Thursday 12 January 2012

मेरे पिता मेरे गुरु |

जैसा कि मैं अपने पूर्व के ब्लॉगों में लिख चुका हूँ कि मेरे जीवन में पिता के स्नेह का अभाव रहा है | मैं जब ६ माह का था तभी इस संसार में मुझे लाने वाले मेरे पिता गोलोकवासी हो गये थे | मेरी स्मृतियों में केवल उनका चेहरा ही शेष है | वह भी इसलिये कि माताजी के पूजा के स्थान में अन्य देवताओं की मूर्तियों के साथ, उनके चित्र की भी पूजा माता जी नित्य किया करती थी | यह चित्र प्रयाग में, खुसरोबाग के पास के किसी स्टूडियो में खिचवाया गया था | माता जी बताती थी कि मेरे पिता जितने शारीरिक रूप से ख़ूबसूरत थे, उतना ही पवित्र उनका मन भी था | माता जी बताती थी कि खूबसूरती में मेरे सबसे बड़े भाई ही उनके आस-पास ठहरते हैं | मैं अपने शारीरिक पिता के ऋण से कभी भी उरिण नहीं हो सकता क्योंकि वह अगर मुझे इस संसार में न लाये होते तो पता नहीं मैं किस योनि में भटक रहा होता | पिता द्वारा खून में मिले और माता के भौतिक रूप से दिये संस्कारों का ही प्रतिफल है कि जिन्होंने मुझे जीवन में, बहुत कष्ट दिये हैं, उनके प्रति भी,उनके अमंगल की कामना तो दूर, कल्पना भी नहीं की ही | इसे मेरी आत्मश्लाघा मत समझियेगा, क्योंकि हर  व्यक्ति अपने बारे में जितना जानता है, दूसरे केवल उसकी कल्पना मात्र कर सकते हैं |
                                                  पिता के गोलोक गमन के समय मेरे सबसे बड़े भाई की उम्र १२ वर्ष थी | मेरी माँ ने कलेजे पर पत्थर रखकर,एक वर्ष के अंदर ही बड़े भाई का विवाह कर दिया, जिससे उनके कोई पर्व छूटने न पायें | पिता के जाने के बाद, जिन्हें परिवार के छोटे सदस्य पिताजी ही कहने लगे थे, ऐसे मेरे बड़े भाई  ने अपनी कम वय के बावजूद,जिस कुशलता से परिवार के संरक्षक का उत्तरदायित्व सम्हाल लिया, वह अन्य के लिये स्प्रहा का कारण हो सकता है |  सबसे पहिले मेरी रुचियों का सबसे ज्यादा ख्याल रखने वाले, उपर से दूसरे क्रम के भाई, गोलोक वासी हुए | इस सदमे से अभी उबर भी नहीं पाया था, मेरी वह माँ भी, जो मेरे लिये ऐसी ज्योतिपुंज थी, जिसके दिव्य आलोक के कारण, मेरे जीवन में तम का अभी तक प्रवेश भी नहीं हो पाया, पितृ लोक गमन कर गयी और इसके बाद मेरे वह बड़े भइया भी, जिन्होंने मुझे कभी भी पिता का अभाव महसूस नहीं होने दिया था, हमेशा के लिये गोलोक गमन कर गये | एक के बाद एक मिले इन झटको ने मुझे बुरी तरह तोड़कर रख दिया |
                                                  मैं पूरी तरह बिखर चुका था कि तभी मेरे जीवन में, मेरे प्रभु ने, जो कि अकारण करुणा वरुलाणय हैं , मेरी स्थिति पर करुणा करके, मेरे जीवन में गुरुरुपी पिता का अवतरण करा दिया | मैं धन्य हो गया | वे गुरु के रूप में जितने कठोर थे, पिता के रूप में उतने ही कोमल | मुझे एक घटना याद आ रही हैं | मैंने आदरणीय अमृतलाल नागर का उपन्यास "मानस के राजहंस" उसी समय पढ़ा था, आश्रम में प्रात: के समय, कुछ सेवा निवृत अधिकारी आया करते थे | वे लोग कुछ भजन सुनाया करते थे और स्वामी जी से अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त करते थे | पहिले तो उनका आगमन, स्वामी जी की साधुता, विद्वता की परीक्षा लेने और अपने को धार्मिक सिद्ध करने के हेतु होता था, पर धीरे-धीरे उनके इस भाव में क्रमश: परिवर्तन होता गया | मेरा  और इन लोगो का आश्रम में आगमन लगभग एक ही समय में प्रारंभ हुआ था | मुझे से भी यह लोग कुछ कहने का आग्रह करते थे | मैं गुरु के समक्ष शिष्य को अनावश्यक नहीं बोलना चाहिए,इस बात को ध्यान में रखते हुए, ज्यादातर चुप ही रहता था, पर उस दिन चूँकि उपरोक्त उपन्यास के ताजा-ताजा पढ़े होने के कारण, अपने को बोलने से रोक नहीं पाया | मैंने उपन्यास के उस अंश को जिसमें, काशी में तुलसी और रत्नावली की भेंट का वर्णन किया गया है, का उल्लेख करते हुए, अपनी कल्पना को भी जोड़ दिया | स्वामी जी ने मेरे कथन के पूरे होने का भी इंतजार नहीं किया और एकदम नाराज हो गए | इसके पहिले मैंने कभी इतना नाराज होते नहीं देखा था | वे बोले," तुम तुलसी जैसे महापुरुषों का चरित्र चित्रण कल्पना के आधार पर करोगे |"मुझे अपनी भूल का तत्काल आभास हो गया और मैंने उनसे अपने अपराध की क्षमा मांगी | मेरे गुरु ने इस तरह  भविष्य में होने वाले मेरे अपराधों से मुझे बचा लिया और मुझे बोलने की वासना से भी मुक्त कर दिया |ऐसे थे मेरे मेरे पिता मेरे गुरु | 
                            शेष प्रभु कृपा |

No comments:

Post a Comment