Tuesday, 30 June 2015

'डाक्टर्स डे पर'

'डाक्टर्स डे' पर ।

आज याद आ रही है, उत्तरप्रदेश के पिछड़े जिलों में एक बाँदा नगर पालिका के दवाखाना के वैद्य शास्त्री जी की । वैसे तो उनका पूरा नाम श्री भवानीदत्त शास्त्री था, पर वह 'शास्त्री' जी के ही नाम से ही जाने जाते थे । दुबला शरीर,गोरा रंग,औसत लम्बाई,सफ़ेद कुर्ता-धोती में,हर समय प्रसन्न रहने वाला चेहरा, ६० वर्षों के अन्तराल के बाद, आज भी उसी तरह जीवन्त है,जैसा उन्हे ४-५ वर्ष की उम्र में पहिली बार देखा था । उनके दवाखाना में,भीड़ बहुत होती थी, लाइन में लगना पड़ता था और इसका कारण थे,शास्त्री जी । पता नहीं उनके हाथों में क्या जादू था कि अदरक के रस और शहद के साथ,उनकी पहिली पुड़िया खाते ही,मरीज़ को आराम मिलने लगता था । एक बार में तीन दिन से ज़्यादा की दवा नहीं देते थे और तीन दिनों के बाद कुछ ही मरीज़ों को दुबारा आना पड़ता था । शास्त्री जी केवल नुस्ख़े का पर्चा लिखते थे, दवा देने का कार्य छोटे वैद्य जी करते थे और जड़ी-बूटियों को खल्लर-मुंगरी से कूट-पीस कर दवाएँ तैयार करने का कार्य,उनका एक सहायक करता था । उस समय इस तरह के दवाखानों में पर्ची बनवाने का भी कोई शुल्क नहीं लगता था,दवाएँ तो मुफ़्त में थी हीं ।

आज याद आ रहे हैं, मुझे, चित्रकूट (उ०प्र०) के पास के गाँव लोड़वारा के वैद्य जी,जो लोड़वारा वाले वैद्य जी के ही नाम से प्रसिद्ध थे । वर्ष १९७४ में, मैं चित्रकूट में ही नियुक्त था, तब से कयी बार, उनके यहॉं जाने का अवसर मिला । उनकी विशेषता यह थी कि वह मरीज़ से उसकी बीमारी के बारे में पूंछते ही नहीं थे । मरीज़ की नाड़ी पर उन्होंने हाथ रक्खा और धारा प्रवाह, मर्ज़ के लक्षण गिनाने शुरू कर दिये और उसके साथ यह भी कि यह परेशानी,उसे कब से है ? क्या मजाल कि यह विवरण १ प्रतिशत भी ग़ल्त निकले । वैद्य जी का दवाखाना घर पर ही था । वह सुबह तीन-चार घन्टे देवी की आराधना करने के बाद,बैठते थे और जब तक सारे मरीज़ नहीं देख लेते थे, तब तक उठते नहीं थे । उनके यहॉं भी बहुत भीड़ होती थी ।

आज याद आ रहे हैं, मुझे, सहारनपुर (उ०प्र०) के समीप, रामपुर मनिहारन नामक गाँव के हकीम जी । मैं वर्ष १९९१-९२ में वहॉं नियुक्त था, तब कयी बार उनके यहॉं जाने का अवसर प्राप्त हुआ । उनके यहॉं भी काफ़ी भीड़ होती थी और हकीम जी का स्वभाव भी बहुत अच्छा था । उनके यहॉं की विशेष बात यह थी कि हकीम जी,दवाओं के साथ दुआ के रूप में, मरीज़ को, काग़ज़ में पवित्र क़ुरान की कोई आयत लिख कर देते थे और मरीज़ से कहते थे कि वह इसे पानी में घोलकर पी भी सकता है और ताबीज़ बनवाकर गले में पहिन भी सकता है ।

याद तो मुझे बहुत से लोग आ रहे है,पर आलेख का आकार इतना बड़ा न हो जाये कि पाठक ऊब कर पढ़ना ही छोड़ दे,इसलिए एक डाक्टर दम्पत्ति और एक और डाक्टर के विषय में आपसे मुख़ातिब होकर, बात समाप्त करूँगा ।

यह डाक्टर दम्पति हैं, उरई (जालौन ज़िला),उ०प्र० के डा० रमेश चन्द्रा और उनकी धर्म पत्नी डा०रेनू चन्द्रा । आज के युग में ऐसे कर्मयोगी मिलना असम्भव तो नहीं पर दुष्कर ज़रूर है । इनकी क्लीनिक (अति छोटा नर्सिंगहोम सहित) नीचे है और इनका निवास ऊपर है । चौबीस घन्टे,निस्पृह भाव से,मरीज़ों की सेवा में,इस दम्पत्ति को देखना, मेरे जीवन की वह धरोहर है,जिसे मैं हमेशा अपने साथ रखना चाहूँगा । इस दम्पति के दोनो लोग, समाज की सेवा में,(केवल मरीज़ों की ही नहीं) एक दूसरे से कम नहीं हैं । डा०रेनू एक प्रतिष्ठित कवियत्री भी हैं । राम जाने इतनी व्यस्तताओं के बीच,काव्य साधना कैसे कर लेती हैं ?

अन्त में कानपुर (उ०प्र०) के प्रसिद्ध सर्जन डा०आशुतोष बाजपेई के विषय में चर्चा करके अपनी बात को समाप्त करूँगा । आज से लगभग २०-२५ पच्चीस वर्ष, कानपुर में उच्च वर्ग के लिए'रीजेन्सी',मध्यम वर्ग के लिए 'मधुराज' और सामान्य वर्ग के लिए 'आर०के०देवी' नामक प्राइवेट नर्सिंगहोम हुआ करते थे, जो आज भी हैं ।डा०बाजपेई इन तीनों जगह के साथ-साथ अपने छोटे से क्लीनिक में भी मरीज़ों को देखते थे/हैं । एक बार मैं 'आर०के०देवी' में बाहर डाक्टर साहब का ही इन्तज़ार कर रहा था कि तभी डा०साहब आ गये । उनको देखकर, उनके चरणस्पर्श करने वालों की लाइन सी लग गयी । यह चरणस्पर्श उनको श्रध्दा के कारण किया जा रहा था और यह श्रध्दा पैदा हुई थी डा०साहब के पवित्र आचरण के कारण और यह आचरण की पवित्रता उनको प्राप्त हुई थी, अपने पिता, कानपुर के सुप्रसिद्ध डाक्टर जी०एन०बाजपेई से मिले रक्त संस्कारों से ।डा०आशुतोष बाजपेई की सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने कभी भी किसी मरीज़ का इलाज, पैसे के कारण रोका नहीं है । उन्होंने बग़ैर अपनी फ़ीस लिए तमाम आपरेशन मेरी जानकारी में किये हैं । यहीं तक नहीं ग़रीब मरीज़ों की दवा का भी प्रबन्ध किया है ।

