Tuesday 20 December 2016

"कबिरा काजर रेख हू अब तो दई न जाय ।
नैना माहि तू बसै दूजा कहां समाय ?"---कबीर दास ।
कबीरदास जी कहते हैं कि अब तो आंखों  में काजर भी नहीं लगाया जा सकता है क्योंकि आंखों में तो तू बसा हुआ है , वहां दूसरे के घुसने के लिए स्थान ही कहाँ है ?
अर्थात् जब जीव की आंखों में प्रभु का वास हो जाता है,तब उनकी आंखों में संसार का प्रवेश सम्भव नहीं है । या व्यक्ति जिस रंग का चश्मा लगा लेता है, उसे संसार, उसी रंग का दिखाई पड़ने लगता है । जिसकी आंखों में प्रभु का वास हो जाता है,उसे स॔सार की हर वस्तु में प्रभु के ही दर्शन होते हैं ।
"सीय-राम मय सब जग जानी,करहुं प्रणाम जोरि जुग  पानी ।" --तुलसीदास ।
मैं सारे संसार को सीता-राम का ही स्वरूप जान कर, अपने दोनों हाथ जोड़कर कर प्रणाम करता हूँ ।
इस स्थिति में पहुँच कर जीव के सारे द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं और वह परमानंद को प्राप्त हो जाता है । पर यह स्थिति प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होती है ।
"अतिशय कृपा राम कै होई, सो यहि मारग पावै कोई ।"

