निद्रा में वही द्रष्टि मुझे झिझोंढकर जगा देती है, जैसे मुझसे पूंछ रही हो, कब ख़त्म होगी मेरी प्रतीक्षा ? मेरे गुरु,मेरे प्रभु, मेरे पिता, मेरे भगवान मैं आभारी हूँ आपका और आपकी अन्तर्भेदी द्रष्टि का जो   आज भी इस नारकीय जीव को अपनी करुणा का दान देकर,निकालने के लिये व्याकुल है, इस नरक से | प्रभु मेरे बस का कुछ नहीं है | मेरे बस का होता तो जाने कब का तोड़ चुका होता इस मोह के बंधन को | तुम्हारी कृपा ही का सहारा है, मेरे प्रभु | मेरे उपर अपनी अहैतुकी कृपा की वर्षा कर दो मेरे स्वामी, मेरे प्रभु | यहाँ तक लाकर मुझे मझधार में न छोड़ो, मेरे भगवान | तुम अकारण करुणावरुनालय  हो मेरे उपर भी कृपा करके पार उतार दो, दीनदयाल |
                                         शेष प्रभु कृपा |

Monday 16 January 2012

मानस की चौपाई सी याद तुम्हारी आयी

मानस की चौपाई सी  याद तुम्हारी आयी
अंतस के सूनेपन में  गूंज  उठी  शहनायी 
                                                           कोने में दुबक गया संसय का सर्प
                                                           आँखों में बिहँस गया मनुहारा दर्प
गर्मीली   दोपहरी    ने   अंगुली  चटकायी
मानस की चौपाई सी याद तुम्हारी  आयी 
                                                            पूजा की थाली सा महक उठा  तन 
                                                            ऊषा की लाली सा चमक उठा  मन 
श्रमहारी     संध्या ने  आरती       सजायी
मानस की चोपाई सी याद तुम्हारी  आयी 
अंतस   के सूनेपन में  गूंज उठी  शहनायी
                                                         (विवाह के कुछ ही दिनों बाद लिखा गया गीत)

