आज से करीब ९ वर्षों पूर्व मैं अपने इस जीवन के गुरु के संपर्क में आया था
| संपर्क में आने की घटना भी इस तरह घटी कि मैं कार्यालय से घर लौट रहा
था, रास्ते में मेरे एक मित्र का ऑफिस पड़ता था | मैंने सोचा कि अगर वह घर
चलना चाहे तो उन्हें भी लेता चलूँ | हम दोनों के घर पास-पास ही थे | यह
घटना संभवत: अक्टूबर,२००३ की है | मुझे प्रयाग आये तीन महीने हो चुके थे |
मैं मित्र के ऑफिस पहुंचा तो मित्र खाली थे, मैंने उनसे घर चलने के लिए
पूंछा तो वे बोले कि बैठो और इनसे मिलो यह है श्री लक्ष्मीनारायण जी, यह
भागवत बहुत अच्छी कहते हैं | मैंने कहा कि ऑफिस तो खाली है कुछ अपने मित्र
से सुनवाइये | लक्ष्मीनारायण जी ने पूंछा कि क्या सुनेंगे ? मैंने कहा कि"
गोपीगीत " सुनाइये तो उन्होंने कुछ श्लोक सुनाये, बहुत ही अच्छा लगा |
मैंने उनसे कहा कि अब आगे कब शुभ अवसर प्राप्त होगा ? तो उन्होंने कहा कि
वे जब भी प्रयाग आते हैं तो सुबह संगम स्नान के बाद ब्रह्मचर्य आश्रम में
स्वामी जी के पास जरुर बैठते हैं वहां पंडित रामकृष्ण शास्त्री भी आते है
जो कि आज के समय के मूर्धन्य विद्वानों में है | स्वामी जी के सानिध्य में
सत्संग हो जाता है | अत: यदि मैं सत्संग का एवं एक अच्छे महात्मा के दर्शन
का लाभ उठाना चाहता हूँ तो कल सुबह वही आ जाऊं |
Friday, 18 May 2012
मेरे गुरु की अतीन्द्रिय शक्तियां
Sunday, 13 May 2012
मदर्स डे पर ।
माँ,
जो स्वयं
सो कर
गीले में
सुलाती है
बच्चों को
सूखे में ।
माँ,
जो बच्चों को
चिपकाकर
सोती है
छाती से
और
कुनकुनाते ही बच्चों के
जाती है जग ।
माँ,
जो बच्चों को
कभी नहीं सुलाती
पीठ की तरफ
क्योंकि
उसे याद है
भगवान शंकर का वह आदेश
जिसमें उन्होंने कहा था अपने गणों से
बच्चों की तरफ
काटकर उसकी गरदन
जोड़ दो उसे
गणेश के धड के साथ ।
माँ,
जिसे हमेशा यह चिंता रहती है
कि लापरवाह है उसका बच्चा
खाने-पीने के प्रति
जिसके कारण वह होता जा रहा है
दुबला ।
माँ,
जो स्वयं
सो कर
गीले में
सुलाती है
बच्चों को
सूखे में ।
माँ,
जो बच्चों को
चिपकाकर
सोती है
छाती से
और
कुनकुनाते ही बच्चों के
जाती है जग ।
माँ,
जो बच्चों को
कभी नहीं सुलाती
पीठ की तरफ
क्योंकि
उसे याद है
भगवान शंकर का वह आदेश
जिसमें उन्होंने कहा था अपने गणों से
कि जो माँ
पीठ करके सोयी हो बच्चों की तरफ
काटकर उसकी गरदन
जोड़ दो उसे
गणेश के धड के साथ ।
माँ,
जिसे हमेशा यह चिंता रहती है
कि लापरवाह है उसका बच्चा
खाने-पीने के प्रति
जिसके कारण वह होता जा रहा है
दुबला ।
माँ,
जो बच्चे से दूर होने पर
करती रहती है
आत्मालाप
सुबह से शाम तक
पता नहीं
बहू ने नाश्ता बनाया होगा या नहीं ?
कहीं बगैर नाश्ते के वह ऑफिस न चला गया हो ?
पता नहीं लंच पर घर आया हो या काम में उलझा हो ?
शाम तक फोन न आने पर
उसका आत्मालाप हो उठता है
मुखर
"जब उसको हमारी चिंता नहीं है
तो मैं ही क्यों करूँ ?"
इतना कहकर
टीवी खोलकर
या कोई धार्मिक पुस्तक लेकर
जाती है बैठ
पर कान
फोन की घंटी पर ही लगे रहते हैं ।
माँ,
करती रहती है
आत्मालाप
सुबह से शाम तक
पता नहीं
बहू ने नाश्ता बनाया होगा या नहीं ?
कहीं बगैर नाश्ते के वह ऑफिस न चला गया हो ?
पता नहीं लंच पर घर आया हो या काम में उलझा हो ?
शाम तक फोन न आने पर
उसका आत्मालाप हो उठता है
मुखर
"जब उसको हमारी चिंता नहीं है
तो मैं ही क्यों करूँ ?"
