Friday, 9 September 2016


हमारी यह विडम्बना है कि हम भगवान को तो मानते हैं पर भगवान की नहीं मानते । भगवान गीता में स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि,
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानामं योगक्षेमं वहाम्यम् ।।"
जो अनन्य् चित्त होकर मेरी उपासना करते हैं,उनके भरण-पोषण और योग-क्षेम की जिम्मेदारी मैं स्वयं वहन करता हूँ ।
या रामायण में प्रभु राम कह रहे हैं,
"मोर दास कहाइ नर आशा । करहि तो काह मोर विश्वासा ।।"
अपने को मेरा भक्त कहते हो और आशा मनुष्यों से रखते हो तो फिर तो फिर तुम्हारा मुझ पर विश्वास ही कहाॅ रहा ?
हम सब की यही  स्थिति है ।जिन्दगी में संकट आने पर हम अपने धन,परिवार,समाज की ओर आशा भरी दृष्टि से निहारते  हैं । पर जब सब ओर से निराशा हाथ लगती है,तब गुरू या भगवान की याद आती है  ।
द्रौपिदी ने भगवान से बाद में पूंछा था कि चीरहरण के समय आपने आने में देर क्यों की ?तो कृष्ण ने यही उत्तर दिया कि पहिले तुमने अपने पर फिर पतियों पर फिर पितामह पर फिर समाज पर भरोसा किया ।जब सब ओर से निराशा हाथ लगी तब तुम को मेरी याद आई । जैसे ही तुमने मेरी याद की में तुरंत हाजिर हो गया ।

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