आज 'डाक्टर्स डे' पर मेरा यह आलेख केवल इसलिए है कि इस पवित्र व्यवसाय में आ गयी सड़ान्ध के कारण,फैल रही दुर्गन्ध को, कुछ बन्द खिड़कियॉं खोलकर ताज़ी हवा के झोंकों को आमंत्रित करके, कुछ कम कर सकूँ । डा०विधानचन्द्र राय की स्मृति में,मनाये जाने वाले इस दिवस पर, उपरोक्त महानुभावों के अलावा, उन सभी डाक्टरों को भी नमन करना चाहूँगा, जो इस व्यवसाय के प्रारम्भ में ली गयी शपथ का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं ।


'रस्सी जल गयी, ऐंठन न गयी'

'रस्सी जल गयी, ऐंठन न गयी'
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यह एक प्रचलित मुहावरा है । इसका शाब्दिक अर्थ यह होता है कि रस्सी के जल जाने के बाद भी, जली हुई रस्सी में,पेंच और खम पूर्व की भाँति क़ायम रहते हैं । इसका लाक्षणिक अर्थ यह है कि जैसे कोई अमीर आदमी, अचानक ग़रीब हो जाये तो उसमें कहीं न कहीं अमीर होने की ठसक बरकरार रहती है । उसके आचरण से, उसके व्यवहार से, उसकी भाषा से यह ठसक कहीं न कहीं प्रदर्शित हो ही जाती है ।इसी प्रकार उच्च पदों में बैठे हुए व्यक्ति, सेवानिवृत्त हो जाने के बाद भी, अपनी ठसक से मुक्त नहीं हो पाते । इसको और सरल ढंग से इस प्रकार कहा जा सकता है कि कोई भी वयक्ति विपरीत परिस्थितियॉं आ जाने के बावजूद भी अपने पूर्व स्वभाव या अंहकार से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाता ।

जैसा कि मैं पहिले भी निवेदन कर चुका हूँ कि हमारे यहॉं या कहीं की भी, लोक-कहावतों या मुहावरों का एक शाब्दिक और एक लाक्षणिक अर्थ तो होता ही है, उसके साथ-साथ, उसमें समाज के लिये एक छिपा हुआ गूढ़ सन्देश भी होता है जिसे कम लोग समझ पाते है । जो इन गूढ़ सन्देशों को समझ कर, अपने जीवन में,उतार लेता है,उसका कल्याण होने से कोई रोक नहीं सकता ।

मेरी समझ से इस मुहावरे का सन्देश यह है कि मानव,अपने जीवन में जैसे कर्म करता है, तदानुसार संस्कार,उसके अवचेतन मन में पड़ते जाते हैं,(यही रस्सी के पेंच और ख़म हैं ) जो उसका शरीर भस्मीभूत या नष्ट हो जाने के बाद भी नष्ट नहीं होते । उसके कर्म ही,उसे जीवित रहते,सुख या दुख प्रदान करते हैं और यही कर्म ही संस्कार बन कर उसके साथ आगे की यात्रा तय करते हैं ।अत: मनुष्य अच्छे कर्मों के द्वारा अपना वर्तमान और भविष्य सुधार सकता है ।


Monday, 29 June 2015

नातिन के १२वें दिन पर

आज उसके धरा में पधारने का १२वॉं दिन है । उसकी मॉं यानि कि मेरी बेटी,उसकी मालिश और स्नान प्रकिया पूरी होने के बाद,उसे मेरे बिस्तर पर लिटा गयी है । वह धरती पर अवतरित हुई परी सी लग रही है । वह अपनी ऑंखें बन्द किए है,मानो किसी गहन समस्या को सुलझाने में लगी हो । बीच-बीच में स्मित हास्य,उसके होंठों और गालों पर खेलने लगता है । मैं उसके इस स्मित हास्य का आनन्द ले ही रहा था कि अचानक वह एकदम दुखी होकर रोने की मुद्रा बनाने लगती है,मानो कोई बुरा स्वप्न देख रही हो ? बुज़ुर्ग कहा करते थे कि बच्चों की क्षण-क्षण में,मुद्राएँ बदलने का कारण, उनकी पूर्व जन्मों की स्मृतियॉं हैं ।

मेरी लाड़ली,प्रभु की अतिशय कृपा से ही,जीव को मानव योनि मिलती है । यही एक मात्र कर्म योनि है, बाकी सारी भोग योनियाँ हैं । इसी योनि में जीव अच्छे कर्म करके, आनन्दानुभूति का साक्षात्कार कर सकता है । मानव योनि में भी मातृ शक्ति के रूप में,अवतरित होना, प्रभु की अतिशय से भी अतिशय कृपा का परिचायक है । ईश्वर जब-जब भी, इस धरा पर अवतरित हुआ है, उसे भी किसी न किसी माता के गर्भ की शरण लेनी पड़ी है । इसीलिए हमारी संस्कृति में मॉं को प्रथम स्थान दिया गया है । पुत्र केवल अपने पितृ कुल का ही उद्धार करता है या उसके यश की वृध्दि करता है, पुत्री तो पितृ कुल और मातृ कुल दोनो का ही उद्धार करती है या उसके यश में वृध्दि करती है । इसीलिए जनक को सीता के लिए कहना पड़ा,"पुत्रि,पवित्र किए कुल दोऊ"।

आज के दिन प्रभु से यही प्रार्थना है कि वह तुम्हें, मॉं सीता की तरह धैर्य दे, मॉं सरस्वती की तरह बुद्धि की अधिष्ठात्री बनाये, मॉं लक्ष्मी की तरह, अपने पति की सेवा का सामर्थ्य दे ।और-और-और मॉं दुर्गा की तरह दुष्टों (दुष्प्रवृत्तियों) का संघार करने की शक्ति दे ।

Saturday, 27 June 2015

विचार

एक पाश्चात्य विचारक ने कहा था कि विचारों के बीज हवा में (आकाश) में फेंकते रहना चाहिए । हो सकता है कि तत्काल यह बीज, अंकुरित,पल्लवित,पुष्पित और फलवति न हों । कभी भी कोई उर्वरा आधार और अनुकूल जलवायु मिल जाने पर इनमें से एक भी फलवति हो गया तो तुम्हारा प्रयास सार्थक हो गया । यदि ऐसा भी नहीं हुआ तो भी तुम कर्तव्य हीनता का बोझ लेकर,मरने से बच जाओगे ।

मैंने "आर्ट आफ लिविंग" के शिविर में एक वी०डी०ओ० देखा था । उसमें दिखाया गया था कि समुद्र में आती हर लहर जो मछलियॉं, सीपी या घोंघे तट पर छोड़ जाती थीं, उन्हें उठा-उठा कर एक व्यक्ति पुन: सागर की लहरों में फेंक देता था । एक दूसरा व्यक्ति जो काफ़ी देर से यह तमाशा देख रहा था, का धैर्य जवाब दे गया तो उसने जाकर उस व्यक्ति से पूंछा,"तुम यह क्या मूर्खता कर रहे हो ? अगली लहर इनको फिर से तट पर मरने के लिए फेंक देगी । तुम इनमें से  कितनों को  मरने से बचा पाओगे ?" उस व्यक्ति ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,"यदि मैं एक को भी मरने से बचा पाया तो मेरा प्रयास सार्थक हो जायेगा । यदि मैं एक को भी नहीं बचा पाया तो कम से कम मुझे यह अफ़सोस तो नहीं होगा कि मैंने प्रयास क्यों नहीं किया ?"

