Monday, 8 August 2011

देने का अहंकार मत पाल लेना

"देने का अहंकार मत पाल लेना |" यह एक ऐसा वाक्य है, जिसने मुझे जीवन के प्रारंभिक काल में ही एक दृष्टि प्रदान कर दी थी | इस दृष्टिबोध के कारण मेरे जीवन में अनावश्यक अहंकार का अभाव रहा | मेरे जीवन की वह महत्वपूर्ण घटना मुझे आज भी इस तरह याद है जैसे वह कल की ही बात हो | ज्यादा भूमिका में न जाकर, मैं सीधे घटना पर ही आ जाता हूँ |

                                यह वर्ष १९७४ की घटना है | मैं वर्ष १९७३ में ही नौकरी में आया था | मैं बांदा में राशनिंग विभाग में कार्यरत था | उस समय टोटल राशनिंग थी | जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओँ पर कंट्रोल लागू था और वह सरकारी राशन की दुकानों पर राशनकार्ड या परमिट पर ही उपलब्ध थी | उस समय सीमेंट की जबरदस्त कमी थी | सीमेंट का परमिट ५ बोरी से ज्यादा का जारी ही नहीं किया जाता था,जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को सीमेंट की प्राप्ति हो सके | कंट्रोल की सीमेंट और खुले बाजार में ब्लैक में उपलब्ध सीमेंट के दामों में १० रुपए का अंतर था जो उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी |

                            मैं कार्यालय में अपने चेम्बर में बैठा हुआ था, बाहर सीमेंट के परमिट लेने वालों की लाइन लगी हुई थी, काफी भीड़ थी, तभी चेम्बर के दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनाई पड़ी, मैंने कठोर स्वर में पूछा , कौन है, क्या चाहते हो ? बाहर से बहुत ही मधुर स्वर में दरवाजा खोलने का अनुरोध किया गया | स्वर की मधुरता ने दरवाजा खोलने पर विवश कर दिया | दरवाजा खोलने पर देखा, एक फटीचर सा आदमी खड़ा है, मैंने कहा देख रहे हो कितनी भीड़ है, शीघ्रता से अपनी बात कहो | उसने कहा बाबूजी मैं बहुत परेशानी में हूँ, आप अपना कार्य निपटा ले तभी मैं आपको पूरी बात बता सकूँगा, अगर आपकी अनुमति हो तो मैं यहीं बैठकर आपके खाली होने का इंतजार कर लूं | मैं उसके मधुर स्वर के कारण, उसे मना  नहीं कर पाया और खाली कुर्सी की तरफ इशारा करके कहा,  बैठो | वह बैठ गया और मैं अपने कार्य में व्यस्त हो गया |

                                वह बहुत हल्के मधुर स्वर में मानस की पंक्तियाँ गुनगुनाता रहा | सुनने में बहुत अच्छा लग रहा था | मुझे भीड़ निपटाने में करीब २ घंटे लगे | खाली होने के बाद मैंने उससे पूछा , चाय पियोगे? उसने कहा प़ी लूँगा | मैंने चपरासी को चाय लाने को कहा और उससे कहा कि तुम्हारी बात मैं बाद में सुनूँगा ,पहले तुम मुझे जो अभी तक गुनगुना रहे थे , वह खुल कर सुनाओ | उसने सुंदरकांड की पंक्तियाँ सुनाई | उस का स्वर इतना मधुर था कि मैं मुग्ध हो गया| चाय पीने के बाद मैंने उससे कार्य पूछा तो वह बड़े आर्त स्वरों में बोला, बाबूजी मेरा मकान गिर गया है ,मेरे बच्चे पड़ोसी के यहाँ है | आज मेरे मकान में लेंटर पड़ना है, मैं गरीब हूँ ,ब्लैक में सीमेंट खरीदने की सामर्थ्य नहीं है, मुझे ५०बोरी सीमेंट का परमिट चाहिए | मना मत कीजिएगा, मैं बगैर परमिट लिए यहाँ से नहीं  जाऊँगा | मुझे अखंड विश्वास है कि आप मुझे निराश नहीं करेंगे | अगर आप ५० बोरी से कम का परमिट देंगे तो भी नहीं लूँगा और यहाँ से जाऊंगा भी नहीं | मैं बड़े धर्मसंकट में पड़ गया कि क्या करुँ? ५बोरी से ज्यादा के परमिट बन नहीं रहे,इसे देता हूँ तो आगे कोई इसका उदाहरण देगा तो परेशानी होगी,उधर उसकी आशाओं पर पानी फेरने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था | पता नहीं क्या हुआ, मैंने ५-५ बोरी के दस परमिट फाड़कर उसे दे दिए और उससे कहा जल्दी से यहाँ से निकल जाओ और इसकी चर्चा किसी से मत करना | वह कृतज्ञता से रो पड़ा और रोते -रोते बोला "बाबूजी , मैं जा रहा हूँ पर आप देने का अहंकार मत पाल लेना |" इतना कहकर वह तेजी से चला गया | उसके जाने के बाद मैं उसके मधुर स्वरों के सम्मोहन से बाहर आया तो मुझे लगा कि कहीं यह फटीचर सा आदमी मुझे बेवकूफ तो नहीं बना गया | फिर लगा कि अब जो होना था हो चुका है, दिमाग ख़राब करने से क्या फायदा ?

