Sunday 12 July 2015

एक ऐसी लघुकथा जिसके विस्तार का कोई अन्त नहीं है ।

एक ऐसी लघुकथा जिसके विस्तार का कोई अन्त नहीं है ।
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हमारी भाषा की वर्णमाला का प्रथम अक्षर "क" है और अन्तिम अक्षर "ज्ञ" है ।

हमारे मानव जीवन की पूरी यात्रा, इन्हीं दोनो अक्षरों के बीच सिमटी हुई है ।

"क" माने कौन ? यानि कि मैं कौन हूँ,"को अहम्"? जिस दिन मन में यह प्रश्न उठता है, हम इस यात्रा के पथिक बन जाते हैं और इस यात्रा का अन्त होता है "ज्ञ" यानि ज्ञान में । जब यह ज्ञान हो जाता है कि मैं वही हूँ "सो अहम्" दूसरा कोई है ही नहीं । तब इस यात्रा का अन्त हो जाता है । पर इस छोटी सी यात्रा पूरी करने में कितना समय (कितने जन्म) लगेगें, पता नहीं ? हॉं,"ख" यानि अन्तरिक्ष (अनन्त) को जानने के लिए यदि "ग" यानि गुरू की कृपा प्राप्त हो जाती है तो इस यात्रा में इतना ही समय लगता है जितना रकाब में पैर रखकर अश्व की सवारी में लगता है ।

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