मेरा मानना है कि दोनों में से यदि एक का भी अवतरण जीवन में हो जाये तो मानव योनि में जनम लेना सार्थक हो जाये ।

Friday, 26 June 2015

"कखरी लरका गाँव गोहार"

"कखरी लरका गाँव गोहार"
यह बुन्देलखण्ड की एक लोक कहावत है । इसका अर्थ यह है कि मॉं अपने लड़के को कॉंख में दाबे है (गोद में लिए है) और गाँव भर में गोहार (चिल्लाती) घूम रही है कि उसका लड़का खो गया है, किसी ने देखा हो तो बता दे । इस कथा में यह आगे जोड़ दिया जाता है कि पूरा गाँव उसकी बेवक़ूफ़ी पर हँस रहा है कि तभी एक सज्जन व्यक्ति को दया आ जाती है और वह कहता है,"अरी नासमझ बच्चा तो तेरी गोद में है, तू ढूँढ किसे रही है ? मॉं गरदन नीचे झुकाती है और बच्चे को अपनी गोद में देखकर, उसकी भागदौड़ समाप्त हो जाती है, बेचैनी समाप्त हो जाती है और वह परमानन्द में डूब जाती है ।

हमारी जितनी भी लोक कथाएँ है, उन सब का एक शाब्दिक अर्थ तो होता ही है,उसके साथ-साथ, उनमें समाज के लिए एक सन्देश भी होता है । इस लोक कथा का सन्देश यह है कि हर मानव, आनन्द को बाहर ढूँढ रहा है, वह यह भूल गया है कि आनन्द ही उसका स्वरूप है, और वह उसके अन्दर ही है, कहीं बाहर नहीं ? वह पत्नी में, बच्चों में,मित्रों में,धन में,शराब में,जुएँ में,पद में, वैभव में,यश में और न जाने कहॉं-कहॉं, न जाने कितने जन्मों से इस आनन्द को खोज रहा है ।प्रभु कृपा से कभी कोई सज्जन पुरुष (सद्गुरू) मिल जाता है और वह इस सत्य का साक्षात्कार करा देता है कि आनन्द तो तेरे अन्दर है,अपनी अंहकार से तनी गरदन को ज़रा सा झुकाकर देख तो सही तुझे अपने स्वरूप का ज्ञान हो जायेगा,"दिल में छुपा के रक्खी थी तस्वीरें यार की, ज़रा सी गरदन झुकाई, देख ली"।यह गरदन झुकाना (आत्मावलोकन) करना यदि जीव को आ जाये तो बच्चा तो उसकी गोद में है ही ।

Thursday, 25 June 2015

जीवन की संध्या है, बातें ही बातें हैं

जीवन की संध्या है, बातें ही  बातें हैं
अलसायी,उनींदीं सी न कटती राते हैं

सावन के झूले थे, फागुन की मस्ती  थी
बाैरिन सी दोपहरी,रह-रह कर डसती थी
अब न वे झगड़े है,न,प्यारी मनुहारें हैं
जीवन की संध्या है, बातें ही  बातें हैं

चूड़ियाँ खनकती थीं,पायलें गुनगुनाती थीं
भारी सी पलकें , सब कुछ कह जाती थीं
यादें ही यादें है,और यादें ही गाते हैं
जीवन की संध्या है, बातें ही बातें हैं 

Wednesday, 24 June 2015

माटी में ही जाऊँगा

माटी से जन्मा हूँ , मैं, और माटी में मिल जाऊँगा 
जब तक सॉंसे है देही में, झूम-झूम कर  गाऊँगा 

'सुखनिधान' का बेटा रोये, यह तो मेरी नियति नहीं है 
 शरणागत को तू ठुकराये, यह तो तेरी प्रकृति  नहीं है
  तुझको सारा राग सौंपकर, मैं वैरागी बन जाऊँगा 
  माटी से जन्मा हूँ ,मैं,और माटी में  मिल  जाऊँगा 
  
  तू ही हिम है, तू ही जल है, और तू, ही  है, नभ का  उड़ता बादल
  तू ही यशुदा का श्याम सलोना,तू ही राधा की ऑंखों का काजल
  अन्दर ही खोजूँगा तुझको, बाहर नहीं तुझे पाऊँगा 
  माटी से जन्मा हूँ , मैं, और माटी में मिल  जाऊँगा ।

Saturday, 20 June 2015

योग दिवस की पूर्व संध्या पर

कल अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस है ।कयी दिनों से इन्टरनेट पर,मीडिया पर ऐसा प्रचार चल रहा है कि जैसे कल पूरा संसार योगमय हो जायेगा ? मैं प्रसन्न हूँ,मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए,अत्यधिक उपयोगी,भारत की इस प्राचीन पद्धति के विश्व व्यापी प्रसार पर । मैं और मेरी तरह के करोड़ों लोग,इस पद्धति का आश्रय लेकर,मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ जीवन जीने में सफल हुए हैं । अत: इस पद्धति के प्रति,सम्मान या आभार का भाव न रखना कृतघ्नता ही कही जायेगी ।

पर इस दिवस पर मैं अपने को यह कहने से रोक नहीं पा रहा कि वर्तमान में चल रहा इसका व्यवसायीकरण,इस महत्वपूर्ण पद्धति को,एक वर्ग विशेष तक ही सीमित कर देगा और इसका लाभ जन सामान्य तक नहीं पहुँच पायेगा । 

