Thursday, 20 August 2015

"जीवन के वे पल" के प्राक्कथन पर टिप्पणी

आदरणीय भ्राता श्री रमाकान्त जी ने आदेश दिया है कि मैं उनके काव्य संकलन "जीवन के वे पल" के प्राक्कथन पर अपनी टिप्पणी 
दूं ।

कवि ने "अपनी बात" में तीन बातों पर ज़ोर दिया है ।

१-साहित्य (निबन्ध,कहानी,उपन्यास,कविता आदि कोई भी विधा) जीवन के लिए है । जीवन से इतर न तो कोई महत्व है और न ही कोई उपादेयता ।

२-साहित्य को सम्प्रेषणीय होना चाहिए । पाठक को उसे समझने के लिए माथा-पच्ची न करनी पड़े ।

३-लेखक को अपनी रचना में कोई संदेश निष्कर्ष के रूप में देना चाहिए जो मानवीय मूल्यों के अनुकूल हो ।

१-"साहित्य समाज का दर्पण है" चूँकि साहित्य समाज का दर्पण है,अत: जैसा समाज होगा,जैसे सामाजिक मूल्य होंगें,वही साहित्य रूपी दर्पण में प्रतिविम्बित होगा । हॉं यदि साहित्यकार ने अपने दर्पण को अपने विचारों से मैला कर रक्खा है तो प्रतिविम्ब पूरी शिद्दत के साथ नहीं उभरेगा । अत: यह स्वंयसिद्ध है कि साहित्य का जीवन से इतर न तो कोई महत्व है और न ही कोई उपादेयता ।

२-महाकवि तुलसी संस्कृत के उद्भट विद्वान थे,यह रामचरितमानस के प्रत्येक अध्याय का मंगलाचरण प्रमाणित करता है,इसके बाद भी उन्होंने प्राकृत भाषा (हिन्दी) में काव्य रचना मात्र इसलिए की कि जिससे वह जन सामान्य के पास सीधे पहुँच सके,जबकि इसके लिए,उन्हे तत्कालीन विद्वत् समाज की प्रताड़ना भी सहनी पड़ी ।

केशव ने भी "रामचन्द्रिका" लिखकर राम का ही चरित्र गाया है,पर उन्हें, साहित्य के विद्यार्थी को छोड़कर कोई नहीं जानता और वह भी उन्हे "कठिन काव्य के प्रेत" के रूप में उल्लखित करता है ।
अत: वही साहित्य कालजयी हो पाता है जो शाश्वत् मूल्यों की स्थापना करता है और पाठक के ह्रदय के साथ सीधे रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम होता है ।

३-मानवीय मूल्यों की गिरावट ही रचनाकार को लेखन के लिए बाध्य करती है और मानवीय-सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना ही उसका उद्देश्य होता है । बिना इस उद्देश्य के ध्यान में रक्खे किया गया लेखन, लेखकीय क्षमता का दुरुपयोग तो हो सकता है,साहित्य नहीं ।

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