Sunday 18 December 2016

"जब 'मैं' था, तब 'तू' नहीं, अब 'तू' है, 'मैं नाहि ।
प्रेम गली अति सांकरी, या में  दुइ न समाय ।"
जब तक मैं यानि मेरा अहंकार मेरे साथ था, तब तक तू मेरे पास नहीं था और जब अब तू यानि हरि मेरे पास हैं तो मेरा मैं मेरे पास नहीं है । यह प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें दो समा ही नहीं सकते ।
भाव यह है कि जब तक जीव के अहंकार का पूर्णतया विगलन नहीं हो जाता तब तक वह प्रभु की कृपा का अनुभव नहीं कर पाता । इस अहंकार का कारण है जीव का कर्ता भाव । जब तक जीवन में सफलता मिलती रहती है, वह इसका कारण अपने को समझता रहता है और जब जीवन में असफलताएं मिलनी शुरू होती हैं,जैसे कि उच्चतम पद,अकूत धन,अपरमिति ज्ञान होने के बाद भी,वह जो चाहता है,वह नहीं हो पाता । तब धीरे- धीरे,उसके अहंकार का विगलन प्रारंभ हो जाता है और उसकी समझ में आने लगता है वह कर्ता नहीं है । जबकि वस्तुतः कर्ता वही है, क्योंकि जब तक निष्काम कर्म की स्थिति नहीं बनती,तब तक जीव को अपने ही कर्मों का फल भुगतना पड़ता है ।
"काहू न कोऊ सुख-दुःख कर दाता । निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ।"
कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता । सब अपने कर्मों का ही फल भोगते हैं ।
विज्ञान भी यह कह कर कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यानि कि प्रतिक्रिया (फल) क्रिया (कर्म) में ही निहित है,के द्वारा,वेदों में प्रतिपादित "कर्म सिद्धांत" की ही पुष्टि करता है ।
पर यह सब तभी समझ में आयेगा, जब जीव के अहंकार का  पूर्ण विगलन हो जायेगा और तब वह गा उठेगा "जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है ।" यानि मैं ही मैं हूँ क्यों कि तू के रूप में मैं ही हूँ । दूसरा तत्व है ही नहीं क्योंकि यह प्रेम गली अति संकरी है इसमें दूसरे के लिए स्थान ही नहीं है ।
इस स्थिति में पहुँच जाने के बाद ही,"अहं ब्रह्मास्मि","प्रज्ञानं ब्रह्म", "अयमात्मा ब्रह्म","तत्वमसि" इन वेद वाक्यों का अर्थ समझ में आयेगा ।अच्छा 
"जब 'मैं' था, तब 'तू' नहीं, अब 'तू' है, 'मैं नाहि ।
प्रेम गली अति सांकरी, या में  दुइ न समाय ।"
जब तक मैं यानि मेरा अहंकार मेरे साथ था, तब तक तू मेरे पास नहीं था और जब अब तू यानि हरि मेरे पास हैं तो मेरा मैं मेरे पास नहीं है । यह प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें दो समा ही नहीं सकते ।
भाव यह है कि जब तक जीव के अहंकार का पूर्णतया विगलन नहीं हो जाता तब तक वह प्रभु की कृपा का अनुभव नहीं कर पाता । इस अहंकार का कारण है जीव का कर्ता भाव । जब तक जीवन में सफलता मिलती रहती है, वह इसका कारण अपने को समझता रहता है और जब जीवन में असफलताएं मिलनी शुरू होती हैं,जैसे कि उच्चतम पद,अकूत धन,अपरमिति ज्ञान होने के बाद भी,वह जो चाहता है,वह नहीं हो पाता । तब धीरे- धीरे,उसके अहंकार का विगलन प्रारंभ हो जाता है और उसकी समझ में आने लगता है वह कर्ता नहीं है । जबकि वस्तुतः कर्ता वही है, क्योंकि जब तक निष्काम कर्म की स्थिति नहीं बनती,तब तक जीव को अपने ही कर्मों का फल भुगतना पड़ता है ।
"काहू न कोऊ सुख-दुःख कर दाता । निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ।"
कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता । सब अपने कर्मों का ही फल भोगते हैं ।
विज्ञान भी यह कह कर कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यानि कि प्रतिक्रिया (फल) क्रिया (कर्म) में ही निहित है,के द्वारा,वेदों में प्रतिपादित "कर्म सिद्धांत" की ही पुष्टि करता है ।
पर यह सब तभी समझ में आयेगा, जब जीव के अहंकार का  पूर्ण विगलन हो जायेगा और तब वह गा उठेगा "जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है ।" यानि मैं ही मैं हूँ क्यों कि तू के रूप में मैं ही हूँ । दूसरा तत्व है ही नहीं क्योंकि यह प्रेम गली अति संकरी है इसमें दूसरे के लिए स्थान ही नहीं है ।
इस स्थिति में पहुँच जाने के बाद ही,"अहं ब्रह्मास्मि","प्रज्ञानं ब्रह्म", "अयमात्मा ब्रह्म","तत्वमसि" इन वेद वाक्यों का अर्थ समझ में आयेगा ।

Friday 9 September 2016


हमारी यह विडम्बना है कि हम भगवान को तो मानते हैं पर भगवान की नहीं मानते । भगवान गीता में स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि,
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानामं योगक्षेमं वहाम्यम् ।।"
जो अनन्य् चित्त होकर मेरी उपासना करते हैं,उनके भरण-पोषण और योग-क्षेम की जिम्मेदारी मैं स्वयं वहन करता हूँ ।
या रामायण में प्रभु राम कह रहे हैं,
"मोर दास कहाइ नर आशा । करहि तो काह मोर विश्वासा ।।"
अपने को मेरा भक्त कहते हो और आशा मनुष्यों से रखते हो तो फिर तो फिर तुम्हारा मुझ पर विश्वास ही कहाॅ रहा ?
हम सब की यही  स्थिति है ।जिन्दगी में संकट आने पर हम अपने धन,परिवार,समाज की ओर आशा भरी दृष्टि से निहारते  हैं । पर जब सब ओर से निराशा हाथ लगती है,तब गुरू या भगवान की याद आती है  ।
द्रौपिदी ने भगवान से बाद में पूंछा था कि चीरहरण के समय आपने आने में देर क्यों की ?तो कृष्ण ने यही उत्तर दिया कि पहिले तुमने अपने पर फिर पतियों पर फिर पितामह पर फिर समाज पर भरोसा किया ।जब सब ओर से निराशा हाथ लगी तब तुम को मेरी याद आई । जैसे ही तुमने मेरी याद की में तुरंत हाजिर हो गया ।

Friday 22 July 2016

जीवन क्या है ?

