Tuesday 30 June 2015

'डाक्टर्स डे पर'

'डाक्टर्स डे' पर ।

आज याद आ रही है, उत्तरप्रदेश के पिछड़े जिलों में एक बाँदा नगर पालिका के दवाखाना के वैद्य शास्त्री जी की । वैसे तो उनका पूरा नाम श्री भवानीदत्त शास्त्री था, पर वह 'शास्त्री' जी के ही नाम से ही जाने जाते थे । दुबला शरीर,गोरा रंग,औसत लम्बाई,सफ़ेद कुर्ता-धोती में,हर समय प्रसन्न रहने वाला चेहरा, ६० वर्षों के अन्तराल के बाद, आज भी उसी तरह जीवन्त है,जैसा उन्हे ४-५ वर्ष की उम्र में पहिली बार देखा था । उनके दवाखाना में,भीड़ बहुत होती थी, लाइन में लगना पड़ता था और इसका कारण थे,शास्त्री जी । पता नहीं उनके हाथों में क्या जादू था कि अदरक के रस और शहद के साथ,उनकी पहिली पुड़िया खाते ही,मरीज़ को आराम मिलने लगता था । एक बार में तीन दिन से ज़्यादा की दवा नहीं देते थे और तीन दिनों के बाद कुछ ही मरीज़ों को दुबारा आना पड़ता था । शास्त्री जी केवल नुस्ख़े का पर्चा लिखते थे, दवा देने का कार्य छोटे वैद्य जी करते थे और जड़ी-बूटियों को खल्लर-मुंगरी से कूट-पीस कर दवाएँ तैयार करने का कार्य,उनका एक सहायक करता था । उस समय इस तरह के दवाखानों में पर्ची बनवाने का भी कोई शुल्क नहीं लगता था,दवाएँ तो मुफ़्त में थी हीं ।

आज याद आ रहे हैं, मुझे, चित्रकूट (उ०प्र०) के पास के गाँव लोड़वारा के वैद्य जी,जो लोड़वारा वाले वैद्य जी के ही नाम से प्रसिद्ध थे । वर्ष १९७४ में, मैं चित्रकूट में ही नियुक्त था, तब से कयी बार, उनके यहॉं जाने का अवसर मिला । उनकी विशेषता यह थी कि वह मरीज़ से उसकी बीमारी के बारे में पूंछते ही नहीं थे । मरीज़ की नाड़ी पर उन्होंने हाथ रक्खा और धारा प्रवाह, मर्ज़ के लक्षण गिनाने शुरू कर दिये और उसके साथ यह भी कि यह परेशानी,उसे कब से है ? क्या मजाल कि यह विवरण १ प्रतिशत भी ग़ल्त निकले । वैद्य जी का दवाखाना घर पर ही था । वह सुबह तीन-चार घन्टे देवी की आराधना करने के बाद,बैठते थे और जब तक सारे मरीज़ नहीं देख लेते थे, तब तक उठते नहीं थे । उनके यहॉं भी बहुत भीड़ होती थी ।

आज याद आ रहे हैं, मुझे, सहारनपुर (उ०प्र०) के समीप, रामपुर मनिहारन नामक गाँव के हकीम जी । मैं वर्ष १९९१-९२ में वहॉं नियुक्त था, तब कयी बार उनके यहॉं जाने का अवसर प्राप्त हुआ । उनके यहॉं भी काफ़ी भीड़ होती थी और हकीम जी का स्वभाव भी बहुत अच्छा था । उनके यहॉं की विशेष बात यह थी कि हकीम जी,दवाओं के साथ दुआ के रूप में, मरीज़ को, काग़ज़ में पवित्र क़ुरान की कोई आयत लिख कर देते थे और मरीज़ से कहते थे कि वह इसे पानी में घोलकर पी भी सकता है और ताबीज़ बनवाकर गले में पहिन भी सकता है ।

याद तो मुझे बहुत से लोग आ रहे है,पर आलेख का आकार इतना बड़ा न हो जाये कि पाठक ऊब कर पढ़ना ही छोड़ दे,इसलिए एक डाक्टर दम्पत्ति और एक और डाक्टर के विषय में आपसे मुख़ातिब होकर, बात समाप्त करूँगा ।

यह डाक्टर दम्पति हैं, उरई (जालौन ज़िला),उ०प्र० के डा० रमेश चन्द्रा और उनकी धर्म पत्नी डा०रेनू चन्द्रा । आज के युग में ऐसे कर्मयोगी मिलना असम्भव तो नहीं पर दुष्कर ज़रूर है । इनकी क्लीनिक (अति छोटा नर्सिंगहोम सहित) नीचे है और इनका निवास ऊपर है । चौबीस घन्टे,निस्पृह भाव से,मरीज़ों की सेवा में,इस दम्पत्ति को देखना, मेरे जीवन की वह धरोहर है,जिसे मैं हमेशा अपने साथ रखना चाहूँगा । इस दम्पति के दोनो लोग, समाज की सेवा में,(केवल मरीज़ों की ही नहीं) एक दूसरे से कम नहीं हैं । डा०रेनू एक प्रतिष्ठित कवियत्री भी हैं । राम जाने इतनी व्यस्तताओं के बीच,काव्य साधना कैसे कर लेती हैं ?

अन्त में कानपुर (उ०प्र०) के प्रसिद्ध सर्जन डा०आशुतोष बाजपेई के विषय में चर्चा करके अपनी बात को समाप्त करूँगा । आज से लगभग २०-२५ पच्चीस वर्ष, कानपुर में उच्च वर्ग के लिए'रीजेन्सी',मध्यम वर्ग के लिए 'मधुराज' और सामान्य वर्ग के लिए 'आर०के०देवी' नामक प्राइवेट नर्सिंगहोम हुआ करते थे, जो आज भी हैं ।डा०बाजपेई इन तीनों जगह के साथ-साथ अपने छोटे से क्लीनिक में भी मरीज़ों को देखते थे/हैं । एक बार मैं 'आर०के०देवी' में बाहर डाक्टर साहब का ही इन्तज़ार कर रहा था कि तभी डा०साहब आ गये । उनको देखकर, उनके चरणस्पर्श करने वालों की लाइन सी लग गयी । यह चरणस्पर्श उनको श्रध्दा के कारण किया जा रहा था और यह श्रध्दा पैदा हुई थी डा०साहब के पवित्र आचरण के कारण और यह आचरण की पवित्रता उनको प्राप्त हुई थी, अपने पिता, कानपुर के सुप्रसिद्ध डाक्टर जी०एन०बाजपेई से मिले रक्त संस्कारों से ।डा०आशुतोष बाजपेई की सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने कभी भी किसी मरीज़ का इलाज, पैसे के कारण रोका नहीं है । उन्होंने बग़ैर अपनी फ़ीस लिए तमाम आपरेशन मेरी जानकारी में किये हैं । यहीं तक नहीं ग़रीब मरीज़ों की दवा का भी प्रबन्ध किया है ।

आज 'डाक्टर्स डे' पर मेरा यह आलेख केवल इसलिए है कि इस पवित्र व्यवसाय में आ गयी सड़ान्ध के कारण,फैल रही दुर्गन्ध को, कुछ बन्द खिड़कियॉं खोलकर ताज़ी हवा के झोंकों को आमंत्रित करके, कुछ कम कर सकूँ । डा०विधानचन्द्र राय की स्मृति में,मनाये जाने वाले इस दिवस पर, उपरोक्त महानुभावों के अलावा, उन सभी डाक्टरों को भी नमन करना चाहूँगा, जो इस व्यवसाय के प्रारम्भ में ली गयी शपथ का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं ।


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