महर्षि पतंजलि  ने योग की परिभाषा या उसका उद्देश्य बताते हुए कहा है,'योग: चित्त-वृत्ति निरोध:' यानि चित्त- वृत्ति का निरोध ही योग है । इस स्थिति तक पहुँचने के लिए उन्होंने आठ सोपान बताए हैं,इसीलिए उसे 'अष्टांग योग'कहा गया ।इसके आठ अंग इस प्रकार हैं,१-यम(अंहिसा,सत्य,ब्रह्मचर्य,अस्तेय,अपरिग्रह ) २-नियम(शौच,सन्तोष,तप,स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान) ३-आसन ४-प्राणायाम ५-प्रत्याहार ६-धारणा ७-ध्यान ८-समाधि ।योग के व्यवसायीकरण ने किया यह है कि इन आठ सोपानों में केवल चौथे सोपान को लेकर सीधे सांतवे सोपान यानि ध्यान में पहुँचा दिया जाता है और उसका कारण यह बताया जाता है कि आज यह सब कुछ करा पाना सम्भव नहीं है और जब व्यक्ति ध्यान करने लगेगा तो बाक़ी चीज़ें स्वत: धीरे-धीरे,साधक में अवतरित होने लगेंगीं । उनका यह तर्क सतही तौर पर ठीक लगता है,पर जब आप गहराई में जाएँगे यानि गम्भीरता से विचार करेंगे तो आपको यह स्पष्ट हो जायेगा कि यह तर्क, अपने व्यवसाय को तेज़ी से विश्वव्यापी बनाने के उद्देश्य से गढ़े गए हैं । मुझे इनकी इस व्यवसायिकता पर भी आपत्ति नहीं है,क्योंकि उससे एक वर्ग विशेष को ही सही लाभ तो मिल रहा है । 

आज जितने भी योग के स्कूल चल रहे हैं,उनमें से ज़्यादातर स्कूलों के शुल्क इतने ज़्यादा है कि सामान्य व्यक्ति उसके बारे में सोंच ही नहीं सकता ।मुझे केवल यह निवेदन करना है कि भारतीय संविधान हर व्यक्ति को व्यवसाय करने की स्वतंत्रता देता है । आप इस स्वतंत्रता का पूर्ण उपभोग करने के लिए स्वतंत्र हैं पर कृपया इसे मानवता की सेवा का नाम मत दीजिए ।

Monday, 15 June 2015

"कुपथ निवारि सुपंथ चलाना,गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा"

"कुपथ निवारि सुपंथ चलावा,गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा"

यह पंक्ति 'मानस' में भगवान राम ने,सुग्रीव जी को मित्र के अर्थ समझाने हेतु कही है । इसका अर्थ यह है कि मित्र वह है जो आपको कुपथ (कुमार्ग) से हटाकर,सुपंथ (सुमार्ग) पर चलावे और आपके अवगुणों को छिपाकर,आपके गुणों को प्रकट करे या प्रकाशित करे ।

यह पंक्ति मेरी जीवन में कैसे उतरी ? इसको स्पष्ट करने के लिए मुझे ४७ वर्ष पूर्व जाना पड़ेगा । यह घटना वर्ष १९६८ में घटी थी जब मैं बी०एस०सी०(प्रथम वर्ष) का छात्र था । हुआ यूँ कि मेरा एक सहपाठी,जो विद्यालय का सबसे बदसूरत (गहरा काला रंग जो हबसियों के रंग की प्रति स्पर्धा करने में पूर्ण सक्षम था और नाक-नक़्श एेसे जैसे डाकखाने के डाक छाँटने वाले ने,एक मुहल्ले की डाक दूसरे मुहल्ले के खाने में डाल दी हो) मेरा घनिष्ठ मित्र बन गया और इसका कारण यह था कि वह बाहर से जितना बदसूरत था,अन्दर से उतना ही भोला और सरल ।

मेरा यह मित्र पिछड़ी जाति का था और मैं सवर्ण । शुरू में इसने मुझसे अपनी जाति छुपाई थी । यह अपने नाम के आगे प्रजापति लगाता था । उस समय मुझे नहीं मालूम था कि प्रजापति का अर्थ कुम्हार होता है । मैंने एक दिन इससे प्रजापति का अर्थ पूंछा तो इसने कहा कि गुप्ता (बनियॉं) में ही प्रजापति होते हैं । हुआ यूँ कि इसे किसी नौकरी के लिए फ़ार्म भरना था जिसके लिए इसे जाति प्रमाण पत्र की आवश्यकता थी । कई दिनों की परेशानी के बाद,तहसील से उसे प्रमाण पत्र हासिल हो पाया था तो इसने प्रसन्नता के आवेश में वह प्रमाण पत्र मुझे दिखा दिया । जब मैंने देखा तो उसमें कुम्हार लिखा हुआ था । मैंने दुखी होकर उससे पूंछा कि तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला ? क्या हमारी दोस्ती जाति की मोहताज है ? उसने तुरन्त माफ़ी माँगते हुए कहा,भाई मैं डरता था ! मुझे कोई दोस्त बनाता नहीं है,मुझे लगता था कि कहीं तुम भी दोस्ती न तोड़ लो ? उसकी सरलता देखकर मैं तुरन्त सहज हो गया ।

मेरी और उसकी घनिष्ठता देखकर मेरे सवर्ण मित्रों ने पहिले तो बहुत प्रयास किया कि मैं उससे अपनी मित्रता तोड़ लूँ । पर जब इसमें उनको सफलता नहीं मिली तो वह उसके विरूद्ध षड्यंत्र रचने लगे ।
हमारी एक सहपाठिनी पंजाबी थी और बला की ख़ूबसूरत थी । मेरा मित्र विद्यालय का सबसे बदसूरत छात्र और वह सबसे ख़ूबसूरत छात्रा । मेरा मित्र एक साल बी०एस०सी० में फ़ेल हो चुका था, इस कारण से प्रायोगिक कक्षा में क्षात्राएँ उसके अनुभव का लाभ ले लेती थीं,जिसमें वह बला की ख़ूबसूरत छात्रा सबसे आगे थी । पंजाबी बातचीत में बेबाक़,मितभाषी और कुशल तो होते ही हैं सो उसके खुलेपन का (जो उसकी संस्कारगत विशेषता थी) मेरे मित्र ने ग़लत अर्थ निकाला और वह प्रेम की तपिश से तपने लगा और उसके इस एकतरफ़ा प्रेम को भड़काने का काम किया उन षड्यंत्रकारी सहपाठियों ने ।

मेरे मित्र का बाल-विवाह हो चुका था पर गौना(पुनरागमन) नहीं हुआ था । मेरा मित्र योजना बनाने लगा कि कैसे उससे छुटकारा पाया जाए? इसी बीच एक घटना और घट गयी । शाम का समय था,वह बला अपने घर के दरवाज़े पर खड़ी थी, मैं सामने से आ रहा था,उससे निगाहें चार हुईं, नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ ।उसने पूंछा कहॉं से आ रहे हैं ? मैंने बताया । उसने कहा आपसे एक बात कहनी थी । मैंने कहा बताओ तो उसने कहा कि घर के अन्दर चलिए,आराम से बैठकर बात करेगें । मै एक क्षण के लिए असमंजस में तो पड़ा कि कहीं वह मेरे मित्र की किसी बेवक़ूफ़ी पर तो कोई बात नहीं करना चाहती ? फिर जाने क्या सोचकर मैं उसके घर के अन्दर चला गया । उसकी मम्मी चाय ले आईं । चाय पीने के बाद मैंने उससे पूंछा कि बताओ क्या बात करनी है । उसने कहा कि मैं कल लाइब्रेरी गयी थी ।मुझे 'कोटपाल सीरीज़' के पुस्तकों की ज़रूरत थी तो लाइब्रेरियन ने बताया कि वह आपके पास हैं और आप उन्हे परीक्षा के बाद ही जमा करेंगे । अत: अगर मैं उसे यह पुस्तकें कुछ दिनों के लिए दे दूँ तो वह नोट्स बनाकर मुझे वापिस कर देगी ।मैंने कहा ठीक है मैं कल विद्यालय में वे पुस्तकें,उसे दे दूँगा ।

