Saturday 6 June 2015

मेरा कन्हैया

मेरी मॉं ने बचपन में संस्कार दिये थे कि पुण्य और पाप दोनों कहने से नष्ट हो जाते हैं,अत: पाप दूसरों से बता देना चाहिए और किए हुए पुण्यों को छिपा जाना चाहिए । बड़े होने पर शास्त्रों ने भी इसको पुष्ट किया । आज उसी संस्कार के वशीभूत होकर, कल अनजाने में ही हुए एक पाप की चर्चा के लिए,आपसे मुखातिब हूँ । कल से,मैं काफ़ी उद्विग्न हूँ । आज सुबह ध्यान (मेडीटेशन) में भी मन इसी का चिन्तन करता रहा,अत: ध्यान हुआ ही नहीं । चूँकि इस पाप में कुछ भूमिका 'आनन्द सभा' की भी है,अत: सुबह की दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद,सबसे पहिला काम आपसे मुख़ातिब होने का कर रहा हूँ ।                 
इस समय मैं बंगलौर में अपनी बड़ी बेटी के घर में हूँ । मेरी नातिन साढ़े चार साल की है और नाती डेढ़ वर्ष का है । बंगलौर की पिछली यात्रा में,मैं नाती को खिलाते समय,उसे विभिन्न जानवरों की आवाज़ें सुनाने की ग़लती कर बैठा । नतीजा यह हुआ कि उसे कुत्ते के भौं-भौं की आवाज़ इतनी पसन्द आ गयी है कि अब मेरी पहचान,उसके लिए,"भौं-भौं वाले नानू" के रुप में सीमित होकर रह गयी है । मैं भी,उसमें अपने बाल कृष्ण का दर्शन करके दिन भर आह्लादित रहता हूँ । वह पूजा-पाठ के समय मेरी गोद में आकर बैठ जायेगा,आँखे बन्द कर लेगा,जैसे गहरे ध्यान में डूबा हो । मेरे शंख बजाने पर जहाँ भी होगा,भागकर आएगा और जब तक मैं उसके होंठों से शंख लगा नहीं दूँगा और वह शंख बजाने की तृप्ति अनुभव नहीं कर लेगा,मेरा पल्ला नहीं छोड़ेगा । मैं,उस पर कभी नाराज़ नहीं होता और इसी अहोभाव में रहता हूँ कि मेरे आराध्य ही बाल स्वरुप में मेरे ऊपर करूणा कर रहे हैं ।
कल हुआ यूँ कि मेरी नातिन के स्कूल की छुट्टी थी और दोनो भाई-बहिन मस्ती करने के मूड में थे । मैं 'आनन्द सभा' के एक विचारपूर्ण आलेख पर,टिप्पणी लिखने जा ही रहा था कि दोनो मेरे पास आकर "भौं-भौं" की आवाज़ निकालने की ज़िद करने लगे । मैंने कहा पॉंच मिनट रुक जाओ । नातिन बड़ी है,वह तो मान गयी पर नाती सरकार कहॉं मानने वाले थे ? एक बार तो मन हुआ कि 'आई-पैड' बन्द करके इनकी फ़रमाइश पूरी कर दूँ,फिर लगा कि यह विचार दिमाग़ से निकल जाएगा ।यह सोचकर नाती राजा को मनाने का प्रयास किया पर बाल-हठ तो बाल-हठ ही होता है । कन्हैया ने ग़ुस्से में आकर मटकी फोड़ दी थी,इस कन्हैया को मटकी कहॉं से मिलती ?तो इन जनाब ने,जो भी दो-तीन दाँत इनके मुँह में थे,पूरी ताक़त से मेरे पैरों में गड़ा दिए ।मैंने ज़ोर से डॉंट दिया,अब साहब,कुछ पल के लिए तो वे सहमे और इसके बाद,उनका जो रुदन-नाद शुरू हुआ,वह मेघ-गरजना को भी लज्जित करने वाला था । मैंने घबड़ाकर 'आई-पैड' बन्द कर के गोद में उठाया । गोद में इस क़दर मचलने लगा कि नीचे उतारना पड़ा ।जब लगातार दो मिनट तक भौं-भौं किया,तब जाकर कहीं उनका महारुदन बन्द हुआ ।इसके बाद जब दुबारा भौं-भौं किया,तब कहीं जाकर,उनकी,खिल-खिलाहट,कानों को नसीब हुई ।
वह तो सब कुछ तुरन्त भूल गया,पर मैं इस आत्म ग्लानि सें दंशित हूँ कि मुझसे अपने कन्हैया को 'सहमाने' और 'रुलाने' का अपराध कैसे हो गया ?

No comments:

Post a Comment