Thursday 12 January 2012

गुरूजी के महाप्रयाण पर

वह दिन भी आ गया जिसको लेकर पिछले कई दिनों से मैं सशंकित था | उनके महाप्रयाण के एक दिन पहिले मुझे उन्होंने आभासित करा दिया था | मैं रात्रि में उनके बगल में लेटा हुआ था | उस रात्रि उन्होंने घंटी नहीं बजायी | जब काफी देर हो गयी तो मैं सशंकित होकर उठा, देखा तो इशारे से मुझे बुला रहे थे | मैंने पूंछा कि बैठेगें ? मना कर दिया | थोड़ी देर में मैं लेट गया | लेटने के बाद बड़ी देर तक बेचैनी रही | मन में तरह-तरह के विचार आते रहे | इसके पहिले मेरी पत्नी काफी देर तक, बच्चो की तरह उन्हें लेकर बैठी रही,फिर उन्होंने लिटाने के लिए पूंछा तो मना कर दिया | तब उन्होंने कहा कि कल सबेरे जल्दी अमित को लेने जाना है, अत:आप लेट जाये तो हम भी थोड़ी देर सो लें | बड़ी अनिच्छा पूर्वक वह लेटे थे | यह सब सोच ही रहा था कि अचानक एक विचार बड़ी तीव्रता से बार-बार आने लगा कि कहीं यह स्वामीजी की सेवा की अंतिम रात्रि तो नहीं है ? कहीं स्वामीजी ने महाप्रयाण का निश्चय तो नहीं कर लिया? कल उनके गुरु स्थान में भंडारा है | क्या भंडारे के दिन ही
यह महाप्रयाण करेंगे ? सुबह ३ बजे उठा तो वह सोते से लगे | ५बजे स्टेशन जाना था पर ट्रेन लेट हो जाने के कारण मैं उनसे अनुमति लेकर लगभग ७.३० बजे इन्हें लेकर घर आ गया | ट्रेन लगातार लेट होती गयी | लगभग ११ बजे हम वापसी के लिए सीढियाँ उतर ही रहे थे कि तभी आश्रम से फ़ोन आ गया कि हम तुरंत आश्रम पहुचें | यह सुनते ही हमे होनी का आभास हो गया और हम रोने लगे | रास्ते में दुबारा फ़ोन आ गया और हमारी आशंका सच हो गयी | किसी तरह आश्रम पहुंचे | काफी देर विलाप के बाद  कर्तव्य बोध जाग्रत हुआ और आगे का कार्य शुरू किया | सभी शिष्यों को एवं शंकराचार्य जी को सूचना दी गयी | शंकराचार्य जी आये और उन्होंने कल १० बजे तक जल समाधि के लिए निर्देशित किया तथा षोडसी जो २३ तारीख को पड़ रही थी, में अपनी अनुपलब्धता  की बात कही तो स्वामीजी के एकमात्र सन्यासी शिष्य भास्करानंद जी ने शंकराचार्य जी से उनकी उपस्थिति में ही कार्यक्रम संपन्न होना श्रेयस्कर माना | मैंने भी शंकराचार्य जी से निवेदन किया कि उनकी उपस्थिति में ही कार्यक्रम संपन्न होना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जीवित अवस्था में मैंने कयी बार स्वामीजी से उनकी षोडसी के बारे में पूंछा था और हर बार उन्होंने यही कहा कि शंकराचार्य जी उनके गुरु है,तुम केवल उनको सूचित कर देना बाकी का कार्य वह जैसा उचित समझेगें, संपन्न करायेगें और इसमें तुम लोग अपनी कोई इच्छा भी व्यक्त मत करना | तब शंकराचार्य जी ने कहा कि वह २७ को उपलब्ध रहेगें अत: २७ को ही षोडसी और भंडारा कर लिया जाये, उन्होंने यह भी कहा कि सन्यास लेने के पहिले सारे कर्मकांड करके ही व्यक्ति सन्यास लेता है अत: सन्यासी के लिए कोई कर्मकांड का बंधन शेष नही रह जाता | उन्होंने कुछ संतो के उदाहरण भी दिए जिनकी षोडसी १६ दिनों के बाद की गयी थी अत: न तो इसमें कोई शास्त्रीय बाधा है और न ही परम्परा सम्बन्धी कोई बाधा है | मैंने और निर्देश चाहे तो उन्होंने कहा कि हम व्यवस्था कर देंगे, दो दिन बाद से यहाँ ४ पंडित बैठकर, उपनिषद, गीता, भागवत, रामायण का पाठ करेंगे जो २७ तक चलेगा, उन्होंने इस सब व्यवस्था के लिए अपने आश्रम के प्रबन्धक आचार्य श्री छोटेलाल जी को निर्देशित भी कर दिया | इस