उपनिषद् की एक कथा है कि एक रृषि अपने पुत्र को ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाहर भेजते हैं । जब पुत्र ज्ञान प्राप्त करके वापिस आता है तो पिता उसे देखकर समझ जाते हैं कि वह ज्ञान नहीं,ज्ञान का अहंकार लेकर आया है ।वे उससे प्रश्न करते हैं कि क्या उसने वह ज्ञान प्राप्त कर लिया है,जिसके बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता ? पुत्र कहता है कि ऐसा ज्ञान तो उसके गुरू ने उसे दिया ही नहीं है ।पिता कहते हैं कि वापिस जाओ और 'वह' ज्ञान प्राप्त करके आओ । पुत्र चला जाता है और फिर वह वापिस पिता के पास नहीं आता । पिता पुत्र की ज्ञान प्राप्ति के प्रति आश्वस्त हो जाते हैं ।
मैं अपने इस जीवन में, जितने भी अच्छे सन्तों से मिला हूँ, उन सब की एक ही पीड़ा है कि उनके पास जो लोग भी आते है,वे सब अपनी सांसारिक परेशानियों को दूर करने के लिए,अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए आते हैं ।जो साधु बनने आते हैं,उनका उद्देश्य मंहत बनना होता है ।पूरे जीवन में,उन्हे एक भी व्यक्ति ऐसा न मिला जो उनसे यह पूंछने गया हो कि प्रभु कैसे मिलेंगे ? उसको पाने के लिए क्या साधना की जाये ? कैसे इस मार्ग पर आगे बढ़ा जाये ? वे पूज्य सन्त,ब्रह्मलीन होने के पहिले,कठोर साधना से प्राप्त ज्ञान को दे जाना चाहते हैं पर कोई सुपात्र उन्हे नहीं मिला ।उनमें से कुछ तो ब्रह्मलीन हो चुके हैं और कुछ उसकी तैयारी में हैं । वे सब चाहते है कि सारे भौतिक,पारिवारिक,धार्मिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाने के बाद, मुझे "को अहम्" की खोज में पूर्ण समर्पण के साथ लग जाना चाहिए ।पर बच्चों के मोह में फँसा होने के कारण,अभी पूर्ण समर्पण की स्थिति नहीं बन पा रही है ।इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि एक वर्ष में सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त होने का कारण,ब्रह्मलीन मेरे गुरू की कृपा ही थी,मेरा पुरुषार्थ नहीं ।
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