इतना कहकर
टीवी खोलकर
या कोई धार्मिक पुस्तक लेकर
जाती है बैठ
पर कान
फोन की घंटी पर ही लगे रहते हैं ।
माँ,
जो कछुए की तरह
अहर्निश चिन्तन करती है
अपने बच्चों का ।
माँ,
जो
महीने में १० दिन व्रत करती है
बच्चों के लिए ।
माँ,
जो
तीर्थ यात्राओं में
तीर्थों से मांगती है
केवल और केवल
बच्चों का कल्याण ।
माँ,
जो
बच्चों पर जरा सा भी संकट आने पर
तुरंत जाती है पहुँच
शरण में
माँ संकटा देवी के ।
माँ,
जिसे
अपनी बहू नासमझ
और लड़का समझदार लगता है ।
माँ,
जिसे
अपनी लड़की समझदार
और दामाद नासमझ लगता है ।
माँ,
जिसके लिए
हमने एक दिन निश्चित कर दिया है ।
माँ,
उस दिन का इंतजार करती है
बेसब्री से
कब सुबह हो ?
कब बच्चों के मुख से " हैप्पी मदर्स डे"
सुनने को मिले और वह धन्य हो जाये ।
कितने आधुनिक हो गए हैं हम
भूल गए हैं हम
अपनी सारी परम्पराएँ ।
भूल गए है
अपने सांस्कृतिक मूल्य ।
हम,
उस संस्कृति के वाहक हैं
जहाँ
सुबह उठकर
धरती माँ पर चरण रखने के पहिले
मांगी जाती है क्षमा माँ से
"समुद्र वसने देवि,पर्वत स्तन मंडले,
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यम्, पाद स्पर्शम क्षमस्व मे "।
पृथ्वी माता से मांगने के बाद क्षमा
सबसे पहिले प्रणाम किया जाता था
जननी को ।
और उसके बाद नंबर आता था
पिता और गुरु का
"प्रातकाल उठके रघुनाथा,मातु,पिता,गुरु नावहिं माथा"।
हम,
वाहक है उस संस्कृति के
जहाँ माता का स्थान सर्वोपरि था ।
माँ,
जिसे पूरा अधिकार था
पिता के आदेश में संशोधन करने का
"जौं केवल पितु आयुष ताता, तौं जनि जाहु जानि बड़ि माता
जौं पितु-मातु कह्यो बन जाना, तौं कानन सत अवध समाना "
मुझे माफ़ करना
मेरे देशवासियों
मैं,
नहीं मना पाउंगा
तुम्हारे साथ "मदर्स डे"
क्योंकि
मेरी माँ
मेरी हर साँस में बसती है
जीवन की अंतिम साँस तक
ऋणी रहूँगा
मैं,
अपनी माँ का
कोई भी आभार प्रदर्शन
नहीं मुक्त कर सकता मुझे
अपनी जननी के ऋण से
शेष प्रभु कृपा |
अहर्निश चिन्तन करती है
अपने बच्चों का ।
माँ,
जो
महीने में १० दिन व्रत करती है
बच्चों के लिए ।
माँ,
जो
तीर्थ यात्राओं में
तीर्थों से मांगती है
केवल और केवल
बच्चों का कल्याण ।
माँ,
जो
बच्चों पर जरा सा भी संकट आने पर
तुरंत जाती है पहुँच
शरण में
माँ संकटा देवी के ।
माँ,
जिसे
अपनी बहू नासमझ
और लड़का समझदार लगता है ।
माँ,
जिसे
अपनी लड़की समझदार
और दामाद नासमझ लगता है ।
माँ,
जिसके लिए
हमने एक दिन निश्चित कर दिया है ।
माँ,
उस दिन का इंतजार करती है
बेसब्री से
कब सुबह हो ?
कब बच्चों के मुख से " हैप्पी मदर्स डे"
सुनने को मिले और वह धन्य हो जाये ।
कितने आधुनिक हो गए हैं हम
भूल गए हैं हम
अपनी सारी परम्पराएँ ।
भूल गए है
अपने सांस्कृतिक मूल्य ।
हम,
उस संस्कृति के वाहक हैं
जहाँ
सुबह उठकर
धरती माँ पर चरण रखने के पहिले
मांगी जाती है क्षमा माँ से
"समुद्र वसने देवि,पर्वत स्तन मंडले,
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यम्, पाद स्पर्शम क्षमस्व मे "।
पृथ्वी माता से मांगने के बाद क्षमा
सबसे पहिले प्रणाम किया जाता था
जननी को ।
और उसके बाद नंबर आता था
पिता और गुरु का
"प्रातकाल उठके रघुनाथा,मातु,पिता,गुरु नावहिं माथा"।
हम,
वाहक है उस संस्कृति के
जहाँ माता का स्थान सर्वोपरि था ।
माँ,
जिसे पूरा अधिकार था
पिता के आदेश में संशोधन करने का
"जौं केवल पितु आयुष ताता, तौं जनि जाहु जानि बड़ि माता
जौं पितु-मातु कह्यो बन जाना, तौं कानन सत अवध समाना "
मुझे माफ़ करना
मेरे देशवासियों
मैं,
नहीं मना पाउंगा
तुम्हारे साथ "मदर्स डे"
क्योंकि
मेरी माँ
मेरी हर साँस में बसती है
जीवन की अंतिम साँस तक
ऋणी रहूँगा
मैं,
अपनी माँ का
कोई भी आभार प्रदर्शन
नहीं मुक्त कर सकता मुझे
अपनी जननी के ऋण से
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