Saturday, 3 September 2011

धन की तीन गतियाँ

 हमारे हिन्दू धर्म में दरिद्रता को सबसे बड़ा दुःख कहा गया है | एक विचित्र मान्यता फैला दी गयी है कि धन बुरी वस्तु है, इससे दूर रहने में ही जीव का कल्याण है | जबकि हमारे शास्त्र ऐसा कुछ भी नहीं कहते | हमारे यहाँ गलत तरीकों से कमाए गए धन को अनुचित धन माना गया है और इसी धन के लिए कहा गया है कि ऐसा धन अपने साथ दस बुराइयों को लेकर आता है और जीव को ऐसे धन से दूर रहना चाहिए | ईमानदारी के साथ कमाए गए धन में से दसवां हिस्सा, दान ( किसी अच्छे कार्य, किसी गरीब की सहायता, किसी ऐसे कार्य,जिसे करने में आत्मा को सुख मिलता हो, मन को नहीं ) के लिए निकाल देने के बाद शेष धन को अपने व्यक्तिगत उपयोग में लेना चाहिए | और इसके साथ -साथ, प्रभु से हमेशा यही प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु तुम मेरी बुद्धि को इसी तरह निर्मल बनाये रखना जिससे कभी स्वप्न में भी मेरे मन में अनुचित धन के प्रति आकर्षण न पैदा हो | हाँ इसमें इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि माँ लक्ष्मी अपने पुत्रों को धन धान्य, से इसलिए परिपूर्ण करती है कि आप एक अभाव रहित जीवन जी सके | हर माँ चाहती है कि उसके बच्चे, खूब अच्छा-अच्छा खाए,अच्छा-अच्छा पहिने,अच्छे मकान में रहे और अपने पिता (प्रभु ) की सेवा और भक्ति करे | पर जब माँ लक्ष्मी देखती है कि उनका पुत्र तो धन संग्रह करने की मशीन बन कर रह गया है | न तो यह दान करता है, न अपने उपयोग में लाता है और न पिता (प्रभु ) को ही याद करता है तो माँ बच्चे का अनिष्ट तो नहीं करती,पर दुखी अवश्य हो जाती है | गीता की सोहलवे अध्याय में भगवान कहते है,"आशापाशशतैरबधा: कामक्रोधपरायणा: ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंच्यान"
"इदमद्य मया लब्धमिमम प्राप्स्ये मनोरथम,इदमस्तीदमपि में भविष्यति पुनर्धनम " इसका यह अर्थ होता है की आशा की रस्सियों से बंधा हुआ, काम और क्रोध के वशीभूत मनुष्य,अनुचित कामनाओं की पूर्ति हेतु संग्रह करता रहता है | वह सोचा करता है कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और आगे और मनोरथ भी पूरे हो जायेंगे, मेरे पास अभी इतना धन और सम्पती है, आगे और धन तथा सम्पती हो जाएगी | बस इसी में यह अमूल्य मानव जीवन व्यर्थ चला जाता है | धन की पहली गति दान है,दूसरी गति उसका उपयोग है | यदि व्यक्ति इन दोनों से वंचित रह जाता है तो उसका धन नष्ट हो जाता है | शेष प्रभु कृपा |

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