Friday 12 August 2011

जाके प्रिय न राम वैदेही


"जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही |" मीरा जी के पत्र के उत्तर में, तुलसीदास जी ने यह पद लिखकर मीरा जी को भेजा था | इस पद में तुलसीदास जी ने आगे उदाहरण देते हुए कहा है कि जैसे प्रह्लाद ने अपने पिता को, विभीषण ने अपने भाई को और भरत ने अपनी माँ को केवल इसलिए छोड़ दिया कि यह भक्ति मार्ग के बाधक थे |
             
                 संसार के सारे रिश्ते स्वार्थ के हैं, " स्वारथ लागि करहि सब प्रीती, सुर,नर,मुनि सब कै यह रीती |" आदमी मोह के कारण रिश्तों में बंधा रहता है, चाहकर भी इनसे मुक्त नहीं हो पाता | केवल प्रभु ही एक ऐसे हैं जो आपसे अहैतुकी ,निष्केवल और स्वार्थरहित प्रेम करते हैं | पर आप भगवान से भी, अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए ही प्रेम करते है । जैसे ही आपका स्वार्थ पूरा हो जाता है,आप उसे धन्यवाद देना भी भूल जाते हो |

                     आप पूजा में बैठे हो, तभी कोई ऐसा व्यक्ति आ जाता है जिससे आपका कोई स्वार्थ हो, आप तुरंत पूजा छोड़ कर उठ जाते हो, भगवान से क्षमा भी नहीं मांगते, क्योंकि आपको लगता ही नहीं है कि आपसे कोई अपराध हुआ है | संसार में कोई भी आपका जरा सा भी उपकार कर देता है तो आप उसके समक्ष बिछ जाते हो | जिस प्रभु के उपकारों से आप कभी उऋण नहीं हो सकते, उसके लिए आपके पास ५ मिनट का भी समय नहीं है ,फिर भी वह अकारण करुणा वरुणालय, अपनी कृपा की वर्षा से आपको हर समय सिंचित करता रहता है |

                   वह जानता है कि आप मोह और ममता से ऊपर नहीं उठ सकते । वह आपसे केवल इतना चाहता है , " सबकी ममता तागि बटोरी,  मम पद मनहि बांधी वरि डोरी |" आप यह भी नहीं कर पाते | मेरे गुरु जी भी यही कहा करते थे कि मोह, मद ,मत्सर आदि विकारों से मुक्त हो पाना बड़ा मुश्किल है पर इन विकारों को यदि भगवान के साथ जोड़ दिया जाये तो यही विकार, वरदान बन सकते है | जैसे तुम्हे पुत्र से मोह है, तुम भगवान को अपना पुत्र बना लो और उससे मोह करो | तुम्हारा कल्याण हो जायेगा |

                 गीता में प्रभु ने स्पष्ट कहा है, " ये यथा माम प्रपद्यन्ते, तान सः तथैव भजाम्यहम् " जो जिस भाव से मुझे भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी भाव से भजता हूँ  | आप एक कदम उसकी ओर चलकर देखो तो, वह दौड़कर तुम्हे अपनी गोद में उठा लेगा |
शेष प्रभु कृपा |




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