Tuesday 2 August 2011

अब लौं नसानी अब न नसैहों


अब लौं नसानी अब न नसैहों | जीवन नष्ट होता जा रहा है  |  एक एक सांस के साथ प्रयाणकाल नजदीक आता जा रहा है | जानता हूँ कि मानव योनि के अलावा जितनी भी योनियाँ है, वह सब भोग योनियाँ है| केवल मानव योनि ही एक ऐसी योनि है जिसमे जीव अपना कल्याण कर सकता है और आवागमन से मुक्त हो सकता है |" जन्मत मरत असह दुःख होई " जीव को जन्म और मृत्यु के समय असहनीय पीड़ा होती है | माँ के गर्भ में, रक्त ,मल,मूत्र की गठरी में पड़ा हुआ जीव असहनीय कष्ट भोगता हुआ प्रभु से प्रार्थना करता है कि प्रभु मुझे इस नरक से बाहर करो | वह प्रभु से वादा करता है कि अबकी यह जीवन वह अपने को जानने में गुजारेगा कि वह कहाँ से आया है और उसे कहाँ जाना है, वह इस बार माया के जाल से दूर रहेगा | "भूमि परत भा ढाबर पानी जीव बीच जिम माया लिपटानी", जिस तरह पानी की निर्मल बूंद आकाश से धरती पर आते ही मटमैली हो जाती है उसी प्रकार जीव जैसे ही धरती पर आता है , माया आकर  उससे लिपट जाती है | माया के आवरण से घिरते ही वह  भूल जाता है की वह अपने प्रभु से क्या वादा करके आया है ? यदि उसे यह याद रह जाता कि उसके आने का मकसद क्या है तो उसकी जीवन यात्रा " कोअहं से प्रारंभ होकर सोअहं" में समाप्त हो जाती और वह हमेशा के लिए आवागमन से मुक्त हो जाता | पर यह हो नहीं पाता | यदि वह तुलसी की यह पंक्तियाँ हमेशा याद रखे कि "अब लौं नसानी अब न नसैहों | रामु कृपा भवनिशा सिरानी जागे फिर न डसैहों |" अहर्निश इसका ही चिंतन चलता रहे, जैसा गीता में प्रभु ने भी आश्वस्त किया है "मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते " तो शायद यह संभव हो सके | पर यह होगा कृपा से ही | पुरूषार्थ आपको एक सीमा तक तो पहुंचा देगा पर इसके बाद कृपा का ही आवाहन करना पड़े़गा |

शेष प्रभु कृपा |

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