Friday, 22 July 2016
जीवन क्या है ?
जीवन उस नदी के समान है जो अपने रास्ते में आने वाली हर बाधा को मिटाती हुई,अपने उद्गम स्थल (सागर) की बॉंहों में समाहित होकर,अपने अस्तित्व को समाप्त कर,स्वंय सागर हो जाती है ।"आोम् पूर्णमद:,पूर्णमिदम्,पूर्णात्,पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य,पूर्णमादाय,पूर्णमेवावशिष्यते ।"आइए,हम भी,जीवन की इस निरन्तरता का,साक्षीभाव से आनन्द लें तो न राग होगा और न ही द्वैष । हम भी चारों तरफ़ केवल प्रभु(अस्तित्व) का ही दर्शन करते हुए,तुलसी की तरह गा उठेंगे,"सीय-राम मैं सब जग जानी,करहुं प्रनाम् जोरि जुग पानी ।" और सीताराम क्या है,"गिरा-अर्थ,जल-वीचि सम,कहियत भिन्न न भिन्न । वन्दउ सीताराम पद,जिन्हिह परम प्रिय खिन्न ।।" या जयशंकर'प्रसाद' की तरह,हम भी कह पड़ेगें,"हिमगिरि के उतंग शिखर पर बैठ सिला की शीतल छॉंह,एक पुरूष,भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह । नीचे जल था ऊपर हिम था,एक तरल था,एक सघन । एक ही तत्व की प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन ।।"
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