मैं उसके घर के बाहर निकला ही था कि मेरा वह मित्र मिल गया । मुझे नहीं मालूम था कि वह हर शाम इस बला की एक झलक पाने के लिए,घंटों उसके घर के आस-पास बरबाद करता है । उसने मुझसे सशंकित होकर पूंछा कि मैं इतनी देर से उसकी तथाकथित प्रेमिका के यहाँ क्या कर रहा था ? और मेरी उससे क्या बातें हुईं ? मैनें भी मज़ा लेने के लिए कह दिया कि वह पूरे समय तुम्हारे ही विषय में बात करती रही । उसकी जिज्ञासा जैसे-जैसे बड़ती जाती थी,मेरी कल्पना की उड़ान भी तदनुसार व्यापक होती जाती थी । कहानी तो बहुत लम्बी है पर संक्षेप में हुआ यह कि उसका पागलपन बढ़ता ही गया ।

फ़ाइनल परीक्षा के लिए एक माह ही शेष रह गया था । मैं उसके घर गया तो उसने फिर वही पागलपन की बातें शुरू कर दीं । मुझे तेज़ ग़ुस्सा आया । मैं झटके से उठा और अलमारी से सीसा उठाकर उसके चेहरे के सामने रखकर बोला,"बेवक़ूफ़ अपना चेहरा देख सीसे में ? देखा ? क्या है तेरे पास ? न सूरत,न सीरत, न धन न वैभव । क्या है तेरे पास जो वह तेरे ऊपर मरेगी ? एक साल तेरा पहिले ही ख़राब हो चुका है ।तेरा भाई किस मुसीबत से तुझे पढ़ा रहा है ?और तू है कि परीक्षा के लिए एक महीना ही बाकी रहने के बाद भी,इश्क़ के भूत को सिर पे चढ़ाए घूम रहा है । वह एकदम से फूट-फूटकर रोने लगा और बोला कि तुम भी तो कह रहे थे कि वह देर तक मेरे बारे में तुमसे बातें करती रही थी । मैनें क़समें खाकर उसे समझाया कि वह सब मज़ाक़ था । कयी दिनों के लगातार प्रयास के बाद वह वास्तविकता को बेमन स्वीकार कर पाया । मुझे उसको सीसा दिखाने का जितना दु:ख आज भी है,उतनी ही ख़ुशी भी है कि उसका एक और साल बरबाद होने से बच गया और वह व्यवस्थित ज़िन्दगी जी पाया ।

Saturday, 13 June 2015

मरने पर ही स्वर्ग दिखना

एक बुन्देलखण्ड का प्रचलित मुहावरा है,"अपने मरै सरग दिखाई परै" यानि अपने मरने पर ही स्वर्ग के दर्शन होते है । इस मुहावरे का एक आध्यात्मिक अर्थ भी है और वह यह कि जो अपने को मार देता है यानि अपने अंहकार को समाप्त कर देता है, उस को स्वर्ग में प्राप्त होने वाला आनन्द सहज में ही तुरन्त प्राप्त हो जाता है । बच्चों को लाख मना कीजिए कि वह अग्नि से दूर रहें,पर जब तक वह एक बार जल नहीं जाता,नहीं मानता । यानि आप दूसरों के द्वारा दिये गये ज्ञान को तब तक नहीं स्वीकारते,जब तक वह आपके अनुभव में नहीं उतरता । 

बुन्देलखण्ड का एक मुहावरा और है,"सौ-सौ जूता खांय,तमाशा घुस कै दैखैं"यानि सौ-सौ जूते खाने के बाद भी आदमी भीड़ में घुसकर तमाशा देखता है । इसका आध्यात्मिक अर्थ यह हुआ कि यह सारा संसार प्रभु का तमाशा ही तो है पर इस तमाशे को व्यक्ति लाखों परेशानियों  के बावजूद देखना चाहता है । लोग लाख समझाएँ कि यह सारा तमाशा क्षणिक है,नश्वर है पर जब तक व्यक्ति अपनी आँखो से नहीं देख लेता यानि अपने अनुभव में नहीं ले आता, उस पर विश्वास नहीं करता ।

दशानन का अर्थ

 रावन का शाब्दिक अर्थ होता है,जो दूसरे को रुलाए । दशानन का एक प्रतीकात्मक अर्थ और भी है ।वह यह कि जिसकी दशों इन्द्रियॉं (पॉंच कर्मेन्द्रियॉं और पॉंच ज्ञानेन्द्रियॉं) बहिरमुखी होती हैं,यानि जिसका इन इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं होता,उसे दशानन कहते हैं । और जो दशों इन्द्रियों का रथी होता है,यानि कि जिसका दशों इन्द्रियों पर नियंत्रण होता है, उसे दशरथ कहते हैं । जिस दिन व्यक्ति अपनी दशों इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लेता है यानि दशरथ बन जाता है,उसी दिन प्रभु राम उसके ह्रदयागंन में खेलने लगते हैं ।

Friday, 12 June 2015

दूसरे को दर्पण न दिखाकर स्वंय दर्पण देखना चाहिए ।

स्वयं दर्पण देखने का अर्थ है कि आप अपना आत्मावलोकन करे और यदि कोई विषमता नज़र आए तो उस विषमता को जीवन से दूर करें । दूसरे को दर्पण दिखाने का अर्थ है कि सामने वाले को उसकी कमज़ोरियॉं बतायी जाएँ ।हर व्यक्ति को प्रतिदिन दर्पण देखना चाहिए,पर दूसरे को दर्पण दिखाने से बचना चाहिए । पर हम करते ठीक इसका उलटा है । यहीं तक नहीं,अपनी ग़लतियों से होने वाले नुक़सान के लिए भी, अपनी ज़िम्मेदारी स्वीकार न करके या तो समय और परिस्थितियों के उपर ज़िम्मेदारी डाल देते हैं या अन्य के ऊपर । जीवन में जो भी अच्छा होता है,उसके कर्ता स्वंय बनकर, श्रेय ले लेते हैं और जो भी ग़लत होता है,उसका कर्ता दूसरे को बनाकर दोष उसके ऊपर डाल देते हैं, यहाँ तक कि भगवान को भी दोषी सिध्द् करने से नहीं चूकते ।

