Tuesday 18 August 2015

"जीवन के वे पल"

कल गुजरात पहुँचने पर भ्राताश्री रमाकान्त सिंह जी द्वारा भेंट की गई पुस्तक "जीवन के वे पल" प्राप्त हुई । यात्रा की थकान के कारण कुछ कविताएँ कल पढ़ी, शेष आज पढ़ी । पढ़ने के तुरन्त बाद मन में कुछ कहने का विचार आया । विगत १० दिनों से जड़ता की स्थिति में जी रहा था, इस पुस्तक ने वह जड़ता तोड़ी और मैं विवश हो गया आप सब से मुख़ातिब होने के लिए ।

"जीवन के वह पल" जीवन की वह गाथा है जिसमें जीवन के हर अंग को विभिन्न रंगों में, कवि की लेखनी ने,इतने भावपूर्ण ढंग से भरा है कि मन जैसे ही 'वह जाती आगे आगे' में रूमानियत की बाँहों में डूबने को होता है कि तभी 'सत् पुरुषों के नाम' के सामाजिक और राजनैतिक विद्रूपताओं के दंश उसे तिलमिला देते हैं । नन्ही 'आरिका' की चुलबुलाहट जैसे ही मन को आह्लाद से आप्लावित करती है कि वैसे ही 'द्रौपदी' में नारी जीवन की अभिशापिता नेत्रों में अश्रु भर देती है । 'यक्ष प्रश्न' हमारे सामने ऐसे प्रश्न खड़े करता है,जिसके जवाब प्रभु ही दे सकते हैं ।

'३१ जनवरी,१९९४','दिवाली-१९९२' जीवन के नैराश्य को समाप्त कर,आशा का एक नया आकाश गढ़ती है ।'तुमने कहा था' में कवि का आक्रोश प्रकट हुआ है तो 'मन वीणा के तार न तोड़ो','हर पंछी को नीड़ चाहिये' में जिजीविषा का सौन्दर्य अपनी पूरी गरिमा के साथ मुखरित होता है ।

संकलन की हर कविता एक नयी भाव सृष्टि का सृजन करती है ।'वरदान' में जिस वरदान की याचना अपनी पूरी अस्मिता के साथ,प्रभु से की गयी है, उसमें 'याचना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला दो' के साथ प्रभु से यह भी प्राथना है कि वह कवि को एक स्वस्थ और लम्बा जीवन प्रदान करे,जिससे हम सभी उनकी भावपूर्ण, विचारपूर्ण,गहन संवेदनाओं,दीर्घ अनुभवों से युक्त रचनाओं से प्रेरणा ग्रहण करते रहें ।


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