जीवन उस नदी के समान है जो अपने रास्ते में आने वाली हर बाधा को मिटाती हुई,अपने उद्गम स्थल (सागर) की बॉंहों में समाहित होकर,अपने अस्तित्व को समाप्त कर,स्वंय सागर हो जाती है ।"आोम् पूर्णमद:,पूर्णमिदम्,पूर्णात्,पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य,पूर्णमादाय,पूर्णमेवावशिष्यते ।"आइए,हम भी,जीवन की इस निरन्तरता का,साक्षीभाव से आनन्द लें तो न राग होगा और न ही द्वैष । हम भी चारों तरफ़ केवल प्रभु(अस्तित्व) का ही दर्शन करते हुए,तुलसी की तरह गा उठेंगे,"सीय-राम मैं सब जग जानी,करहुं प्रनाम् जोरि जुग पानी ।" और सीताराम क्या है,"गिरा-अर्थ,जल-वीचि सम,कहियत भिन्न न भिन्न । वन्दउ सीताराम पद,जिन्हिह परम प्रिय खिन्न ।।" या जयशंकर'प्रसाद' की तरह,हम भी कह पड़ेगें,"हिमगिरि के उतंग शिखर पर बैठ सिला की शीतल छॉंह,एक पुरूष,भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह । नीचे जल था ऊपर हिम था,एक तरल था,एक सघन । एक ही तत्व की प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन ।।"

Sunday 1 May 2016

मज़दूर दिवस पर

मज़दूर दिवस पर 
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"दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ क्योंकि तुम्हारे पास, खोने के लिए, दासता की ज़ंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरा संसार पड़ा है ।"

छात्र जीवन में,इस वाक्य ने बहुत प्रभावित किया था । इसके बाद ११वर्षो तक राशनिंग विभाग में नौकरी करने के दौरान,ज़्यादातर तैनाती, कर्वी में रही । पाठा क्षेत्र और मानिकपुर के जंगलों में, काम करने वाले मज़दूरों की,ग़रीबी,लाचारी और बेबसी को बहुत नज़दीक से देखने का,महसूस करने का और कुछ न कर पाने की पीड़ा से गुज़रने का अवसर मिला । उस क्षेत्र के मज़दूर,राशन की दुकानों से केवल ज्वार और मिट्टी का तेल ही लेते थे,क्योंकि चीनी,गेहूँ और अन्य कुछ भी लेने की उनकी सामर्थ्य ही नहीं थी । मानिकपुर,बहिलपुरवा के जंगल सें लकड़ी काटना,गठ्ठर बनाना और उसे दूसरे दिन कर्वी,अतर्रा,बाँदा तक लाकर बेचना यह उनकी जीविका का मुख्य साधन था । यह सारा काम ज़्यादातर महिलाएँ ही करती थीं और उनका शोषण का क्रम जंगल से ही प्रारम्भ हो जाता था । जंगल विभाग के कर्मचारी,इसके बाद सिविल पुलिस के कर्मचारी और फिर रेलवे विभाग, इन सब का पेट भरने के बाद,उनके पास,पूरी ज़लालत भोगने के बाद,दो दिन के श्रम का मूल्य २ या ३ रुपये ही बचता था,जिसमें उन्हे अपना पूरा परिवार पालना था । यह बात मैं वर्ष १९७४ की बता रहा हूँ । पर यह शोषण अब भी बदस्तूर जारी है,अन्तर केवल इतना है कि जो गठ्ठर उस समय ४ रुपये में बिकता था,अब वह ५०-६०रुपये में बिकता है,बाकी का अनुपात वही है ।

