Saturday 3 September 2011

ऐसा क्यों होता है ?

 आस-पास बहुत सारे लोग बैठे है, पूरा सफ़र ख़त्म हो जाता है और आप बिना किसी से मुखातिब हुए,चुपचाप चले जाते हैं | कोई सफ़र ऐसा भी होता है,जब आप सफ़र ख़त्म होने के पहिले किसी के अच्छे मित्र बन चुके होते हो | ऐसा क्यों होता है ? मित्र बनाना न बनाना आप के हाथ में होता तो दुनियां में दुश्मन शब्द का इजाद ही न हुआ होता | पता नहीं कौन,कब,कहाँ आपके कौन से शुभ या अशुभ कर्मों का भुगतान करने के लिए,मिल जाये | मित्र के रूप में, पुत्र के रूप में, पत्नी के रूप में,पिता के रूप में, माता के रूप में या अन्य किसी सामाजिक रिश्ते के रूप में | यह सब कुछ आपके हाथ में नहीं है | इस सम्बन्ध में एक बोधिकथा द्रष्टव्य है | एक धनवान के एकमात्र पुत्र था,वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया,पिता ने अपना सारा धन खर्च करके,उसे बचाने का प्रयास किया पर उसे वह बचा न सका | जब पुत्र का अंतिम समय आया तो पिता सिरहाने बैठा था | पुत्र मुस्कराया,पिता के मन में आशा बंधी | पुत्र बोला,"खुश होने की जरुरत नहीं है,पिछले जन्म में आपने मेरे धन का अपहरण कर लिया था,मैं बदला लेने के लिए आपके एकमात्र पुत्र के रूप में आया था, मैंने ब्याज सहित अपना धन वसूल लिया है,अब जा रहा हूँ ,आपको जिन्दगी भर रोने के लिए अकेला छोडकर |" स्वामीजी अधिकतर यह कहा करते थे कि पिछले जन्मों के कर्मों के कारण तुमको इस जन्म का प्रारब्ध,प्राप्त हुआ है,इसे बदलना तुम्हारे लिए संभव नहीं है किन्तु इस जन्म के कर्म तुम्हारे हाथ में है | कम से कम इतने शुभ कर्म तो अवश्य कर लो, जिससे जो पूंजी तुम साथ लेकर आये हो,उसे वापस ले जा सको, कहीं ऐसा न हो कि इसी जन्म में सारी पूंजी गवां दो, और अगले जन्म में मानव योनि से भी वंचित हो जाओ | बाबा ने पूरे धर्म को एक पंक्ति में परिभासित कर दिया है,"परहित सरिस धर्म नहि भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई |" केवल इतना ही कर सको कि अपनी वाणी से, अपने आचरण से किसी का मन न दुखे तो यह जीवन सार्थक हो जायेगा | पर सुनने में जितना यह आसान लगता है,उतना ही करने में कठिन है | हाँ, गुरु कृपा और प्रभु कृपा से यह संभव हो सकता है | आर्त होकर प्रभु को, गुरु को पुकारो, वह अकारण करुना वरुनालय है, वह तुम्हारे उपर अवश्य करुना करेंगे | शेष प्रभु कृपा |
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