घरों में प्रायः पति-पत्नी के बीच इस तरह के संवाद सुनने को मिलते हैं । यदि बच्चा अच्छा काम करके आया तो पिता कहेगा "आख़िर बच्चा है किसका ?" वही बच्चा जब ग़लत काम करके आता है तो पिता कहेगा,"बच्चे में सारे संस्कार तुम्हारे ही पड़ गए है,यदि एक-आध मेरे भी पड़ जाते तो इसका कल्याण हो जाता ।" यह संवाद मॉं की तरफ़ से भी बोले जा सकते हैं ।

आपके दो बच्चे हैं । एक भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गया और दूसरा आवारा निकल गया । आप समाज के बीच में बैठे हैं,किसी व्यक्ति ने आपके प्रशासनिक सेवा में चयनित होने वाले बच्चे के लिए आपको बधाई दी और आपको भाग्यशाली ठहराया तो आपकी प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी कुछ इस प्रकार होगी,"अरे,भाई साहब ! आप क्या जाने कि इसको यहाँ तक पहुँचाने में मुझे कितना श्रम करना पड़ा है ? कहॉं-कहॉं से जुगाड़ लगाकर इसको अच्छी कोचिंग करा पाया हूँ ,तब जाकर कहीं इसको यह सफलता मिली है । वहीं बैठे किसी दूसरे व्यक्ति ने यदि दबे स्वर में आपके आवारा बच्चे का ज़िक्र कर दिया,तो आपकी टिप्पणी कुछ इस प्रकार होगी,"अरे भाई मैंने तो यही प्रयास किया था कि मेरे दोनों बच्चे अच्छे निकले पर भगवान को मंज़ूर नहीं था ।"
यानि जो अच्छा हुआ उसका कर्ता मैं और जो ग़लत हुआ उसका कर्ता भगवान ।वाह रे इन्सान ? और वाह रे तेरी फ़ितरत ?

Wednesday, 10 June 2015

कर्म का स्वरूप

गीता में कहा गया है,
"नेहाभिक्रमनासोअस्ति प्रत्यायो न विद्यते
  स्वलपम् अपि धर्मसय त्रायते महतो भयात्"
करम को तीन भागो में बाँटा गया है १-संचित २-क्रियमाण ३-प्रारबध ।
आप जो इस जीवन में कर रहे हो,वह क्रियमाण करम है ।अनगिनित जीवनों के करम,जिनका भोग अभी तक आपने नहीं भोगा है,संचित की श्रेणी में आएँगे और इन संचित करमों में से छाँटकर आपके इस जीवन का प्रारबध (भाग्य) बना है ।आप पुरुषार्थ (क्रियमाण) के द्वारा संचित करमों को तो नष्ट कर सकते हो पर प्रारबध का भोग तो आपको भोगना ही पड़ेगा । इस प्रारबध के भोग से रामकृष्ण
परमहंस जैसे महापुरुष भी नहीं बच पाए । उन्होंने इस भोग को प्रसन्नता के साथ भोगा है क्योंकि वे जानते थे कि यह भोग भोगने से ही नष्ट होगा ।
अब प्रश्न यह उठता है कि पुरुषार्थ क्या है ? और इसका क्या महत्व है ? तो इसके लिए शुरु में कहा गया श्लोक काफ़ी कुछ स्पष्ट कर देता है । जो भी आप इस जनम में सत्करम या धर्म (जो धारण करने योग्य है,वही धर्म है) करोगे, वह कभी भी नष्ट नहीं होगा और वह आपको बहुत बड़े-बड़े भयों से मुक्त कर देगा । इससे होगा क्या ? इससे यह होगा कि आपका अगला जनम इस जनम की पूँजी के साथ शुरू होगा ।
"प्राप्य पुण्य कृताम् लोकानिषतवा शाश्वती समा:
  शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे योगभ्रष्टो अभिजायेते"
"अथवा योगिनाम् कुले भवति धीमताम्"
इसमें कहने के लिए बहुत कुछ है । पर बहुत कुछ कहकर या जानकर भी विश्वास और श्रध्दा के साथ यदि जीवन में उसका अवतरण नहीं होता तो वह व्यर्थ ही है ।
"श्रध्दावान् लभते ज्ञानम् तत्पर: संयते इन्द्रिय:
  ज्ञानम् लब्धवा पराम् नचिरेणाधिगचछति"

Tuesday, 9 June 2015

वर्षा रितु के आगमन पर



वर्षा अभी आई नहीं है केवल हल्की सी दस्तक ही दिये हैं कि कुमलहाए हुए मन मनसिज खिलने लगे हैं । काम ने अपना मायाजाल फैलाना शुरू कर दिया है । उम्र अपने बन्धन तोड़ने लगी है । पसीने की गन्ध,मिट्टी की सोंधी-सोंधी ख़ुशबू में मिलकर उसकी मादकता को द्विगणित करने लगी हैं । आम्र मंजरियों और पल्लवों के पीछे छिपकर काम ने,शिव को विचलित करने के लिए,(शब्द,स्पर्श,रूप,रस,गन्ध)के पॉच पुष्प बाण,अपने धनुष की प्रत्यंचा में चढ़ा लिए है । किसी भी समय उसकी प्रत्यंचा खिच सकती है और काम के ये अमोघ बाण आपको घायल कर सकते है । आपने इन बाणों से बचने की कोई तैयारी की है ? नहीं ! तो आपको कोई नहीं बचा सकता ।
शिव के पास तीसरा नेत्र होने के बाद भी इन बाणों ने,उनकी समाधि भंग करके,उन्हें विचलित तो कर ही दिया था । यह अलग बात है कि उन्होंने तीसरे नेत्र (ज्ञान) के द्वारा काम को जला दिया था और 'कामारि' कहलाए थे ।
सावन और भादौं दो ऐसे महीने होते हैं, जिसमें कामाग्नि जितनी ही तीव्र होती है, जठरागनि उतनी ही मंद होती है,इसीलिए हमारे पूर्वजों ने हमको शारीरिक अस्वस्थता से बचाने के लिए सावन में (कामारि) शिव की उपासना (जिसमें व्रत भी शामिल है),को विशेष फलदायक बताया है । यह दोनो महीने विशेष त्योहारों के हैं । रक्षाबन्धन भी इसमें ही पड़ता है । पहिले गृहणियाँ सावन के पूरे महीने,मायके में ही रहती थी और पति-पत्नी के दूर-दूर रहने के कारण दोनो पूर्ण स्वस्थ रहते थे ।महा-योगेश्वर कृष्ण का जनम भी अभी ही पड़ता है ।जन्माष्टमी का व्रत भी विशेष फलदायक है ।
हमारी संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता,उसकी उत्सवधर्मिता है ।हम इन उत्सवों का पूर्ण आनन्द तभी ले सकते हैं,जब हम मानसिक और शारीरिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ और प्रसन्न हो । आईए हम पूरी तैयारी के साथ वर्षा के झोंकों का और सावन के झूलों का आनन्द लें । मेघों के रसा वर्षण के रस में पूरी तरह डूब जाने का निमंत्रण,प्रकृति अपनी दोनों बॉंहे फैलाकर हमें दे रही है । आइए उसके आलिंगन में कुछ समय के लिए हम अपने अहं का तिरोहण कर, भार मुक्त हो जाएँ ।