घटनाक्रम के समय स्वामी जी के काफी शिष्य उपस्थित थे | स्वामी जी के महाप्रयाण के थोड़ी देर बाद आश्रम में भगवान के नाम का संकीर्तन करने के लिए एक मंडली को बैठाल दिया गया था क्योंकि स्वामी जी को संकीर्तन से अत्यधिक लगाव था | शंकराचार्य जी के जाने के बाद जल समाधि की व्यवस्था में लोग लग गए | मैं अमित को लेकर थोड़ी देर के लिए घर आ गया | जब मैं आश्रम पहुंचा तो मुझे जानकारी दी गयी कि कुछ लोग १६ दिनों में ही षोडसी करने की बात कह रहे हैं तो मुझे क्रोध आ गया और मैंने कहा कि जब शंकराचार्य जी यह व्यवस्था दे रहे थे तब जिन्हें उनकी यह व्यवस्था शास्त्र या लोकरीति के विपरीत लग रही थी, उन्हें एतराज करना चाहिए था | अब उनके जाने के बाद इस तरह का विवाद उत्पन्न करना शोभनीय नहीं है | अगर धर्मगुरु को ही हम लोग,धर्म सिखाने लगेंगे तो इससे बड़ा अपमान तो धर्मगुरु का हो ही नहीं सकता | अगर आप लोगों को अपनी मनमानी करना है तो आप लोग अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र है | मैं स्वामी जी के समय ही यह घोषणा कर चुका था कि स्वामी जी के महाप्रयाण के बाद मैं आश्रम से कोई सम्बन्ध नहीं रक्खूँगा,अगर आप लोग चाहते हैं कि मैं षोडसी, भंडारे,यहाँ तक कि जलसमाधि में भी शामिल न होऊं तो मैं घर जा रहा हूँ, आप लोग जैसा उचित समझे, वैसा करें | मेरे क्रोध करने पर स्वामी भास्करानंद जी ने कहा कि अभी तो स्वामी जी का शरीर पड़ा हुआ है, इस समय यह विवाद उचित नहीं है | कल जल समाधि के बाद इस पर चर्चा करना उचित होगा | मैंने उनके आदेश को शिरोधार्य करते हुए अपने को शांत किया और कल दी जाने वाली जलसमाधि की व्यवस्था में लग गया | दूसरे दिन स्वामी जी की जलसमाधि बड़े ही धूमधाम के साथ, शंकराचार्य जी की उपस्थिति एवं निर्देशन में सकुशल संपन्न हो गयी | शंकराचार्य जी अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में शामिल होने के लिए ४ घंटे विलम्ब से, संगम तट से ही रवाना हो गए, मैं आश्रम आया और सभी शिष्यों को प्रसाद देकर विदा किया | स्वामी भास्करानंद जी ने यह जानकारी दी कि वह कल शंकराचार्य जी के पास गए थे और उन्होंने कुछ शिष्यों द्वारा १६ दिनों यानि कि २३ तारीख को षोडसी करने कि इच्छा की जानकारी शंकराचार्य जी को दी थी जिसपर शंकराचार्य जी ने यह कहा कि भक्तों को अपने मन की करना है तो वह अपने हिसाब से करें, फिर मैं अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के हिसाब से प्रात: ६ बजे निकल जाता हूँ, भक्त लोग अपने हिसाब से जल समाधि भी दे लें | भास्करानंद जी ने बताया कि स्वामी जी उनके अनुरोध पर ६ बजे के बजाय १० बजे जाने के लिए राजी तो हो गए थे  पर उपरोक्त कथन से उनकी नाराजिगी प्रगट हो रही थी  और इससे स्वामी जी की आत्मा को कष्ट होगा | मैं उनसे यह कहकर कि मैं स्वामी जी के दिए गए निर्देश के अनुसार जो शंकराचार्य जी आदेश करेंगे,उसी का पालन करूंगा, शाम को घर चला | मुझे अपने मेहमानों को, जो स्वामी जी की जल समाधि पर अंतिम दर्शन के लिए आये थे,क्रमश: विदा करना था कि तभी आचार्य श्री छोटेलाल जी का फ़ोन आ गया कि उनके पास तीन व्यक्ति आये थे जो कि अपने को राजकीय उच्च अधिकारी बता रहे थे और अपने को स्वामी जी का शिष्य बता रहे थे | वे लोग २३ तारीख को षोडसी करना चाहते है  | इसके लिए वह शंकराचार्य जी की सहमति चाहते है | मैंने उन्हें ६ बजे आश्रम में बुलाया है, आप भी