Monday 30 April 2012

नर्मदा का अप्रतिम सौंदर्य

आज बहुत दिनों बाद माँ नर्मदा की गोद में अठखेलियाँ करने का मौका मिला । प्रयाग छूटने के बाद माँ गंगा की गोद छूट गयी थी । आज इतने दिनों बाद माँ की गोद में मुहँ छिपाकर उसको गुदगुदाने का सुख स्वामी वियोगानंद जी की कृपा से प्राप्त हो सका । कई बार नर्मदा जिले के सरदार सरोवर के पास स्थित आनंद आश्रम में आने का तथा स्वामी जी के दर्शन तथा उनके सत्संग का लाभ मुझे प्राप्त हो चुका था । मैंने स्वामी जी से दो-चार दिन आश्रम में रहकर उनके श्री वचनों से लाभान्वित होने की इच्छा प्रगट की तो उन्होंने अपनी अनुमति  प्रदान कर दी पर मैं जिन तिथियों में आना चाहता था, उन तिथियों में स्वामी जी उपलब्ध नहीं थे । मैं स्वामी जी की उपस्थिति में ही रहना चाहता था पर स्वामी जी ने कहा तुम एक बार यहाँ रहकर देखो तो माँ नर्मदा तुम्हे वह सब कुछ प्रदान करेंगी जो तुम मेरी उपस्थिति में पाना चाहते हो ।

                                   मैं उनका आदेश मानकर तीन दिन पूर्व यहाँ आ गया था और यहाँ आकर लगा कि स्वामी जी ने ठीक ही कहा था । माँ नर्मदा ने मुझे जिस तरह मुझे दुलारा, उससे माँ गंगा से पिछले चार महीने से बिछड़ने के कारण जो जड़ता आ गयी थी, वह टूटी और जीवन में फिर से उत्साह का संचार हुआ ।

                                     स्वामी कृपालानंद जी ने अपनी साधुता और अपनी प्रबंधकीय क्षमता से अभिभूत कर दिया । स्वामी कृपालानंद जी की कृपा से एक अन्य दार्शनिक सन्यासी स्वामी भारती जी से, उनकी दार्शनिक कविताओं के श्रवण का दुर्लभ संयोग प्राप्त हुआ । स्वामी भारती जी की एक बात ने बहुत प्रभावित किया वह यह कि उन्होंने सामने वाले को अपने विचारो से असहमत होने की पूरी स्वतंत्रता, ईमानदारी के साथ प्रदान की । स्वामी भारती जी की कविताओं की आश्रम में प्रमुख श्रोता आदरणीया माता जी का श्वेतवर्ण अभिजात्य एवं गरिमा नमन के लिये विवश कर देती है । तिवारी और बलबीर का सेवा भाव,आज के समय में कम देखने में आता है ।

                                     आज प्रात: माँ नर्मदा से जी भरकर खेलने के बाद उनके अप्रतिम सौंदर्य को देर तक निहारता रहा और तब लगा कि माँ नर्मदा को चिर कुंवारी इसीलिये कहा गया कि इनका अप्रतिम सौंदर्य, अक्षत है । माँ नर्मदा को प्रणाम करके जब विदा ले रहा था,तब भाई पहारिया जी के दो गीतों के दो बन्द याद आये," नदी रोज पूंछा करती है ऐसे क्यों चल दिये अकेले, एक वहां अनजान नगर है यहाँ भावनाओं के मेले ।"

" अच्छा नदी मुझे चलने दो, मेरा नगर भले जंगल हो । उम्र वहीँ बीतेगी मेरी, जीवन भले वहां दंगल हो ।"

                                      स्वामी वियोगानंद जी की श्री वाणी सुनने की प्यास लिये माँ नर्मदा से करबद्ध प्रार्थना के साथ विदा लेता हूँ कि माँ मुझे जल्दी ही अपने पास बुलाना क्योंकि माँ गंगा ने मेरी ऐसी आदत ख़राब कर दी है कि बगैर माँ के दुलराये जीवन नीरस हो जाता है ।

                                                                                                                शेष प्रभु कृपा ।

Friday 27 April 2012

जीवन में व्यवहारिक नियमों का पालन अति आवश्यक है |

"सीय-राम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी" या "सब देखहिं प्रभुमय जगत केहि सन करहिं विरोध" जब तक जीव इस भाव भूमि पर स्थापित न हो जाये तब तक उसे जीवन में व्यवहारिक नियमों का पालन अवश्य करना चाहिये, नहीं तो उसका जीवन नरक हो जायेगा । कार्यालय में यदि आप सहकर्मियों में अपने प्रभु का दर्शन करने लगे तो स्वाभाविक है कि आप न तो उनसे कड़े शब्दों का प्रयोग ही कर पाएंगे और न ही उनकी लापरवाही के प्रति कोई दंड ही दे पाएंगे । प्रभु को भी लीला के लिए ही सही यह कहना पड़ा,"विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत । बोले राम सकोप तब, भय बिन होय न प्रीति ।"अम्मा कहा करती थी कि प्रेम मन की गहराइयों  में छिपा कर रखना चाहिए ऐसा मेरे पिताजी कहा करते थे । अनुशासन बनाये रखने के लिये, हर रिश्ते में एक फासला होना जरुरी है । अपने वक्त के एक  महान संत ने यह कहा था कि शिष्य को अपने गुरु के बहुत नजदीक नहीं जाना चाहिए, हमेशा दोनों के बीच में एक फासला आवश्यक है । गुरु यदि शिष्य को मुहँ लगा लेता है तो किसी न किसी दिन शिष्य के द्वारा, अनचाहे ही गुरु का अपमान हो जायेगा । यह बात सभी रिश्तों में लागू होती है । चाहे वह पति-पत्नी का रिश्ता हो चाहे पिता-पुत्र का, पिता- पुत्री का, चाहे सास-बहू,श्वसुर-बहू का , चाहे मालिक-नौकर या राजा और प्रजा का हो, हर रिश्ते की गरिमा बनाये रखने के लिये उनके बीच एक फासला होना बहुत जरुरी है । सुनने में यह बात बहुत अच्छी लगती है कि बहू को अपनी बेटी की तरह ही समझना चाहिए । आप लाख उसे बेटी समझ लें पर वह शायद ही आपको अपने माता-पिता की तरह  अन्तरंग समझ सके । एक प्रबुद्ध महिला ने एक बार कहा था कि यह कोशिश आप करते ही क्यों है ? दोनों रिश्ते अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण है । दोनों को अलग-अलग  ही रहने दें । यही बात पुत्र और दामाद के रिश्ते में भी लागू होती है । दामाद को पुत्र की तरह प्यार तो दो पर उससे पुत्र की तरह अपेक्षा मत करो ।
                                                                                               शेष प्रभु कृपा