राहों में ही भटक रहा हूँ , अपना लक्ष्य कहॉं से पाऊँ ?
मैंने जो बोया था पहिले, उसको ही तो काट रहा हूँ 
धोखा जो पाया था जग से,उसको ही तो बॉंट रहा हूँ 
नफ़रत में ही पला-बढ़ा हूँ,अब मैं प्रेम कहॉं से लाऊँ ?
काम सर्प से डँसा गया हूँ,   नीम मुझे मीठी लगती है
लोभपाश से बंधा हुआ हूँ,  मुक्ति मुझे सीठी लगती है
तुम चाहो तो मुझे उबारो,मैं तो तुम तक पहुँच न पाऊँ ।
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