आ जाइये तो वहीँ सबसे बातचीत करके तब शंकराचार्य जी से फ़ोन में बात कर ली जाएगी | मैंने उन्हें बताया कि मुझे अपने मेहमानों को विदा करना है, अत: शाम को मेरा आना संभव नही हो सकेगा | जब श्री छोटेलाल जी ने मेरी राय पूंछी तो मैंने कहा कि शंकराचार्य जी १७ को वापिस आ रहे हैं | उनके वापिस आने पर जैसा शंकराचार्य जी का आदेश होगा वैसे कर लिया जाएगा | यह लोग शाम को आश्रम नहीं पहुंचे | सुबह उनमे से एक सज्जन का फ़ोन आया कि वे लोग आश्रम में है, मैं भी आश्रम पहुँच जाऊँ | मैंने उस समय आश्रम पहुचंने में अपनी असमर्थता व्यक्त की और उनसे बताया कि मेरी श्री छोटेलाल जी से बात हो गयी है | १७ को शंकराचार्य जी के वापिस आने पर उनका जैसा निर्देश होगा वैसा कर लिया जायेगा | उन्होंने मेरी बात से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यही ठीक रहेगा | इसके बाद मुझे जानकारी मिली कि उन्होंने श्री छोटेलाल जी के माध्यम से शंकराचार्य जी से फ़ोन पर बात कर ली है | फिर कुछ लोगो ने मुझे फ़ोन करके बताया कि वे लोग अन्य लोगो से फ़ोन करके या मिलकर ५००० रूपये की सहयोग राशि मांग रहे है और यह कह रहे हैं कि १० लोगो से यह सहयोग राशि लेकर स्वामी जी कि षोडसी २३ को कि जायेगी | मुझे इस बात से अत्याधिक दुःख हुआ | इन तीनो में से कोई भी ऐसा नहीं था जो अकेले ही षोडसी न कर सके | स्वामी जी ने अपने पूरे जीवन में  कभी किसी से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं की थी | लोग पैसा लेकर आते थे और आश्रम में भंडारा करना चाहते थे पर स्वामी जी, पात्रता देखकर ही उसका प्रस्ताव स्वीकार करते थे | एक नगरसेठ को मेरे सामने वे मना कर चुके थे | स्वामी जी के कई बार इलाज के भुगतान के समय, इन्ही लोगो ने, भुगतान में सहयोग करना चाहा तो स्वामी जी ने इशारे से मुझे भुगतान करने के लिए निर्देशित किया | उन्होंने मेरी माता जी की ही तरह मुझे ही यह सेवा प्रदान की | यह प्रभु की मेरे उपर अतिशय कृपा का प्रतीक है | मैं प्रभु की इस कृपा से इतना अभिभूत हूँ कि उस अकारण करुणावरलाणय ने मुझे इस लायक समझा | एक निस्पृह कर्मयोगी की षोडसी चंदे से की जा रही है, इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है ? जिस नगरसेठ को स्वामी जी ने कभी पसंद नहीं किया वह उनके षोडसी में सन्यासियों को देने के लिए वस्त्र ला रहा है | धन्य है स्वामी जी के यह तथाकथित भक्त | प्रभु इन्हें सद्बुद्धि और सद्गति प्रदान करे | यह तीनो दो दिन बाद मेरे घर,२३ तारीख के कार्यक्रम में शामिल होने के लिए, कहने के लिए, आये थे | मैंने १७ को शंकराचार्य जी के वापिस आने पर, उनसे दिशा निर्देश प्राप्त कर, वैसा ही करने का अपना निश्चय उन्हें बता दिया था | मेरे यह सब लिखने का उद्देश्य किसी को आहत करना नहीं है | स्वामी जी जब तक थे मैं उनसे अपने मन की व्यथा कहकर उनसे दिशानिर्देश प्राप्त कर,हल्का हो जाता था | उनके जाने के बाद मैंने अपने को अपने ही कमरे में बंद कर लिया है और अपने मन को हल्का करने के लिए यह सब लिख रहा हूँ | इस प्रकरण में दो बातें छूट गयीं हैं | एक तो यह कि स्वामी जी का मन और मस्तिष्क अंतिम स्वांस तक स्वस्थ एवं प्रसन्न रहा और दूसरी बात यह कि स्वामी जी की शोभा यात्रा में एक नंदी, आगे-आगे संगम तक नेतृत्व करता रहा | स्वामी जी शंकर स्वरुप थे अत: नंदी महाराज को तो अगवानी करनी ही थी | शेष प्रभु कृपा |

