आज जिस तरह से अन्ना हजारे के अनशन के बारे में, सत्ता में बैठे मदांध शासकों द्वारा निर्णय लिया जा रहा है,वह आपातकाल की यादों को पुनर्जीवन दे रहा है | मुझे अच्छी तरह याद है, जिस दिन इस देश में आपातकाल थोपा गया था, उस दिन एक समाचारपत्र ने अपने सम्पादकीय कॉलम में, मुंह का चित्र बनाकर, उसके उपर क्रास का निशान बना दिया था, उसके नीचे लिखा था,"आपातकाल लागू" और पूरा सम्पादकीय कॉलम खाली छोड़ दिया था | उस पत्र का यह प्रतीकात्मक विरोध बहुत अच्छा लगा था | उस आपातकाल ने लिखने की, बोलने की आजादी छीन ली थी | यह आजादी छीन लेने का दंड सत्ता को भोगना पड़ा था |
आज इतिहास अपने को दोहराने जा रहा है | आदमी की अभिव्यक्ति की आजादी पर जब -जब भी संकट आया है, तब-तब यह निरीह सा दिखने वाला आदमी, फौलाद की तरह, मजबूत हो गया है और सत्ता के चलाये घन उसे तोड़ने में सफल नहीं हो पाए हैं | जब आपातकाल लगा था तब मैं सरकारी नौकरी में था | उस समय भाई दुष्यंत अपनी पूरी ओजस्विता के साथ हिंदी गजल को एक नया आयाम दे रहे थे और भाई कमलेश्वर पूरी सम्पादकीय निष्टा के साथ "सारिका" में उसे छाप भी रहे थे | हम नवयुवकों को दुष्यंत की गजलें प्रेरणा की वह अजस्र श्रोत बन गयी थी जो आज फिर से हमें पुनर्जीवन देने के लिए याद आने लगीं है | उनकी गजलों के कुछ शेर प्रस्तुत हैं –
"मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है |"
"कौन कहता है, आकाश में सूराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से, उछालो यारो |",
"यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिये |"
उसी आपातकाल में लिखी गयी मुझे अपनी एक कविता याद आ रही है:-
“पैर धंस गए हैं भुरभुरी बर्फ में,
जो अब जमकर पत्थर हो गयी है घुटनों तक |
हाथों में धोखेबाज समय ने गाड़ दी है कीलें,
सूख गयीं है आँखों में लहराते विश्वासों की झीलें |
हरे भरे बाग़ को बेदर्दी से रौंद गया बेमौसमी पतझर,
जाने कितनी परिचित,अपरिचित शंकाओं से घिरा मन |
पुतलियों में जम गया खूब घना कोहरा ,
शंखों की बेसुरी धुनों ने कर दिया बहरा |
मेरे युग का देवता , कुत्तों को दाल गया बोटियाँ ,
मेरे मुंह में ठूंस गया रोटियाँ |
दूर कहीं , कोई जोर से चिल्ला रहा है ,
सूरज गर्भ में छटपटा रहा है | "
शेष प्रभु कृपा |
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