Friday 10 July 2015

रिश्वत लेने के सिद्धान्त

रिश्वत लेने के सिद्धान्त 
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(वर्ष १९७३ में घटी एक सत्य घटना के आधार पर)

मैं कानपुर स्टेशन पर कानपुर-बाँदा पैसेंजर में बैठने जा ही रहा था कि उसी समय पीछे से किसी सज्जन ने कन्धे में हाथ रक्खा । मैं पलटा तो देखा कि टी०सी० सिंह साहब हैं । सिंह साहब मुझसे उम्र में बड़े थे । वह कयी वर्षों से रेलवे की मुजालमत कर रहे थे और साथ ही परास्नातक में मेरे सहपाठी भी थे । मैं उन्हे बड़े होने के नाते भाई साहब ही कहता था और वह मुझे मिश्रा कहकर बुलाते थे । उन्होंने पूंछा कि मिश्रा टिकट ले लिया है ? मैने कहा हॉं भाई साहब । इस पर वे मेरा हाथ पकड़कर ले चले । मैने कहॉं ले चल रहे हैं ? वे बोले चलो हमारे साथ फ़र्स्ट क्लास में बैठो (उस समय इस रूट पर पैसेंजर ट्रेन ही चलती थी और उसमें फ़र्स्ट क्लास का डिब्बा भी लगता था) मैने उन्हे बहुत मना किया पर वे माने नहीं, कहने लगे कि रास्ते मे बातें करेंगे,तुम्हारा समय भी कट जायेगा और मेरा भी । वे मुझे डिब्बे में बिठाकर,यह कहकर चले गये कि तुम बैठो मैं ट्रेन चेक करके आता हूँ । दो-तीन स्टेशन निकलने के बाद वे आए तो उनके साथ दो व्यक्ति और थे,जिन्हें वे चेकिंग में बिना टिकट पकड़ कर लाये थे । अब उनके मध्य हुआ संवाद,जिसके लिए यह लेखन किया गया है, निम्नवत् है ।

चलो निकालो पैसे । रसीद कटवाओ ।
अरे सिंह साहब ! रसीद-वसीद छोड़िए । हम सेवा के लिए तैयार हैं,सेवा बताइए ।
चलो अच्छा इतने-इतने निकालो ।
यह तो बहुत ज़्यादा है साहब,हम तो रोज़ वाले हैं ।
मैं जानता हूँ कि तुम दोनो रोज़ वाले हो,इसीलिए तो इतना मांग रहा हूँ ।
यह क्या बात हुई साहब ?
देखो,मेरा एक सिद्धान्त है कि ट्रेन में बैठने के पहिले यदि तुमने मुझे ढूँढ़ लिया तो पैसा तुम्हारी मर्ज़ी का ।और यदि ट्रेन चलने के बाद, मुझे तुम्हें ढूँढ़ना पड़ा तो पैसा मेरी मर्ज़ी का । मैं अपने इस सिद्धान्त  से कभी कोई समझौता इसलिए नहीं करता, जिससे तुम भविष्य  में ऐसी ग़लती न करो ।
मैंने भाई साहब की इस सिद्धान्तवादिता को मन ही मन नमन किया ।

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