इसके बाद २७ वर्षों तक श्रम विभाग में सेवा के दौरान, विभिन्न क्षेत्रों के श्रमिकों के व्यापक शोषण के जो नज़ारे देखने को मिले,यदि उनका वर्णन करने बैठूँ तो उसे पढ़ने का आपके पास समय ही नहीं होगा । एक विचित्र अनुभव यह भी हुआ कि कहीं-कहीं पर,ट्रेड यूनियन भी,इस शोषणवादी व्यवस्था को पुष्ट करने में,सकारात्मक भूमिका निभाती हुई पायी गयीं । इस व्यवस्था को बदलना तो मेरे बस में नहीं था,पर व्यवस्था के अन्दर रहकर,जितना इस शोषण को कम करने में, मैं अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकता था,मैंने किया और इसका मुझे सन्तोष है ।

सेवानिवृत्त होने के बाद की एक घटना बता कर,अपना आलेख समाप्त करूँगा । घटना यह है कि मैं गुजरात में,रोटरी क्लब द्वारा आयोजित,इस समय के एक बड़े संत के कार्यक्रम में उपस्थित था । उन संत महोदय ने कार्यक्रम में उपस्थित लोगों से जो समाज के समृद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था,से कहा कि उन्हे अपने लाभ का १०% अच्छे कार्यों में लगाना चाहिए,इसका उन्हे पुण्य प्राप्त होगा । इसके बाद प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम था । मैनें बाल्मीकि रामायण में पढ़ा था कि जब भरत दशरथ की मृत्यु के बाद नौनिहाल से वापिस आते हैं तो कौशल्या से मिलने के लिए जाते हैं और वह कौशल्या माता से कहते हैं कि राम के वनगमन में यदि उनकी ज़रा भी भूमिका हो तो उन्हे यह- यह पाप लगें । यह प्रसंग रामचरितमानस में भी है,पर उसमें जिस पाप का ज़िक्र मैं करने जा रहा हूँ,वह शामिल नहीं हैं और वह पाप यह है कि किसी श्रमिक से मज़दूरी करा लेने के बाद,उसे पर्याप्त मेहनताना न देने से जो पाप लगता है । पहिले मैंने सोचा कि जो प्रश्न मेरे मन में उठ रहा है,उसके पूछनें का यह उपर्युक्त समय नहीं है फिर मैनें सोचा कि इस प्रश्न को न पूंछकर मैं अपनी आत्मा के साथ न्याय नहीं कर पाऊँगा ।
प्रश्न :- मान्यवर जिस लाभ के १०% के दान करने पर पुण्य मिलने की बात आपने कही है वह लाभ यदि श्रमिकों को निर्धारित वेतन से कम वेतन देकर या अन्य अनुचित संसाधनों का प्रयोग करके अर्जित किया गया हो तो क्या उसके दान,का भी पुण्य,दाता को प्राप्त होगा ?
उत्तर :- यह दान उत्तम कोटि में तो नहीं आयेगा फिर भी उसको कुछ न कुछ पुण्य तो मिलेगा ही,यदि इस धनराशि को अच्छे कार्यों में प्रयोग किया जाये तो ।

Sunday 6 March 2016

महाशिवरात्रि पर

महाशिवरात्रि पर
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आज शिव और पार्वती का विवाह पर्व है, जिसे पूरा देश उल्लास, श्रद्धा और विश्वास के साथ मना रहा है । इस पर्व पर मैं सभी को अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ । 

रामचरितमानस के बालकाण्ड के द्वितीय श्लोक में, तुलसीदास जी ने माता पार्वती और भगवान शिव को, श्रद्धा और विश्वास के रूप में प्रतिस्थापित किया है । इस युग्म के बग़ैर यानि कि जीवन में श्रद्धा और विश्वास के अभाव में, आप अपने अन्दर स्थित ईश्वर या अपने आत्मस्वरूप का दर्शन नहीं कर सकते, भले ही आपने भौतिक सिद्धियों की उपलब्धि क्यों न कर ली हो ?

"भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ
 याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम्"
(श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्त:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते ।)

आइए श्रद्धा और विश्वास के इस विवाह पर्व पर हम भी संकल्प लें कि हम भी अपने जीवन में इनका अवतरण करें जिससे हम भी अपने आत्मस्वरूप का दिग्दर्शन कर सकें ।

Tuesday 1 March 2016

जीवन और मृत्यु के बीच की न भूलने वाली शान्ति ।

जीवन और मृत्यु के बीच की न भूलने वाली शान्ति ।
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आज से लगभग ४५ वर्षों पूर्व भी जीवन में एक रात्रि ऐसी ही आयी थी, जब मेरे शरीर में नाम मात्र का रक्त शेष रह गया था । रक्त की अल्पता के कारण डाक्टर द्वारा, मुझे सुलाने के लिए दिया जाने वाला मर्फिया का इंजेक्शन भी बेअसर हो गया था और मैं पूरी रात चेतन और अचेतन के झूले में झूले में झूलता रहा था । स्थानीय डाक्टरों ने एक तरीक़े से जवाब दे दिया था और शीघ्रताशीघ्र कानपुर ले जाने की सलाह दी थी । उस समय सुबह की पैसेन्जर के पहिले कानपुर जाने का कोई साधन नहीं था । पूरी रात जब भी चेतना वापिस आती थी तो देखता था कि पूरा परिवार मेरी चारपाई के चारों ओर इकट्ठा है, सबकी ऑंखों से अश्रुपात हो रहा है । मैं उन्हे आश्वस्त करता था कि घबड़ाओ नहीं ! अभी मैं मरुंगा नहीं ! इतना कहते-कहते मैं शून्य में पहुँच जाता था और एक अवर्णनीय शान्ति के सागर में डूब जाता था । मुझे लगता था कि जब मृत्यु में इतनी शान्ति है तो आदमी मृत्यु से इतना घबड़ाता क्यों है ?

इतने वर्षों बाद विगत २७ जनवरी को ऐसी ही विराट शान्ति का सुखद अनुभव तब हुआ जब ह्रदय की तीन धमनियों की गड़बड़ी के कारण एक अतिरिक्त धमिनी से रक्त को मार्ग देने के लिए, मुझे शल्य चिकित्सा हेतु, शल्य कक्ष में ले जाया जा रहा था और मैं एक अखण्ड शान्ति में डूबा हुआ, अपने आराध्य से मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि मेरी इस शान्ति को चिर शान्ति में परिवर्तित कर दे । कहीं कोई उद्विग्नता नहीं, शरीर छूटने का कोई भय नहीं । बार-बार एक ही विचार दृढ़ होता जा रहा था कि जब इस शरीर द्वारा संसार में आने का मुख्य उद्देश्य ही पूरा नहीं हो पा रहा है, यानि कि आवागमन से मुक्ति के मार्ग पर नहीं चल पा रहा हूँ तो फिर इस शरीर को रखने का औचित्य क्या है ? एक बार मन में एक विचार और आया कि मान लो भगवान ने मेरी प्रार्थना न सुनी, तब ?यह तब जैसे ही आया, उसी क्षण मन ने संकल्प लिया कि यदि ऐसा हुआ तो शेष जीवन आवागमन से मुक्ति के प्रयास में ही गुज़ारूँगा ।

मेरे प्रभु ने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी । मैं वापिस आ गया हूँ । यह तो भविष्य ही बताएगा कि मेरे प्रभु ने मेरे शेष भोंगों को भोगने के लिए, मेरी प्रार्थना अस्वीकार की है या फिर उस अकारण करुणावरुणालय ने करुणा करके मुझे अपने में समाहित करने का एक शुभ अवसर और प्रदान किया है ।

शेष प्रभु कृपा ।