Friday 12 June 2015

दूसरे को दर्पण न दिखाकर स्वंय दर्पण देखना चाहिए ।

स्वयं दर्पण देखने का अर्थ है कि आप अपना आत्मावलोकन करे और यदि कोई विषमता नज़र आए तो उस विषमता को जीवन से दूर करें । दूसरे को दर्पण दिखाने का अर्थ है कि सामने वाले को उसकी कमज़ोरियॉं बतायी जाएँ ।हर व्यक्ति को प्रतिदिन दर्पण देखना चाहिए,पर दूसरे को दर्पण दिखाने से बचना चाहिए । पर हम करते ठीक इसका उलटा है । यहीं तक नहीं,अपनी ग़लतियों से होने वाले नुक़सान के लिए भी, अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार न करके या तो समय और परिस्थितियों के उपर ज़िम्मेदारी डाल देते हैं या अन्य के ऊपर । जीवन में जो भी अच्छा होता है,उसके कर्ता स्वंय बनकर, श्रेय ले लेते हैं और जो भी ग़लत होता है,उसका कर्ता दूसरे को बनाकर दोष उसके ऊपर डाल देते हैं, यहाँ तक कि भगवान को भी दोषी सिध्द् करने से नहीं चूकते ।

घरों में प्रायः पति-पत्नी के बीच इस तरह के संवाद सुनने को मिलते हैं । यदि बच्चा अच्छा काम करके आया तो पिता कहेगा "आख़िर बच्चा है किसका ?" वही बच्चा जब ग़लत काम करके आता है तो पिता कहेगा,"बच्चे में सारे संस्कार तुम्हारे ही पड़ गए है,यदि एक-आध मेरे भी पड़ जाते तो इसका कल्याण हो जाता ।" यह संवाद मॉं की तरफ़ से भी बोले जा सकते हैं ।

आपके दो बच्चे हैं । एक भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गया और दूसरा आवारा निकल गया । आप समाज के बीच में बैठे हैं,किसी व्यक्ति ने आपके प्रशासनिक सेवा में चयनित होने वाले बच्चे के लिए आपको बधाई दी और आपको भाग्यशाली ठहराया तो आपकी प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी कुछ इस प्रकार होगी,"अरे,भाई साहब ! आप क्या जाने कि इसको यहाँ तक पहुँचाने में मुझे कितना श्रम करना पड़ा है ? कहॉं-कहॉं से जुगाड़ लगाकर इसको अच्छी कोचिंग करा पाया हूँ ,तब जाकर कहीं इसको यह सफलता मिली है । वहीं बैठे किसी दूसरे व्यक्ति ने यदि दबे स्वर में आपके आवारा बच्चे का ज़िक्र कर दिया,तो आपकी टिप्पणी कुछ इस प्रकार होगी,"अरे भाई मैंने तो यही प्रयास किया था कि मेरे दोनों बच्चे अच्छे निकले पर भगवान को मंज़ूर नहीं था ।"
यानि जो अच्छा हुआ उसका कर्ता मैं और जो ग़लत हुआ उसका कर्ता भगवान ।वाह रे इन्सान ? और वाह रे तेरी फ़ितरत ?

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