Tuesday 2 June 2015

मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहि विरंचि सम ।

                                                 मैंने आज से लगभग १५ वर्ष पूर्व,जब गम्भीरता से अपने धर्म शास्त्रों का अनुशीलन प्रारम्भ किया तो हर शास्त्र के आख़ीर में,मुझे यह मुमानियत बहुत अजीब सी लगी कि इन शास्त्रों का पठन-पाठन या इन पर चर्चा उन व्यक्तियों से न की जाए,जिनका प्रभु चरणों में अनुराग न हो,यानि कि नास्तिक हों । इस सम्बन्ध में रामचरितमानस और गीता की कुछ पंक्तियॉं उल्लेखनीय हैं,
                                                  "यह न कहिअ सठही हठसीलहि,जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि
                                                    कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि,जो न भजइ सचराचर स्वामिहि"
(मानस के अन्त में शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए,यह मुमानियत कर रहे है कि इस कथा को,उन व्यक्तियों से न कहा जाय,जो सठ हों,हठशील हों और हरि की लीलाओं में जिनका मन न लगता हो तथा ऐसे व्यक्ति भी जो क्रोधी हों,लोभी हों,कामी हो और जो पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी का भजन न करता हो,से भी इस कथा को न कहा जाय)
                                                     तो फिर इस कथा के सुनने के पात्र कौन हैं?
                                                     "राम कथा के तेइ अधिकारी,जिनके सतसंगति अति प्यारी 
                                                       गुर पद प्रीति नीति रत जेई,द्विज सेवक अधिकारी तेई
                                                       ता कहँ यह विशेष सुखदाई,जाहि प्रानप्रिय श्री रघुराई"
(इस कथा को सुनने के अधिकारी वे हैं,जिनको सतसंगति अति प्यारी हो,जिनकी गुर चरणों में प्रीति हो,जो नीति रत हों,द्विज सेवक हों ।जिनको राम प्राणों से भी अधिक प्रिय हों,उनको यह विशेष सुख प्रदान करने वाली है)
                                                       "इदं ते नातपसकाय नाभक्ताय कदाचन
                                                        न चाशुश्रूषवे वाचयं न च मां यो अभयसूयति"
(यह गुहयज्ञान उनको कभी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं,न एकनिष्ठ,न भक्ति में रत हैं,न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो)।      
                                                        मुझे लगा कि इस ज्ञान की सबसे ज़्यादा आवश्यकता तो उन्हीं लोगों को है,जिनको इसकी मुमानियत की गयी है ।मेरी बुद्धि यह स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं थी कि यह मुमानियत अर्थहीन है ।यह प्रश्न मन को मथते रहे ।जब मैं अपने इस जनम के गुरु,स्वामी जी के सम्पर्क मे आया तो मैंने उनसे इन प्रश्नों का समाधान चाहा तो उन्होंने जो समाधान दिया वह इस प्रकार है ।
                                                         हर मनुष्य का बौद्धिक स्तर अलग-अलग होता है ।एक स्तर है जिसे सठ कहा जाता है,उसके सुधार की गुंजाइश रहती है,"सठ सुधरहिं सतसंगति पाई,पारस,धातु-कुधातु सुहाई"अर्थात इस स्तर के व्यक्ति,सत्संग के प्रभाव से उसी तरह से सुधर जाते हैं,जैसे पारस के सम्पर्क में आने से लोहा,सोने में परिवर्तित हो जाता है ।
                                                          दूसरे स्तर के व्यक्ति हैं,'मूर्ख' ।इनको यदि ब्रह्मा भी गुरु के रूप में मिल जायें तो भी उनमें उसी प्रकार परिवर्तन असम्भव है,जैसे मेघ यदि अमृत भी बरसाएँ तो भी बेंत(बॉंस) के पेड़ पर फूल और फल नहीं आ सकते ।"मूरख ह्रदय न चेत,जो गुरु मिलहिं विरंचि सम ।फूलहिं-फलहिं न बेंत,जदपि सुधा बरसहिं जलधि"
                                                           एक तीसरा स्तर भी है और वह है'खल' का ।और इनके लिए कहा गया है कि इनका त्याग स्वान की तरह कर देना चाहिए,"खल परिहरिहिं स्वान की नाईं"
                                                            स्वामी जी ने कहा कि हमारे ग्रन्थों में इसीलिए नास्तिकों को,इसकी चर्चा करने से मना किया गया है,क्योंकि वे तुम्हारी बात मानेंगे नहीं ।तरह-तरह के तर्क-वितर्क करेगें,उनसे बात कर के तुम अपनी ऊर्जा और समय का विनाश ही करोगे और इससे उनका भी कोई भला नहीं होना ।आत्म साक्षात्कार या प्रभु का ज्ञान बिना श्रध्दा के सम्भव नहीं है ।वह तर्क ,मन,बुद्धि और वाणी से भी परे है,"राम अतर्क,मन,बुद्धि,बानी" तथा"श्रध्दावान् लभते ज्ञानम् तत्पर: संयते इन्द्रिय:
ज्ञानम् लब्धवा पराम् शान्ति नचिरेणाधिगचछति"

                                       

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