Tuesday 30 June 2015

'रस्सी जल गयी, ऐंठन न गयी'

'रस्सी जल गयी, ऐंठन न गयी'
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यह एक प्रचलित मुहावरा है । इसका शाब्दिक अर्थ यह होता है कि रस्सी के जल जाने के बाद भी, जली हुई रस्सी में,पेंच और खम पूर्व की भाँति क़ायम रहते हैं । इसका लाक्षणिक अर्थ यह है कि जैसे कोई अमीर आदमी, अचानक ग़रीब हो जाये तो उसमें कहीं न कहीं अमीर होने की ठसक बरकरार रहती है । उसके आचरण से, उसके व्यवहार से, उसकी भाषा से यह ठसक कहीं न कहीं प्रदर्शित हो ही जाती है ।इसी प्रकार उच्च पदों में बैठे हुए व्यक्ति, सेवानिवृत्त हो जाने के बाद भी, अपनी ठसक से मुक्त नहीं हो पाते । इसको और सरल ढंग से इस प्रकार कहा जा सकता है कि कोई भी वयक्ति विपरीत परिस्थितियॉं आ जाने के बावजूद भी अपने पूर्व स्वभाव या अंहकार से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाता ।

जैसा कि मैं पहिले भी निवेदन कर चुका हूँ कि हमारे यहॉं या कहीं की भी, लोक-कहावतों या मुहावरों का एक शाब्दिक और एक लाक्षणिक अर्थ तो होता ही है, उसके साथ-साथ, उसमें समाज के लिये एक छिपा हुआ गूढ़ सन्देश भी होता है जिसे कम लोग समझ पाते है । जो इन गूढ़ सन्देशों को समझ कर, अपने जीवन में,उतार लेता है,उसका कल्याण होने से कोई रोक नहीं सकता ।

मेरी समझ से इस मुहावरे का सन्देश यह है कि मानव,अपने जीवन में जैसे कर्म करता है, तदानुसार संस्कार,उसके अवचेतन मन में पड़ते जाते हैं,(यही रस्सी के पेंच और ख़म हैं ) जो उसका शरीर भस्मीभूत या नष्ट हो जाने के बाद भी नष्ट नहीं होते । उसके कर्म ही,उसे जीवित रहते,सुख या दुख प्रदान करते हैं और यही कर्म ही संस्कार बन कर उसके साथ आगे की यात्रा तय करते हैं ।अत: मनुष्य अच्छे कर्मों के द्वारा अपना वर्तमान और भविष्य सुधार सकता है ।


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