Saturday, 6 June 2015

मेरा कन्हैया

मेरी मॉं ने बचपन में संस्कार दिये थे कि पुण्य और पाप दोनों कहने से नष्ट हो जाते हैं,अत: पाप दूसरों से बता देना चाहिए और किए हुए पुण्यों को छिपा जाना चाहिए । बड़े होने पर शास्त्रों ने भी इसको पुष्ट किया । आज उसी संस्कार के वशीभूत होकर, कल अनजाने में ही हुए एक पाप की चर्चा के लिए,आपसे मुखातिब हूँ । कल से,मैं काफ़ी उद्विग्न हूँ । आज सुबह ध्यान (मेडीटेशन) में भी मन इसी का चिन्तन करता रहा,अत: ध्यान हुआ ही नहीं । चूँकि इस पाप में कुछ भूमिका 'आनन्द सभा' की भी है,अत: सुबह की दिनचर्या से निवृत्त होने के बाद,सबसे पहिला काम आपसे मुख़ातिब होने का कर रहा हूँ ।                 
इस समय मैं बंगलौर में अपनी बड़ी बेटी के घर में हूँ । मेरी नातिन साढ़े चार साल की है और नाती डेढ़ वर्ष का है । बंगलौर की पिछली यात्रा में,मैं नाती को खिलाते समय,उसे विभिन्न जानवरों की आवाज़ें सुनाने की ग़लती कर बैठा । नतीजा यह हुआ कि उसे कुत्ते के भौं-भौं की आवाज़ इतनी पसन्द आ गयी है कि अब मेरी पहचान,उसके लिए,"भौं-भौं वाले नानू" के रुप में सीमित होकर रह गयी है । मैं भी,उसमें अपने बाल कृष्ण का दर्शन करके दिन भर आह्लादित रहता हूँ । वह पूजा-पाठ के समय मेरी गोद में आकर बैठ जायेगा,आँखे बन्द कर लेगा,जैसे गहरे ध्यान में डूबा हो । मेरे शंख बजाने पर जहाँ भी होगा,भागकर आएगा और जब तक मैं उसके होंठों से शंख लगा नहीं दूँगा और वह शंख बजाने की तृप्ति अनुभव नहीं कर लेगा,मेरा पल्ला नहीं छोड़ेगा । मैं,उस पर कभी नाराज़ नहीं होता और इसी अहोभाव में रहता हूँ कि मेरे आराध्य ही बाल स्वरुप में मेरे ऊपर करूणा कर रहे हैं ।
कल हुआ यूँ कि मेरी नातिन के स्कूल की छुट्टी थी और दोनो भाई-बहिन मस्ती करने के मूड में थे । मैं 'आनन्द सभा' के एक विचारपूर्ण आलेख पर,टिप्पणी लिखने जा ही रहा था कि दोनो मेरे पास आकर "भौं-भौं" की आवाज़ निकालने की ज़िद करने लगे । मैंने कहा पॉंच मिनट रुक जाओ । नातिन बड़ी है,वह तो मान गयी पर नाती सरकार कहॉं मानने वाले थे ? एक बार तो मन हुआ कि 'आई-पैड' बन्द करके इनकी फ़रमाइश पूरी कर दूँ,फिर लगा कि यह विचार दिमाग़ से निकल जाएगा ।यह सोचकर नाती राजा को मनाने का प्रयास किया पर बाल-हठ तो बाल-हठ ही होता है । कन्हैया ने ग़ुस्से में आकर मटकी फोड़ दी थी,इस कन्हैया को मटकी कहॉं से मिलती ?तो इन जनाब ने,जो भी दो-तीन दाँत इनके मुँह में थे,पूरी ताक़त से मेरे पैरों में गड़ा दिए ।मैंने ज़ोर से डॉंट दिया,अब साहब,कुछ पल के लिए तो वे सहमे और इसके बाद,उनका जो रुदन-नाद शुरू हुआ,वह मेघ-गरजना को भी लज्जित करने वाला था । मैंने घबड़ाकर 'आई-पैड' बन्द कर के गोद में उठाया । गोद में इस क़दर मचलने लगा कि नीचे उतारना पड़ा ।जब लगातार दो मिनट तक भौं-भौं किया,तब जाकर कहीं उनका महारुदन बन्द हुआ ।इसके बाद जब दुबारा भौं-भौं किया,तब कहीं जाकर,उनकी,खिल-खिलाहट,कानों को नसीब हुई ।
वह तो सब कुछ तुरन्त भूल गया,पर मैं इस आत्म ग्लानि सें दंशित हूँ कि मुझसे अपने कन्हैया को 'सहमाने' और 'रुलाने' का अपराध कैसे हो गया ?

Thursday, 4 June 2015

मैगी की बदनामी पर ।

आज सारा ज़माना 'मैगी' के पीछे पागल हो रहा है । टी०वी० में,अख़बार में,इन्टरनेट में,इस समय केवल तेरी ही चर्चा है ।तेरी ख्याति तो पहिले ही पूरे संसार में फैली हुयी थी,अब तो दिग-दिगंत तक,तू ही तू व्याप्त हो रही है ।रशक होता है मुझे तुझसे,काश ईश्वर ऐसा सौभाग्य सब को प्रदान करे ।मुझे एक शेर का टुकड़ा याद आ रहा है,"क्या बदनाम होगें तो नाम न होगा?"
प्रिय 'मैगी' तम इतनी देर से इस देश में क्यों आईं ?जब मैं लहसुन,प्याज़ और packed food छोड़ चुका था । थोड़ा पहिले आ जाती तो कम से कम मेरे अधर और जिह्वा भी तेरे रसास्वादन से वंचित तो न रह जाते ? कितना अभागी हूँ मैं ? कि मिलन के बग़ैर ही वियोग का दुख झेलना पड़ रहा है ।
'मैगी' तू इस दुख: में अपने को अकेली मत समझना ।इस विपदा में पूरा देश जार-जार रो रहा है ।माताएँ दुखी हैं कि अब कैसे वे अपने पालितों की तीव्र क्षुधा को २ मिनट में शान्त कर पायेगीं ? बच्चे दुखी हैं कि उन्हें फिर से उसी पारम्परिक भोजन पर निर्भर होना पड़ेगा ? तेरी जैसी वैविध्यता पारम्परिक भोजन में कहॉं ? और अगर हो भी तो 'मम्मी' बनाना नहीं जानती तो क्या फ़ायदा ?सबसे ज़्यादा दुखी हैं,'पुरुष'। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि पत्नी के बाहर चले जाने पर या रूठ जाने पर,जो उनका साथ देती थी,वही छोड़कर जा रही है तो अब वे किसके कन्धे का सहारा लेगें ? क्षात्रावास में रहने वाले भी दुखी हैं कि अब तक तो वे 'मेस' के बे-सवाद खाने के ज़ायक़े को ठीक करने के लिए जिसकी शरण में जाते थे,वही नहीं रहेगी,तो उनका क्या होगा ?

