Wednesday, 22 February 2012
Sunday, 5 February 2012
विवाह की ३६ वीं वर्ष गांठ पर
आज से ३६ वर्ष पूर्व
अंनंत आकाश में
कुलांचे भरने वाला
यह मुक्त प्राणी
जकड़ दिया गया था
बन्धनों में ।
और यह बंधन का स्वीकार
उसका स्वयं वरित था
क्योंकि
थक जाने पर
इस मुक्त प्राणी ने
जब भी किसी आधार का सहारा लेकर
विश्रांति पानी चाही
तब-तब आधारों ने सहारा देने की बजाय
दिया था उसे
मानसिक यंत्रणा, त्रास और विश्वासघात का दंश
तब मुझे लगा
कि मैं नहीं सम्हाल पाउंगा
अपना मानसिक संतुलन
मेरी माँ
हाँ मेरी प्यारी-प्यारी वह माँ
जिसने युवा अवस्था से ही झेली थी
वैधव्य की पीड़ा
जिसकी जाने कितनी आशाएं,आकांक्षाएं टिकी थी
मेरे ऊपर
माँ जो मेरा विवाह संपन्न कराकर
मुक्त होना चाहिती थी
अपने सामाजिक,पारिवारिक,भौतिक
अंतिम उत्तरदायित्व से
माँ
जिसका चेहरा उदास रहने लगा था
मेरे लगातार विवाह से इंकार करने पर
और तभी
विक्षिप्तता की ओर तेजी से बढ़ रहा
मैं
कांप उठा यह सोंचकर
कि यदि मैं ठीक नहीं रख पाया अपना मानसिक संतुलन
तो जीवन भर अपने बच्चों के लिए संघर्ष करती रही
मेरी माँ
कैसे रह पायेगी मेरे बिना ?
और तब मैंने सिर झुका कर मान लिया
अपनी माँ का आदेश
और इस तरह तुम मेरे जीवन में
आयी थीं
मेरे तीन बच्चों की माँ
मेरी दुर्गा, मेरी सुशी
५-२-१९७६ का अंक ३ था
५-२-२०१२ का अंक भी ३ है
और आज ३६ वर्ष का अंक ९ है
जो कि बहुत ही शुभ अंक माना जाता है
क्योंकि यह पूर्णांक का द्योतक है
३६ वर्षों तक
मुझ जैसे व्यक्ति को
झेलने का अप्रतिम साहस
जिसने दिया है तुमको
उसके लिये आभारी हूँ
मैं
अपने प्रभु का, अपने गुरु का, अपनी माँ का,अपनी मम्मी का
और तुम्हारा भी
हाँ तुम्हारा भी
क्योंकि
तुमने दिये हैं
मुझे
प्यारे-प्यारे ३ संस्कारित बच्चे
जिन्होंने दिये हैं
मुझे
माँ काली, माँ लक्ष्मी और माँ सरस्वती की अवतार
कात्यायनी,श्राव्या और मनस्विनी जैसी
प्यारी-प्यारी राजकुमारियां
जिनका कोमल स्पर्श
जिनकी निश्छल हंसी
भर देती है न ख़त्म होने वाली ऊर्जा से
मुझे अंदर तक
और एक स्निग्ध तरलता में
आकंठ डूब जाता हूँ
मैं
इसके लिये मैं आभारी हूँ
तुम्हारा
मेरी प्यारी-प्यारी सुशी
Saturday, 4 February 2012
मनस्विनी की प्रथम वर्षगांठ पर
मैं
ख्वाबों में, खोई अपनी बिटिया को
"उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधयत "
का मंत्र सुनाने आया हूँ ।
मैं
उसको
उसके पुरखों की
या स्वर्णिम परम्परा के वाहक होने की
याद दिलाने आया हूँ ।
तुम आयी थी
आज धरा पर
जो मेरी संस्कृति का उल्लास पर्व है ।
यह स्रष्टि के पांचो तत्वों का
राग पर्व - अनुराग पर्व है ।
आकाश की नीलाभ निर्भ्रता
शीतल मंद सुगन्धित मलयानिल की स्पर्शयता
आम्र मंजरियों की शीतल दाहकता
नदियों के लहरों की स्निग्ध कोमलता
और और और
सरसों की पीली साड़ी पहिने
गुलाबों की महावर लगाये
बाहें फैलाये
धरा की सुन्दरता
व्याकुल है
स्वागत करने को
बसंत का
बसंतपंचमी
जो साक्षी है
माँ सरस्वती के अवतरण का
बसंतपंचमी जो साक्षी है
क्रान्तिदर्शी महाप्राण निराला के आगमन का
यही तुम्हारी परम्परा है
मेरी बच्ची
माँ सरस्वती की तरह
मन और बुद्धि पर
शासन हो तुम्हारा
मेरी बच्ची
माँ सरस्वती की ही तरह
शुभ्र वसना होना
मेरी लाड़ली
और उन्ही की वीणा की झंकार की तरह
तुम्हारी वाणी
मुरझाये उदास चेहरों में
निराश टूटे दिलों में
जीवन का उल्लास भर दे
मेरी दुलारी
नीर-क्षीर विवेकी बुद्धि रूपी हंस ही
तुम्हारा वाहन बने ।
महाप्राण निराला की तरह
दीन-दुखी लोगो को देखकर
तुम्हारी आखों में जल हो
और चेहरे पर व्यवस्था को बदलने का
संकल्प
यही आज के दीन मेरा आशीर्वाद है
मेरी बच्ची,मेरी लाड़ली,
अपने माँ-बाप की
अपनी परम्पराओं की
वाहक बनना
मेरी राजकुमारी ।
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