मेरे पिता मेरे गुरु |

जैसा कि मैं अपने पूर्व के ब्लॉगों में लिख चुका हूँ कि मेरे जीवन में पिता के स्नेह का अभाव रहा है | मैं जब ६ माह का था तभी इस संसार में मुझे लाने वाले मेरे पिता गोलोकवासी हो गये थे | मेरी स्मृतियों में केवल उनका चेहरा ही शेष है | वह भी इसलिये कि माताजी के पूजा के स्थान में अन्य देवताओं की मूर्तियों के साथ, उनके चित्र की भी पूजा माता जी नित्य किया करती थी | यह चित्र प्रयाग में, खुसरोबाग के पास के किसी स्टूडियो में खिचवाया गया था | माता जी बताती थी कि मेरे पिता जितने शारीरिक रूप से ख़ूबसूरत थे, उतना ही पवित्र उनका मन भी था | माता जी बताती थी कि खूबसूरती में मेरे सबसे बड़े भाई ही उनके आस-पास ठहरते हैं | मैं अपने शारीरिक पिता के ऋण से कभी भी उरिण नहीं हो सकता क्योंकि वह अगर मुझे इस संसार में न लाये होते तो पता नहीं मैं किस योनि में भटक रहा होता | पिता द्वारा खून में मिले और माता के भौतिक रूप से दिये संस्कारों का ही प्रतिफल है कि जिन्होंने मुझे जीवन में, बहुत कष्ट दिये हैं, उनके प्रति भी,उनके अमंगल की कामना तो दूर, कल्पना भी नहीं की ही | इसे मेरी आत्मश्लाघा मत समझियेगा, क्योंकि हर  व्यक्ति अपने बारे में जितना जानता है, दूसरे केवल उसकी कल्पना मात्र कर सकते हैं |
                                                  पिता के गोलोक गमन के समय मेरे सबसे बड़े भाई की उम्र १२ वर्ष थी | मेरी माँ ने कलेजे पर पत्थर रखकर,एक वर्ष के अंदर ही बड़े भाई का विवाह कर दिया, जिससे उनके कोई पर्व छूटने न पायें | पिता के जाने के बाद, जिन्हें परिवार के छोटे सदस्य पिताजी ही कहने लगे थे, ऐसे मेरे बड़े भाई  ने अपनी कम वय के बावजूद,जिस कुशलता से परिवार के संरक्षक का उत्तरदायित्व सम्हाल लिया, वह अन्य के लिये स्प्रहा का कारण हो सकता है |  सबसे पहिले मेरी रुचियों का सबसे ज्यादा ख्याल रखने वाले, उपर से दूसरे क्रम के भाई, गोलोक वासी हुए | इस सदमे से अभी उबर भी नहीं पाया था, मेरी वह माँ भी, जो मेरे लिये ऐसी ज्योतिपुंज थी, जिसके दिव्य आलोक के कारण, मेरे जीवन में तम का अभी तक प्रवेश भी नहीं हो पाया, पितृ लोक गमन कर गयी और इसके बाद मेरे वह बड़े भइया भी, जिन्होंने मुझे कभी भी पिता का अभाव महसूस नहीं होने दिया था, हमेशा के लिये गोलोक गमन कर गये | एक के बाद एक मिले इन झटको ने मुझे बुरी तरह तोड़कर रख दिया |
                                                  मैं पूरी तरह बिखर चुका था कि तभी मेरे जीवन में, मेरे प्रभु ने, जो कि अकारण करुणा वरुलाणय हैं , मेरी स्थिति पर करुणा करके, मेरे जीवन में गुरुरुपी पिता का अवतरण करा दिया | मैं धन्य हो गया | वे गुरु के रूप में जितने कठोर थे, पिता के रूप में उतने ही कोमल | मुझे एक घटना याद आ रही हैं | मैंने आदरणीय अमृतलाल नागर का उपन्यास "मानस के राजहंस" उसी समय पढ़ा था, आश्रम में प्रात: के समय, कुछ सेवा निवृत अधिकारी आया करते थे | वे लोग कुछ भजन सुनाया करते थे और स्वामी जी से अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करते थे | पहिले तो उनका आगमन, स्वामी जी की साधुता, विद्वता की परीक्षा लेने और अपने को धार्मिक सिद्ध करने के हेतु होता था, पर धीरे-धीरे उनके इस भाव में क्रमश: परिवर्तन होता गया | मेरा  और इन लोगो का आश्रम में आगमन लगभग एक ही समय में प्रारंभ हुआ था | मुझे से भी यह लोग कुछ कहने का आग्रह करते थे | मैं गुरु के समक्ष शिष्य को अनावश्यक नहीं बोलना चाहिए,इस बात को ध्यान में रखते हुए, ज्यादातर चुप ही रहता था, पर उस दिन चूँकि उपरोक्त उपन्यास के ताजा-ताजा पढ़े होने के कारण, अपने को बोलने से रोक नहीं पाया | मैंने उपन्यास के उस अंश को जिसमें, काशी में तुलसी और रत्नावली की भेंट का वर्णन किया गया है, का उल्लेख करते हुए, अपनी कल्पना को भी जोड़ दिया | स्वामी जी ने मेरे कथन के पूरे होने का भी इंतजार नहीं किया और एकदम नाराज हो गए | इसके पहिले मैंने कभी इतना नाराज होते नहीं देखा था | वे बोले," तुम तुलसी जैसे महापुरुषों का चरित्र चित्रण कल्पना के आधार पर करोगे |"मुझे अपनी भूल का तत्काल आभास हो गया और मैंने उनसे अपने अपराध की क्षमा मांगी | मेरे गुरु ने इस तरह  भविष्य में होने वाले मेरे अपराधों से मुझे बचा लिया और मुझे बोलने की वासना से भी मुक्त कर दिया |ऐसे थे मेरे मेरे पिता मेरे गुरु | 
                            शेष प्रभु कृपा |

