किसी की अकड़ तोड़ने की बजाय,उसकी अकड़ को इस सीमा तक बड़ा देनी चाहिए कि वह अपने आप टूट जाए । ऑंधी आने पर वही पेड़ सुरक्षित रह पाते हैं,जो झुकना जानते हैं, अकड़ में तने पेड़ो का टूटना ही उसकी नियति है । किसी की अकड़ तोड़ने के अपराध बोध से हम क्यों ग्रसित हो ?
किसी की आलोचना करना बहुत आसान है,क्योंकि भगवान भी अगर मानव शरीर में आए हैं तो उन्होंने भी मानवीय कमज़ोरियों का दिग्दर्शन कराया है । इन्सान कमज़ोरियों का पुतला है और हम उसकी कमज़ोरियों को ही देखते हैं, उसके गुणों को हम देखने की कोशिश ही नहीं करते । बुरे से भी बुरे आदमी में भी कुछ अच्छाइयॉं होती है,बेहतर होगा कि हम उसकी आलोचना करने के स्थान पर उसके गुणों की प्रशंसा करे, जिससे वह अच्छाई की तरफ़ जा सके ।
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