Sunday 9 April 2017

किसी की सेवा करने के पहले दस हजार बार उसे थन्यवाद दो कि उसने तुम्हें इस लायक समझा और अगनित  धन्यवाद दीजिए उस प्रभु को जिसने तुम्हें इस लायक बनाया ।
एक बार रहीमदास जी को बादशाह ने नाराज होकर दरबार से निकाल दिया पर उनका वेतन नहीं रोका । रहीमदास जी आकर चित्रकूट में बस गए और तभी उन्होंने यह दोहा लिखा था ।-
"चित्रकूट में रम रहे रहिमन,अवध नरेश
जा पर विपदा परत है सो आवत ऐहि देश ।"
अर्थात् अवध नरेश यानि श्री राम विपत्ति पड़ने पर चित्रकूट में आकर बसे थे,इसी प्रकार रहीम भी विपत्ति पड़ने पर कामतानाथ यानि चित्रकूट की शरण में आए हैं ।
चित्रकूट प्रवास के दौरान रहीमदास जी नित्य प्रति विपुल मात्रा में दान किया करते थे । दान करते समय उनके नेत्र हमेशा नीचे रहतै थे ।
तुलसीदास जी उनसे मिलने  चित्रकूट आए और उनकी इस विनम्रता पर एक दोहा लिखा जो इस प्रकार है ।
"कहु रहीम सीखी कहां अद्भुत ऐसी दैन
ज्यों-ज्यों कर ऊपर उठै त्यों-त्यों नीचे नैन"
अर्थात् हे रहीमदास जी आपने ऐसा अद्भुत दान देना कहां  से सीखा है कि जैसे-जैसे  देने के लिए आपके हाथ ऊपर उठते हैं त्यों-त्यों आपके नैन नीचे होते जाते हैं ।
रहीमदास जी ने इसके जवाब में यह कहा था ।
"देनवार कोई और है देत रहत दिन रैन
 लोग भरम मो पै करैं याते नीचे नैन ।"
अर्थात् देने वाला तो कोई दूसरा है जो दिन रात देता रहता  है । लोग भ्रमवश मुझे दाता मान लेते हैं, इसी शर्म के कारण मेरे नैन नीचे रहते हैं  ।