                        इस घटना के एक माह बाद मैं रिक्शा से बाजार से गुजर रहा था कि तभी वह फटीचर सा आदमी जाने कहाँ से प्रगट हो गया और रिक्शा का हैण्डिल पकड़ कर बोला , बाबूजी रिक्शा से उतरिये, पास में ही मेरा घर है, मैं आपको अपने घर की छत के नीचे एक कप चाय पिलाना चाहता हूँ | मैंने उसे टालने का बहुत प्रयास किया पर मुझे उसके आग्रह पर मजबूर होकर उसके घर जाना पड़ा | जाने पर साफ़ दिखाई पड़ता था कि ताजा लेंटर पड़ा है, मन में जो उसके प्रति शंका पैदा हुई थी उसके लिए मन में अपराधबोध पैदा हुआ | तभी वह बोला कि बाबूजी मैं इसलिए आप को जोर देकर घर लाया था कि आपके मन में जो मेरे प्रति संदेह पैदा हुआ था,उसका शमन हो सके | मैंने उस दिन जो आपसे कहा था कि "आप देने का अभिमान मत पाल लेना" वह इसलिए कहा था कि वह आपने नहीं दिया था,मेरे आराध्य हनुमान जी ने आपको आदेश दिया था,आप केवल माध्यम भर थे | नहीं तो मैं फटीचर सा आदमी,उसमें आपको क्या दिखाई पड़ा जो आपने मेरे उपर इतनी बड़ी कृपा कर डाली |
                              उसने एक निवेदन और किया कि मैं सुंदर कांड का पाठ किया करुँ इससे मेरे जीवन में शुभ ही शुभ होगा, सुंदर ही सुंदर होगा | वह मेरे जीवन कि एक महत्वपूर्ण घटना थी,जिसने मेरे जीवन को एक नए आलोक से भर दिया |

शेष प्रभु कृपा |

4 comments:

  1. Its really good to know the incidents which had shaped the life of your parents..the people who has shaped your life...

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  2. An eye-opener! I don't know how to write in hindi on this site. Let me relate a story. I was the nominee chairman of Kendriya Vidyalaya in Sabarmati, Ahmedabad. I used to overlook the administrative work, admissions, cultural activities,etc. of Vidyalaya. Being in Ahmedabad, it was a very sought after school and all of a sudden, many people from different fields tried to come close to me so that their children could be admitted to the school. That was a kind of brush with the selfishness of people all around you. Every person I met I would remind myself that he met me because of my chair rather than me in person. This reminder always kept me close to reality of my self. One night at around 8:00 PM, a lady with her husband and two kids barged into my house. I had come back from my office 15 minutes before after an extremely heavy day and I was in no mood to deal with any nuisance. The person working at my house told me about it and I said that I did not want to meet anybody. My wife overlooked the window, saw the family and told me that how could I be so irrational and inhuman to even forget the basic courtesy. I just looked at her. My wife went to the balcony, opened the gate, made them seat and offered water. After seeing her hospitality, I felt so ashamed of my behavior that I came out to meet them. That line of hers stills rings in my head reminding me that how I was getting lost in my own world of power and position and how gradually I was forgetting the basics that my parents once taught. Everybody stood up all at once including the kids. I was almost used to people standing wherever I went but seeing kids standing up was self demeaning. I thought how a kid who was five years old could understand my stature. I flied him up in my arms and said that you never had to do that. His mother started weeping with folded hands asking me to get her son admitted to the Vidyalaya. They belonged to a very poor family. She tendered her sincere apologies for barging in the house and said only one sentence " aapka naam parha aur laga ki aap shayad kuch kar denge. Hamare paas na to paisa hai na pehchaan. Agar kuch nahin hoga to kal ko ye majdoori hi karega". His father was a technician and used to earn Rs.50 in two-three days. I took his details and I told them to contact me after a week. I don't know why but I wanted to get him admitted though there were so many influential people who had approached me "fabulous" offers for the same class. I also knew that rules would not allow this child to get admission. I called the principal, gave him the details and told him that rules did not allow, but this case had to be considered. Somehow, we were able to get him admitted. I had no contact information about them except that they lived in the same region. After fifteen days, when I had almost forgotten about the incident, the family again came at night with a box of sweets. I was surprised to see them since I had thought that they must have felt that "kaam nikal gaya". You get used to such feelings in government services. But it was not the case with them. I seldom accepted sweets at home. I took one piece and gave it to her kid and said that I would be happier if he consumes it. Towards the end, the lady said " Bhagwan ki kripa se ho gaya". Surprised, I realized that I was only a medium. Greeted them again and let them out of the home. I never met the family again.

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  3. आदरणीय पापा और प्यारे GK ,
    दोनों घटनाओं का साम्य बहुत विनम्र कर देने वाला संयोग है
    शायद भगवान भी उसी समय यह शब्द हमें सुनाता है कि `` देने का अहंकार मत पाल लेना `` या `` भगवान कि कृपा से हो गया `` जब हम अपने को कर्ता मानकर हवा में उड़ने वाले होते हैं :)

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    1. सत्य कहा भाई जी।

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