"जब 'मैं' था, तब 'तू' नहीं, अब 'तू' है, 'मैं नाहि ।
प्रेम गली अति सांकरी, या में दुइ न समाय ।"
जब तक मैं यानि मेरा अहंकार मेरे साथ था, तब तक तू मेरे पास नहीं था और जब अब तू यानि हरि मेरे पास हैं तो मेरा मैं मेरे पास नहीं है । यह प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें दो समा ही नहीं सकते ।
भाव यह है कि जब तक जीव के अहंकार का पूर्णतया विगलन नहीं हो जाता तब तक वह प्रभु की कृपा का अनुभव नहीं कर पाता । इस अहंकार का कारण है जीव का कर्ता भाव । जब तक जीवन में सफलता मिलती रहती है, वह इसका कारण अपने को समझता रहता है और जब जीवन में असफलताएं मिलनी शुरू होती हैं,जैसे कि उच्चतम पद,अकूत धन,अपरमिति ज्ञान होने के बाद भी,वह जो चाहता है,वह नहीं हो पाता । तब धीरे- धीरे,उसके अहंकार का विगलन प्रारंभ हो जाता है और उसकी समझ में आने लगता है वह कर्ता नहीं है । जबकि वस्तुतः कर्ता वही है, क्योंकि जब तक निष्काम कर्म की स्थिति नहीं बनती,तब तक जीव को अपने ही कर्मों का फल भुगतना पड़ता है ।
"काहू न कोऊ सुख-दुःख कर दाता । निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ।"
कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता । सब अपने कर्मों का ही फल भोगते हैं ।
विज्ञान भी यह कह कर कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यानि कि प्रतिक्रिया (फल) क्रिया (कर्म) में ही निहित है,के द्वारा,वेदों में प्रतिपादित "कर्म सिद्धांत" की ही पुष्टि करता है ।
पर यह सब तभी समझ में आयेगा, जब जीव के अहंकार का पूर्ण विगलन हो जायेगा और तब वह गा उठेगा "जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है ।" यानि मैं ही मैं हूँ क्यों कि तू के रूप में मैं ही हूँ । दूसरा तत्व है ही नहीं क्योंकि यह प्रेम गली अति संकरी है इसमें दूसरे के लिए स्थान ही नहीं है ।
इस स्थिति में पहुँच जाने के बाद ही,"अहं ब्रह्मास्मि","प्रज्ञानं ब्रह्म", "अयमात्मा ब्रह्म","तत्वमसि" इन वेद वाक्यों का अर्थ समझ में आयेगा ।
प्रेम गली अति सांकरी, या में दुइ न समाय ।"
जब तक मैं यानि मेरा अहंकार मेरे साथ था, तब तक तू मेरे पास नहीं था और जब अब तू यानि हरि मेरे पास हैं तो मेरा मैं मेरे पास नहीं है । यह प्रेम की गली इतनी संकरी है कि इसमें दो समा ही नहीं सकते ।
भाव यह है कि जब तक जीव के अहंकार का पूर्णतया विगलन नहीं हो जाता तब तक वह प्रभु की कृपा का अनुभव नहीं कर पाता । इस अहंकार का कारण है जीव का कर्ता भाव । जब तक जीवन में सफलता मिलती रहती है, वह इसका कारण अपने को समझता रहता है और जब जीवन में असफलताएं मिलनी शुरू होती हैं,जैसे कि उच्चतम पद,अकूत धन,अपरमिति ज्ञान होने के बाद भी,वह जो चाहता है,वह नहीं हो पाता । तब धीरे- धीरे,उसके अहंकार का विगलन प्रारंभ हो जाता है और उसकी समझ में आने लगता है वह कर्ता नहीं है । जबकि वस्तुतः कर्ता वही है, क्योंकि जब तक निष्काम कर्म की स्थिति नहीं बनती,तब तक जीव को अपने ही कर्मों का फल भुगतना पड़ता है ।
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कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता । सब अपने कर्मों का ही फल भोगते हैं ।
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