Saturday 4 February 2012

मनस्विनी की प्रथम वर्षगांठ पर

मैं 
ख्वाबों में, खोई  अपनी बिटिया को
"उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधयत "
का मंत्र सुनाने आया हूँ ।
मैं 
उसको 
उसके पुरखों की 
या स्वर्णिम परम्परा के वाहक होने की 
याद दिलाने आया हूँ ।
तुम आयी थी 
आज धरा पर 
जो मेरी संस्कृति का उल्लास पर्व है ।
यह स्रष्टि के पांचो तत्वों का 
राग पर्व - अनुराग पर्व है ।
आकाश की नीलाभ निर्भ्रता
शीतल मंद सुगन्धित मलयानिल की स्पर्शयता
आम्र मंजरियों की शीतल दाहकता
नदियों के लहरों की स्निग्ध कोमलता 
और और और 
सरसों की पीली साड़ी पहिने 
गुलाबों की महावर लगाये 
बाहें फैलाये 
धरा की सुन्दरता 
व्याकुल है 
स्वागत करने को 
बसंत  का 
बसंतपंचमी 
जो साक्षी है 
माँ सरस्वती के अवतरण का 
बसंतपंचमी जो साक्षी है 
क्रान्तिदर्शी महाप्राण निराला के आगमन का 
यही तुम्हारी परम्परा है 
मेरी बच्ची
माँ सरस्वती की तरह 
मन और बुद्धि पर 
शासन हो तुम्हारा 
मेरी बच्ची 
माँ सरस्वती की ही तरह 
शुभ्र वसना होना 
मेरी लाड़ली
और उन्ही की वीणा की झंकार की तरह 
तुम्हारी वाणी 
मुरझाये उदास चेहरों में 
निराश टूटे दिलों में 
जीवन का उल्लास भर दे 
मेरी दुलारी 
नीर-क्षीर विवेकी बुद्धि रूपी हंस ही 
तुम्हारा वाहन बने ।
महाप्राण निराला की तरह 
दीन-दुखी लोगो को देखकर 
तुम्हारी आखों में जल हो 
और चेहरे पर व्यवस्था को बदलने का 
संकल्प 
यही आज के दीन मेरा आशीर्वाद है 
मेरी बच्ची,मेरी लाड़ली, 
अपने माँ-बाप की 
अपनी परम्पराओं की 
वाहक बनना 
मेरी राजकुमारी ।


No comments:

Post a Comment