अपने मित्र भाई बाबूलाल " विद्रुम " की करीब ४२ बरसों पूर्व लिखा एक गीत का मुखड़ा याद आ रहा है :- "जाने कितनी दीपावलियां देखी, जाने कितने दीप सजाये गहन अमा में मेरे उर का, दीप जला दो तो, मैं जानू " अपने एक दूसरे मित्र भाई मोजेस माइकिल के इतने ही पुराने गीत का एक बंद कुछ इस प्रकार है :- "जब माथे, बेंदी सुहाग की, दमक रही होगी जब कोई मनचली सहेली, छेड़ रही होगी नयना जब उनसे मिलने को आतुर हों,तब मैं पलकों में बस रहूँ तो मेरा पागलपन होगा तुमको अपना कहूं तो मेरा पागलपन होगा " अपने एक तीसरे मित्र भाई राजबल्लभ त्रिपाठी के उसी समय के गीत का बंद इस प्रकार है :- "जितनी बड़ी जिंदगी है, उतने बड़े ग़म सहने को ज्यादा है, कहने को कम दूर रहा अपना वह छोटा सा गांव मेरे मन अब उससे क्या भला लगाव पीछे यूं मुड़ने की बात नहीं ठीक ये तो थे बेमाने सफ़र के पड़ाव कौन पुकारेगा जो रुक जायें हम सहने को ज्यादा है कहने को कम " सन १९७६ में लिखा गया अपना यह गीत भी याद आ रहा है :- "मानस की चौपाई सी याद तुम्हारी आई अंतस के सूनेपन में गूँज उठी शहनाई कोने में दुबक गया संशय का सर्प आँखों में बिहँस गया मनुहारा दर्प गर्मीली दोपहरी ने अँगुली चटकाई मानस की चौपाई सी याद तुम्हारी आई पूजा की थाली सा महक उठा तन नदिया की मछली सा उछल पड़ा मन श्रमहारी संध्या ने आरती सजाई मानस की चौपाई सी याद तुम्हारी आई " यह सब आज बहुत याद आ रहे हैं । बाबूलाल भाई ने तो गहन अमा में अपने उर का दीपक तो, प्रभु कृपा से, विनोबाभावे के निर्देशन में, इस तरह से जलाया कि उसके आलोक से आसाम और मेघालय के जंगलों में रहने वाली जनजातियों के हजारों-हजार घर, देदीप्यमान हो रहे हैं और इस तरह से उन्होंने अपना जीवन सार्थक कर लिया । भाई मोजेस का पागलपन, तलाशता रहा कन्धों को, जो उसके पागलपन के बोझ को उठा सकें, काफ़ी भटकने के बाद, उनकी तलाश पूरी हुई और अब चार कंधे मिलकर, खींच रहे है उस बैलगाड़ी को जिसमें तीन सवारियां बैठी हुई है । चिकनाई के अभाव में गाड़ी खींचने में शोर बहुत होता है और ताकत भी बहुत लगानी पड़ती है । बीच-बीच में कोई प्रकाशक थोड़ी-थोड़ी चिकनाई डालता रहता है जिससे गाड़ी चलती रहे और उसकी थाली में कटोरियों की संख्या में इजाफा होता रहे । भाई इस चक्कर में है कि कब सवारियों की मंजिल आवे और उसे कुछ आराम मिले । सवारियां भी गाड़ी से उतर-उतर कर धक्का देती रहती है जिससे दोनों बैलों को कुछ आराम मिल सके । इस पर्व पर माँ लक्ष्मी से यही प्रार्थना है कि वह अपने इस अनोखे पुत्र, जिसने पूरे जीवन अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं किया, पर अब कृपा करें, जिससे इसी तरह की जिंदगी जीने वाले अन्य पुत्रों का मनोबल न टूटने पाये । भाई राजबल्ल्भ अपनी जिन्दगी के ग़मों को भुलाने के लिये ऐसे दरिया में उतरे जहाँ से आज तक कोई वापिस नहीं आया । वे जहां भी हो, प्रभु उनको शान्ति दे । जहां तक अपना प्रश्न है ? प्रभु और स्वामी जी के असीम अनुग्रह के कारण, भौतिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने का जहां एक तरफ संतोष है वहीं दूसरी ओर स्वामी जी के बाद, जीवन के लक्ष्य से भटकाव की पीड़ा से भी गुजर रहा हूँ । आज के दिन प्रभु से यही प्रार्थना है कि या तो मेरे मन को संसार से हटाकर अपनी ओर मोड़ लें, जिससे मानव जीवन सार्थक हो सके या फिर अपने चरणों में स्थान दे दे ।
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