हमारा देश भी अजीब है ?पृदूषित जल पी लेगें, रासायनिक दूध पी लेंगे,सब्ज़ी खा लेगें,अन्न खा लेगें और डकार भी नहीं लेगें ।आज़ादी के बाद से इतने बार धोखा खाने के बाद भी उन्हीं धोखेबाज़ों पर विश्वास कर लेगें पर 'नेसले' पर विश्वास नहीं करेंगे ।हद हो गयी दोहरे चरित्र की ।
'मैगी' यह तेरे धैर्य की परीक्षा है ।तू घबड़ा मत ।तू अकेली नहीं है ।"धीरज,धर्म,मित्र अरु नारी,आपत्काल परखिहि चारी"।तेरे चाहने वाले बहुत हैं,वे किस दिन काम आएँगे ? तुझे अपने जन्मदाताओं पर विश्वास रखना चाहिए,वे तुझे बचाने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा देंगे क्योंकि उनके घरों में चूल्हा तेरी वजह से ही जलता है,तेरी रोशनी से ही उनके घरों के चिराग़ रोशन होते हैं ।

Tuesday, 2 June 2015

मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहि विरंचि सम ।

                                                 मैंने आज से लगभग १५ वर्ष पूर्व,जब गम्भीरता से अपने धर्म शास्त्रों का अनुशीलन प्रारम्भ किया तो हर शास्त्र के आख़ीर में,मुझे यह मुमानियत बहुत अजीब सी लगी कि इन शास्त्रों का पठन-पाठन या इन पर चर्चा उन व्यक्तियों से न की जाए,जिनका प्रभु चरणों में अनुराग न हो,यानि कि नास्तिक हों । इस सम्बन्ध में रामचरितमानस और गीता की कुछ पंक्तियॉं उल्लेखनीय हैं,
                                                  "यह न कहिअ सठही हठसीलहि,जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि
                                                    कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि,जो न भजइ सचराचर स्वामिहि"
(मानस के अन्त में शिव जी पार्वती जी को सम्बोधित करते हुए,यह मुमानियत कर रहे है कि इस कथा को,उन व्यक्तियों से न कहा जाय,जो सठ हों,हठशील हों और हरि की लीलाओं में जिनका मन न लगता हो तथा ऐसे व्यक्ति भी जो क्रोधी हों,लोभी हों,कामी हो और जो पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी का भजन न करता हो,से भी इस कथा को न कहा जाय)
                                                     तो फिर इस कथा के सुनने के पात्र कौन हैं?
                                                     "राम कथा के तेइ अधिकारी,जिनके सतसंगति अति प्यारी 
                                                       गुर पद प्रीति नीति रत जेई,द्विज सेवक अधिकारी तेई
                                                       ता कहँ यह विशेष सुखदाई,जाहि प्रानप्रिय श्री रघुराई"
(इस कथा को सुनने के अधिकारी वे हैं,जिनको सतसंगति अति प्यारी हो,जिनकी गुर चरणों में प्रीति हो,जो नीति रत हों,द्विज सेवक हों ।जिनको राम प्राणों से भी अधिक प्रिय हों,उनको यह विशेष सुख प्रदान करने वाली है)
                                                       "इदं ते नातपसकाय नाभक्ताय कदाचन
                                                        न चाशुश्रूषवे वाचयं न च मां यो अभयसूयति"
(यह गुहयज्ञान उनको कभी न बताया जाय जो न तो संयमी हैं,न एकनिष्ठ,न भक्ति में रत हैं,न ही उसे जो मुझसे द्वेष करता हो)।      
                                                        मुझे लगा कि इस ज्ञान की सबसे ज़्यादा आवश्यकता तो उन्हीं लोगों को है,जिनको इसकी मुमानियत की गयी है ।मेरी बुद्धि यह स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं थी कि यह मुमानियत अर्थहीन है ।यह प्रश्न मन को मथते रहे ।जब मैं अपने इस जनम के गुरु,स्वामी जी के सम्पर्क मे आया तो मैंने उनसे इन प्रश्नों का समाधान चाहा तो उन्होंने जो समाधान दिया वह इस प्रकार है ।
                                                         हर मनुष्य का बौद्धिक स्तर अलग-अलग होता है ।एक स्तर है जिसे सठ कहा जाता है,उसके सुधार की गुंजाइश रहती है,"सठ सुधरहिं सतसंगति पाई,पारस,धातु-कुधातु सुहाई"अर्थात इस स्तर के व्यक्ति,सत्संग के प्रभाव से उसी तरह से सुधर जाते हैं,जैसे पारस के सम्पर्क में आने से लोहा,सोने में परिवर्तित हो जाता है ।
                                                          दूसरे स्तर के व्यक्ति हैं,'मूर्ख' ।इनको यदि ब्रह्मा भी गुरु के रूप में मिल जायें तो भी उनमें उसी प्रकार परिवर्तन असम्भव है,जैसे मेघ यदि अमृत भी बरसाएँ तो भी बेंत(बॉंस) के पेड़ पर फूल और फल नहीं आ सकते ।"मूरख ह्रदय न चेत,जो गुरु मिलहिं विरंचि सम ।फूलहिं-फलहिं न बेंत,जदपि सुधा बरसहिं जलधि"
                                                           एक तीसरा स्तर भी है और वह है'खल' का ।और इनके लिए कहा गया है कि इनका त्याग स्वान की तरह कर देना चाहिए,"खल परिहरिहिं स्वान की नाईं"
                                                            स्वामी जी ने कहा कि हमारे ग्रन्थों में इसीलिए नास्तिकों को,इसकी चर्चा करने से मना किया गया है,क्योंकि वे तुम्हारी बात मानेंगे नहीं ।तरह-तरह के तर्क-वितर्क करेगें,उनसे बात कर के तुम अपनी ऊर्जा और समय का विनाश ही करोगे और इससे उनका भी कोई भला नहीं होना ।आत्म साक्षात्कार या प्रभु का ज्ञान बिना श्रध्दा के सम्भव नहीं है ।वह तर्क ,मन,बुद्धि और वाणी से भी परे है,"राम अतर्क,मन,बुद्धि,बानी" तथा"श्रध्दावान् लभते ज्ञानम् तत्पर: संयते इन्द्रिय:
ज्ञानम् लब्धवा पराम् शान्ति नचिरेणाधिगचछति"