"खल परिहरिह स्वान की नाईं" "सठ सुधरहि सतसंगत पाई","मूरख हृदय न चेत,जो गुरु मिलहिं विरंच सम" यह तीनो पंक्तियाँ बाबा तुलसीदास द्वारा रचित हैं | तीनो के संदर्भ अलग-अलग हैं | हम सब के जीवन में भी यह तीनो प्रकार के व्यक्ति आते हैं | कभी शठ से,कभी मूर्ख से और कभी खलों से भी जीवन में भेट हो ही जाती है और हम यह जान भी जाते हैं कि यह किस श्रेणी के व्यक्ति हैं ? जान जाने के बाद भी मोह के कारन हम उन्हें श्वान की तरह त्याग नहीं पाते और वे हमारी इस कमजोरी को जानकर, जीवन भर हमें कष्ट पहुंचाते रहते है | भाई गोविन्द मिश्र ने मेरे एक मित्र से कहा था कि जिन्दगी इतनी बड़ी नहीं है कि बार-बार एक ही व्यक्ति को आजमाते रहो | उनकी यह बात बहुत अच्छी लगी थी | पर न उनकी बात को और न बाबा तुलसीदास की बात को ही जीवन में उतार सका और कष्ट पाता रहा | अब जीवन के उतरार्ध में, प्रभु से यही करबद्ध प्रार्थना है कि अब तो मोह से मुक्त कर दो, जिससे शेष जीवन आनंद से बीत सके |
शेष प्रभु कृपा |
No comments:
Post a Comment