ब्लॉग लेखन क्यों ? इतने सारे ब्लॉग लेखकों की भीड़ में मैं क्यों शामिल होना चाहता हूँ? हमेशा भीड़ से डरने वाला व्यक्ति आखिर इस भीड़ का एक हिस्सा क्यों बनना चाहता है ? यह प्रश्न कई दिनों से मन में उठ रहा था | छात्र जीवन में कवितायेँ लिखता था| नौकरी में आने के बाद बहुत सारे समझौते , न चाहने के बावजूद, करने पड़े | तब लगा कि जब मैं अपने आदर्शों पर नहीं चल पा रहा तो फिर आदर्शों की बात करना क्या अपनी रचनाधर्मिता के साथ बेईमानी नहीं है ? यही सोच कर मैंने सायास लेखन बंद कर दिया | बीच बीच में जब पीड़ा बहुत बढ़ जाती थी तो कुछ लिख लेता था | जब भी लिखा, पीड़ा का अतिरेक हो जाने पर लिखा | कभी डायरी नहीं बनाई, पन्नों में लिख कर फेंकता रहा | लेखन को कभी गंभीरता से नहीं लिया | जीवन में अच्छे लोग मिलते रहे और मेरी यह धारणा पुष्ट होती रही कि यह समाज जीने लायक है | यह भी लगा कि शास्त्रों का यह सिद्धांत एकदम सही है कि आप के अन्दर जो है वही बाहर प्रतिबिम्बित होता है | पर इधर दो बरसों से जीवन में इतना कुछ घटित हुआ कि लगा कि कहीं विक्षिप्त न हो जाऊँ पर वेदों के" कर्म सिद्धान्त " में दृढ़ आस्था होने के कारण बच गया | यह सोच कर अपने को संभाल लिया कि यह पिछले जन्मों के किये हुए मेरे ही कर्मों का प्रतिफल है जो मुझे ही भोगना पड़ेगा | जीवन में पहली बार यह अनुभव हुआ कि जिसे आप पूरी शिद्दत के साथ चाहते हैं वह आपसे नफरत भी कर सकता है, जिस घटना में आपकी कोई भूमिका न हो उसके लिए भी आपको दोषी माना जा सकता है और तब "हानि- लाभ, जीवन- मरण, यश- अपयश, विधि हाथ " की सार्थकता समझ में आई | जो मेरे हाथ में ही नहीं उसके लिए मैं दुखी क्यों होऊँ? अपने एक मित्र की यह पंक्तियाँ , लगता है इन्हीं स्थितियों से गुजरते हुए लिखी गयी होंगीं " अपने कमरे में बैठो अपने आकाश गहो ,और किसी के नहीं विकल मन, अपने पास रहो | अपनी पीड़ा, अपने सुख-दुःख , अपने त्रास सहो | और किसी के नहीं विकल मन अपने पास रहो |"और मैंने भी अपने को कमरे में बंद कर लिया | जिन्दगी भर दूसरों के लिए जीने वाला आदमी अपने को मानसिक विक्षिप्तता से बचाने के लिए अपने को अपने में ही समेट लेता है क्योंकि उसका मन गेरुआ वस्त्र देखते ही, किसी को दंडवत प्रणाम करते देखकर, उसे कुछ चेहरे याद आने लगते हैं और उसका मन वितृष्णा से भर जाता है | और क्रोध जन्म लेने लगता है "क्रोधाति भवति सम्मोहः,सम्मोहात स्मृति विभ्रमह | स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाशात, बुधिनाशात प्रणश्यति "| जानता हूँ यह नहीं होना चाहिये पर इस पर नियंत्रण नहीं हो पाता,इसीलिए अपने को कमरे में बंद कर लिया है | कमरे में बंद करने के बाद लगा कि मुझे अपने को नियंत्रित रखने के लिए फिर से लेखनी का सहारा लेना चाहिए,विगत आठ बरसों से जब से मैं अपने गुरु जी के संपर्क में आया हूँ ,मैंने क्रोध को छोड़कर और कोई गुनाह नहीं किया है | जानता हूँ मेरे क्रोध करने से मेरे गुरूजी को बहुत दुःख होता है फिर भी क्रोध का कोई कारण बन जाने पर क्रोध आ ही जाता है |इसी से सोचा कि लिखना शुरू करुँ, शायद मन हल्का हो जाये और क्रोध पर कुछ नियंत्रण हो सके | ३१ जुलाई को सेवानिवृत्ति के समय बच्चों ने एक लैपटॉप दे दिया और चलाने का प्रारंभिक ज्ञान दे दिया जिससे यह कार्य प्रारंभ हो गया है | लिखकर अपने को हल्का कर लेता हूँ ,यही इसकी उपयोगिता है | ब्लॉग लिखने वालों की भीड़ का मैं भी एक हिस्सा हो गया हूँ | यही मेरे ब्लॉग लेखन का कारण है |
शेष प्रभु कृपा |
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