Wednesday 11 January 2012

श्राव्या विक्रांत की प्रथम वर्षगांठ पर

आज वर्षों बाद
मैंने उठायी है कलम
उस पीढ़ी के लिए
जो जब जवान होगी
बह चुका होगा
गंगा में, जाने कितना पानी
तोड़ चुके होंगे दम
जाने कितने सामाजिक मूल्य
बदल चुकी होगी
रिश्तों की भाषा
खत्म हो चुकी होगी
नैतिकता की आशा
तुम्हारा ठुमुक-ठुमुक कर चलना
और लक्ष्य तक पहुँच जाने पर
घूम-घूम कर
ताली बजाकर खिलखिलाना
निर्मल हंसी से पूरे घर को गुंजाना
बेहद चमकीली आँखों के आलोक से
सामने वाले को चौंधियाना
और-और-और
पवित्र कर देने वाली
निश्छल चंचलता
बदल चुकी होगी
एक अयाचित गाम्भीर्य में
महानगर की जन संकुलता
बेताब होगी छीन लेने के लिए
तुमसे
तुम्हारी निजता
भौतिक उपलब्धियों की अंधी दौड़ में
पिछड़ जाने का भय
आतुर होगा
छीन लेने के लिए
तुम्हारी खिलखिलाहट
तुम्हारी निश्छल चंचलता
हवा में घुली जहरीली किरकिराहट
छीन लेना चाहेगी
तुम्हारे पवित्र आँखों के आलोक को
तब-तब-तब
मेरे स्वप्नों को साकार करने के लिए
इस धरती पर अवतरित हुई
मेरी राजकुमारी
याद करना
रक्त में मिले संस्कारों को
अपनी सामाजिक परम्पराओं को
उन महानायकों को
जिन्होंने
मूल्यों की रक्षा के लिए
जीवन भर कंटकों में चलकर
अपनी मुस्कराहट से,खिलखिलाहट से
मानवता को नये आयाम दिये हैं
याद करना
उस भरत को
जिसने राजसत्ता को बना दिया था
फुटबाल
जिसने पधराया था सिंघासन पर
अपने बड़े  भाई की पादुकाएं
याद करना उस राजा राम को
जिसने खाये थे
शूद्रा सबरी के जूठे बेर
जिसने पक्षियों में भी सबसे अधम पक्षी
गीधराज जटायु को दिया था अपने पिता का सम्मान
कम हो गया था उनका दुःख
पिता को मुखाग्नि न दे पाने का
जटायु का अंतिम संस्कार करके
राजा राम जिन्होंने बनाया था
समाज के सबसे पिछड़े,दलित,अधम प्राणियों को
अपना सुह्रद
जामवंत,सुग्रीव,अंगद और हनुमान
अंदर तक भीग गये थे
अकारण करुणावरुणालय के
इस अप्रतिम प्रेम से
राम
जिन्होंने दी थी धर्म की एक अभिनव व्याख्या
"परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई"
इन पंक्तियों को कंठस्थ कर लेना मेरी दुलारी
इन पंक्तियों को जीवन में उतार लेना मेरी राजकुमारी
तुम देखना
हाँ तुम देखना
मेरी रानी
समय के झंझावात
नहीं बुझा पायेगें
तुम्हारी अन्तरज्योति को
और तुम भरती रहोगी
क्षमा,दया और सहनशीलता की
प्रतिमूर्ति धरती माँ की पुत्री
जगतजननी सीता की तरह
अपने आलोक से पूरे विश्व को
अपनी शुचिता से पवित्र करती रहोगी
पूरी मानवता को
आज तुम्हारे जन्म दिन पर
यही मेरा आशीष है
मेरी बच्ची