- जीवन में जब तक लक्ष्य सामने रहता है, जीवन गतिशीलता से परिपूर्ण रहता है, उत्साह से लबालब रहता है और नये-नये विचारों के अवागमन से आहलादित रहता है, पर जैसे-जैसे जीवन के लक्ष्य, एक-एक कर पूर्णता को प्राप्त करने लगते हैं, जीवन उद्देश्य हीन हो जाता है, न तो जीवन में उत्साह रह जाता है, न रस रह जाता है और जीवन एक बोझ लगने लगता है |
- इस समय मैं इसी मानसिकता से गुजर रहा हूँ | भाई पहाड़िया जी के एक गीत का यह बंद बहुत याद आता है जो शायद इसी मानसिकता की अभिव्यक्ति करता है,
- "अपने कमरे में बैठो, अपने आकाश गहो
- और किसी के नहीं विकल मन,अपने पास रहो |
- अपनी पीड़ा,अपने सुख-दुःख,अपने त्रास सहो |"
- मैं प्रात: भ्रमण के समय, मन ही मन इस भजन को रोज दोहराता हूँ, पर जीवन में नहीं उतार पाता खासकर यह पंक्तियॉं,
- "सुत,वनितादि जानि स्वारथ रत, न करु नेह सबही ते |
- अन्तहि तोहि तजेगें पामर,तू न तजहि अब ही ते |
- मन पछितैहैं अवसर बीते ||"
- मैंने इस जीवन की कभी कल्पना ही नहीं की थी | सांसारिक द्रष्टि से मैं एक भाग्यशाली व्यक्ति हूँ | कोई भी परिचित-अपरिचित व्यक्ति यह मानने के लिये तैयार ही नहीं होगा कि इतनी भौतिक उपलब्धियों के बाद भी कोई व्यक्ति इतना अशांत हो सकता है |यही मेरे जीवन की विडम्बना है|मेरे अंदर कभी-कभी ऐसे झंझावात चलते है, लगता है कि मेरा अस्तित्व ही उड़ता जा रहा है, एक अनजाने गंतव्य की ओर एक अनजान दिशा में और कभी-कभी ऐसा लगता कि मेरे चारो तरफ भीड़ है और इस भीड़ के बीच मैं अकेला खड़ा हूँ, एकदम अकेला और मेरे अंदर पसरा हुआ है, एक कभी न समाप्त होने वाला गहरा सन्नाटा, एक ऐसी वीरानगी जिसमें मेरा दम घुटता जा रहा है | मैं अपने गोलोक वासी गुरु, अपने प्रभु से नित्य यही प्रार्थना करता हूँ कि या तो मेरे जीवन को दिशा दो, एक जीने का उद्देश्य दो या पहिले की तरह भजन में डूब जाने की सामर्थ्य दो और यदि तुम मुझे इसका पात्र नहीं समझते तो इस उद्देश्यहीन जीवन से मुझे मुक्ति दो | अब इस उद्देश्यहीन जीवन के दंश मुझसे झेले नहीं जाते |
Monday, 17 November 2014
उद्देश्य हीन जीवन के दंश |
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