Monday 15 June 2015

"कुपथ निवारि सुपंथ चलाना,गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा"

"कुपथ निवारि सुपंथ चलावा,गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा"

यह पंक्ति 'मानस' में भगवान राम ने,सुग्रीव जी को मित्र के अर्थ समझाने हेतु कही है । इसका अर्थ यह है कि मित्र वह है जो आपको कुपथ (कुमार्ग) से हटाकर,सुपंथ (सुमार्ग) पर चलावे और आपके अवगुणों को छिपाकर,आपके गुणों को प्रकट करे या प्रकाशित करे ।

यह पंक्ति मेरी जीवन में कैसे उतरी ? इसको स्पष्ट करने के लिए मुझे ४७ वर्ष पूर्व जाना पड़ेगा । यह घटना वर्ष १९६८ में घटी थी जब मैं बी०एस०सी०(प्रथम वर्ष) का छात्र था । हुआ यूँ कि मेरा एक सहपाठी,जो विद्यालय का सबसे बदसूरत (गहरा काला रंग जो हबसियों के रंग की प्रति स्पर्धा करने में पूर्ण सक्षम था और नाक-नक़्श एेसे जैसे डाकखाने के डाक छाँटने वाले ने,एक मुहल्ले की डाक दूसरे मुहल्ले के खाने में डाल दी हो) मेरा घनिष्ठ मित्र बन गया और इसका कारण यह था कि वह बाहर से जितना बदसूरत था,अन्दर से उतना ही भोला और सरल ।

मेरा यह मित्र पिछड़ी जाति का था और मैं सवर्ण । शुरू में इसने मुझसे अपनी जाति छुपाई थी । यह अपने नाम के आगे प्रजापति लगाता था । उस समय मुझे नहीं मालूम था कि प्रजापति का अर्थ कुम्हार होता है । मैंने एक दिन इससे प्रजापति का अर्थ पूंछा तो इसने कहा कि गुप्ता (बनियॉं) में ही प्रजापति होते हैं । हुआ यूँ कि इसे किसी नौकरी के लिए फ़ार्म भरना था जिसके लिए इसे जाति प्रमाण पत्र की आवश्यकता थी । कई दिनों की परेशानी के बाद,तहसील से उसे प्रमाण पत्र हासिल हो पाया था तो इसने प्रसन्नता के आवेश में वह प्रमाण पत्र मुझे दिखा दिया । जब मैंने देखा तो उसमें कुम्हार लिखा हुआ था । मैंने दुखी होकर उससे पूंछा कि तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला ? क्या हमारी दोस्ती जाति की मोहताज है ? उसने तुरन्त माफ़ी माँगते हुए कहा,भाई मैं डरता था ! मुझे कोई दोस्त बनाता नहीं है,मुझे लगता था कि कहीं तुम भी दोस्ती न तोड़ लो ? उसकी सरलता देखकर मैं तुरन्त सहज हो गया ।

मेरी और उसकी घनिष्ठता देखकर मेरे सवर्ण मित्रों ने पहिले तो बहुत प्रयास किया कि मैं उससे अपनी मित्रता तोड़ लूँ । पर जब इसमें उनको सफलता नहीं मिली तो वह उसके विरूद्ध षड्यंत्र रचने लगे ।
हमारी एक सहपाठिनी पंजाबी थी और बला की ख़ूबसूरत थी । मेरा मित्र विद्यालय का सबसे बदसूरत छात्र और वह सबसे ख़ूबसूरत छात्रा । मेरा मित्र एक साल बी०एस०सी० में फ़ेल हो चुका था, इस कारण से प्रायोगिक कक्षा में क्षात्राएँ उसके अनुभव का लाभ ले लेती थीं,जिसमें वह बला की ख़ूबसूरत छात्रा सबसे आगे थी । पंजाबी बातचीत में बेबाक़,मितभाषी और कुशल तो होते ही हैं सो उसके खुलेपन का (जो उसकी संस्कारगत विशेषता थी) मेरे मित्र ने ग़लत अर्थ निकाला और वह प्रेम की तपिश से तपने लगा और उसके इस एकतरफ़ा प्रेम को भड़काने का काम किया उन षड्यंत्रकारी सहपाठियों ने ।

