Tuesday 17 January 2012

अन्तर्भेदी द्रष्टि

                                                        मैं अपने गुरु जी की अनिच्छा के बावजूद पहिली बार बाहर गया था | लगभग २ वर्षों से गुरु जी अस्वस्थ चल रहे थे और पिछले डेढ़ वर्षों से उन्होंने मुझे कहीं भी बाहर जाने की अनुमति नहीं दी  थी | इस अन्तराल में ही मेरी दो भाभियों का शरीर शांत हुआ और एक भतीजी का विवाह भी हुआ, किन्तु अनुमति न मिल पाने के कारण मैं नहीं जा सका | इससे मेरे परिजन नाराज भी हुये | ४ दिसम्बर को मेरी छोटी बेटी के देवर का विवाह आगरा में था | वह महाराज जी का  भी कृपापात्र था, जब हम दोनों लोगो ने जाने की अनुमति मांगी तो उन्होंने मना कर दिया | जब मैंने कयी बार अनुरोध किया और यह कहा कि दोनों में से एक व्यक्ति भी न जायेगा तो अच्छा नहीं लगेगा तो उन्होंने बड़े बेमन से केवल मुझे जाने की अनुमति दी | मैंने  जब ६ दिसम्बर को वापिस आकर उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने बैठाने का इशारा किया | उन्हें बिठाकर मैं उनके सामने ज़मीन में बैठ गया | मेरी धर्मपत्नी उन्हें सहारा दिये उनके बगल में बैठी थी | मेरे गुरु अपनी अन्तर्भेदी द्रष्टि से मुझे लगातार देख रहे थे और मैं द्रष्टि की अन्तर्भेदी करुणा से इतना विगलित हो गया था कि उनकी तरफ न देखकर जानबूझकर दूसरी तरफ देख रहा था | मेरा मन कर रहा था मैं उनसे लिपटकर जी भरकर रो लूँ | मेरी पत्नी ने स्वामी जी से हास्य में कहा कि आप इन्ही को ज्यादा चाहते हैं, जो आपको छोड़कर आगरा चले गये थे और आप इन्ही को देखे जा रहे है | पत्नी ने मुझसे कहा कि जरा इधर देखो न | यह कैसे तुम्हारा मुँह निहारे पड़े है और तुम इधर देख भी नहीं रहे हो | मैं सब देख रहा था, सब सुन रहा था, पर जानबूझ कर अनदेखा, अनसुना कर रहा था क्योंकि वह अन्तर्भेदी द्रष्टि मुझे अंदर तक चीरे डाल रही थी और उसका सामना करने का साहस मुझमें नहीं था |
                                               विगत कुछ दिनों से मैं ऐसा महसूस कर रहा था कि गुरु जी मेरे चेहरे को निहारते  रहते हैं | इससे मुझे डर लगने लगा था कि कहीं यह उनके महाप्रयाण की पूर्व सूचना तो नहीं है | यही भाव मुझे अंदर तक कंपा जाता था | वही हुआ जिसका डर मुझे लगातार भयाक्रांत किये हुए था | ८ दिसम्बर को उन्होंने मुझे और मेरी पत्नी को सामाजिक संबंधों के निर्वहन के लिए मुक्त करते हुए, महाप्रयाण कर दिया | मैं और मेरी पत्नी दोनों महाप्रयाण के समय उनके पास नहीं थे |
                                                हम जब स्टेशन से अमित को लेकर निकल ही रहे थे कि आश्रम से सूचना आई कि हम तुरंत आश्रम पहुंचे | हमें होनी का आभास हो गया था और हम जब आश्रम पहुंचे तो उन्हें आसन में बिठाया जा चुका था | उनकी आँखे खुली हुई थी | वह उपर की ओर देख रहे थे | मुझे ऐसा लगा कि मानो वह मुझे जाते-जाते सन्देश छोड़ गये हैं कि अब तो मैं संसार को देखना छोड़ दूँ और उपर की तरफ देखना शुरूं कर दूँ जहाँ मुझे जाना है | यह संसार के प्रति मेरा मोह ही था जिसने अंतिम समय में मुझे उनसे अलग कर दिया था |
                                                  मेरे गुरु अंतिम समय तक मुझे मोह से उबारने का प्रयास करते रहे पर अभागा मैं आज तक इस मोह को अपने से अलग नहीं कर सका | बीच-बीच में विरक्ति का भाव प्रबल होता है पर तभी मोह अपने रूप बदल कर फिर से अपने बंधन में जकड़ लेता है | कभी नातिनो के रूप में, कभी पोती के रूप में | मेरे गुरु की अन्तर्भेदी द्रष्टि आज भी मुझे भेदती रहती है | कभी-कभी गहन निद्रा में वही द्रष्टि मुझे झिझोंढकर जगा देती है, जैसे मुझसे पूंछ रही हो, कब ख़त्म होगी मेरी प्रतीक्षा ? मेरे गुरु,मेरे प्रभु, मेरे पिता, मेरे भगवान मैं आभारी हूँ आपका और आपकी अन्तर्भेदी द्रष्टि का जो   आज भी इस नारकीय जीव को अपनी करुणा का दान देकर,निकालने के लिये व्याकुल है, इस नरक से | प्रभु मेरे बस का कुछ नहीं है | मेरे बस का होता तो जाने कब का तोड़ चुका होता इस मोह के बंधन को | तुम्हारी कृपा ही का सहारा है, मेरे प्रभु | मेरे उपर अपनी अहैतुकी कृपा की वर्षा कर दो मेरे स्वामी, मेरे प्रभु | यहाँ तक लाकर मुझे मझधार में न छोड़ो, मेरे भगवान | तुम अकारण करुणावरुनालय  हो मेरे उपर भी कृपा करके पार उतार दो, दीनदयाल |
                                         शेष प्रभु कृपा |

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