आज पूरा संसार Friendship Day मना रहा है । हमारी संस्कृति में मित्र कैसा होना चाहिए ? किस तरह के मित्र से दूर रहने में ही भलाई है ? इसका सुन्दर विवेचन "मानस" में प्रभु राम द्वारा सुग्रीव से किये गये वार्तालाप में,हुआ है । इस वार्तालाप में श्रुतियों का सार निहित है ।
"जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि बिलोकत पातक भारी
निज दुख गिरि सम रज करि जाना,मित्रक दुख रज मेरु समाना"
( जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हे देखने से ही बड़ा भारी पाप लगता है । अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान माने ।)
"जिन्ह के असि मति सहज न आई, ते सठ कत हठि करत मिताई
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा, गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा"
( जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी मति प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे । उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे ।)
"देत लेत मन संक न धरई, बल अनुमान सदा हित करई
विपति काल कर सतगुन नेहा, श्रुति कह संत मित्र गुन नेहा"
( देने-लेने में मन में शंका न रखे । अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे । विपत्ति के समय में तो सदा सौगुना स्नेह करे । वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं ।)
यह तो थे मित्र के लक्षण । अब कैसे मित्रों को छोड़ देने में ही भलाई है, इसका निरूपण निम्न चौपाई में है ।
"आगें कह मृदु बचन बनाई, पाछे अनहित मन कुटिलाई
जाकर चित अहि गति सम भाई, अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई"
( जो सामने तो बना-बनाकर कोमल बचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है-हे भाई!(इस तरह) जिसका मन सॉंप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है ।)
मित्रता दिवस पर मैं सभी मित्रों का ह्रदय से स्मरण करते हुए, प्रभु को आज के दिन आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने मुझे आप जैसे प्यारे मित्र दिए हैं, जिसके कारण मेरा जीवन रस और आनन्द से आपूरित हो सका ।
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