मेरे मित्र का बाल-विवाह हो चुका था पर गौना(पुनरागमन) नहीं हुआ था । मेरा मित्र योजना बनाने लगा कि कैसे उससे छुटकारा पाया जाए? इसी बीच एक घटना और घट गयी । शाम का समय था,वह बला अपने घर के दरवाज़े पर खड़ी थी, मैं सामने से आ रहा था,उससे निगाहें चार हुईं, नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ ।उसने पूंछा कहॉं से आ रहे हैं ? मैंने बताया । उसने कहा आपसे एक बात कहनी थी । मैंने कहा बताओ तो उसने कहा कि घर के अन्दर चलिए,आराम से बैठकर बात करेगें । मै एक क्षण के लिए असमंजस में तो पड़ा कि कहीं वह मेरे मित्र की किसी बेवक़ूफ़ी पर तो कोई बात नहीं करना चाहती ? फिर जाने क्या सोचकर मैं उसके घर के अन्दर चला गया । उसकी मम्मी चाय ले आईं । चाय पीने के बाद मैंने उससे पूंछा कि बताओ क्या बात करनी है । उसने कहा कि मैं कल लाइब्रेरी गयी थी ।मुझे 'कोटपाल सीरीज़' के पुस्तकों की ज़रूरत थी तो लाइब्रेरियन ने बताया कि वह आपके पास हैं और आप उन्हे परीक्षा के बाद ही जमा करेंगे । अत: अगर मैं उसे यह पुस्तकें कुछ दिनों के लिए दे दूँ तो वह नोट्स बनाकर मुझे वापिस कर देगी ।मैंने कहा ठीक है मैं कल विद्यालय में वे पुस्तकें,उसे दे दूँगा ।

मैं उसके घर के बाहर निकला ही था कि मेरा वह मित्र मिल गया । मुझे नहीं मालूम था कि वह हर शाम इस बला की एक झलक पाने के लिए,घंटों उसके घर के आस-पास बरबाद करता है । उसने मुझसे सशंकित होकर पूंछा कि मैं इतनी देर से उसकी तथाकथित प्रेमिका के यहाँ क्या कर रहा था ? और मेरी उससे क्या बातें हुईं ? मैनें भी मज़ा लेने के लिए कह दिया कि वह पूरे समय तुम्हारे ही विषय में बात करती रही । उसकी जिज्ञासा जैसे-जैसे बड़ती जाती थी,मेरी कल्पना की उड़ान भी तदनुसार व्यापक होती जाती थी । कहानी तो बहुत लम्बी है पर संक्षेप में हुआ यह कि उसका पागलपन बढ़ता ही गया ।

फ़ाइनल परीक्षा के लिए एक माह ही शेष रह गया था । मैं उसके घर गया तो उसने फिर वही पागलपन की बातें शुरू कर दीं । मुझे तेज़ ग़ुस्सा आया । मैं झटके से उठा और अलमारी से सीसा उठाकर उसके चेहरे के सामने रखकर बोला,"बेवक़ूफ़ अपना चेहरा देख सीसे में ? देखा ? क्या है तेरे पास ? न सूरत,न सीरत, न धन न वैभव । क्या है तेरे पास जो वह तेरे ऊपर मरेगी ? एक साल तेरा पहिले ही ख़राब हो चुका है ।तेरा भाई किस मुसीबत से तुझे पढ़ा रहा है ?और तू है कि परीक्षा के लिए एक महीना ही बाकी रहने के बाद भी,इश्क़ के भूत को सिर पे चढ़ाए घूम रहा है । वह एकदम से फूट-फूटकर रोने लगा और बोला कि तुम भी तो कह रहे थे कि वह देर तक मेरे बारे में तुमसे बातें करती रही थी । मैनें क़समें खाकर उसे समझाया कि वह सब मज़ाक़ था । कयी दिनों के लगातार प्रयास के बाद वह वास्तविकता को बेमन स्वीकार कर पाया । मुझे उसको सीसा दिखाने का जितना दु:ख आज भी है,उतनी ही ख़ुशी भी है कि उसका एक और साल बरबाद होने से बच गया और वह व्यवस्थित ज़िन्दगी जी पाया ।

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